गुस्सा शांत होने के बाद मुझे एक अजीब ही किस्म की उदासी ने घेर लिया. मेरे नजर के सामने से उस आठ साल की बच्ची का चेहरा हट ही नहीं रहा है. रेप और हत्या की मैंने कई खबरें पढ़ी हैं, लेकिन कभी भी कोई भी खबर या घटना समझ नहीं आती कि क्यों हुई?
पीले फूलों वाली उसकी बैंगनी फ्रॉक, बड़ी बड़ी आंखें और मासूम चेहरा. वो दिन रात मुझे घूरती हैं. भेदती हैं. मैं अपने बचपन की फोटो देखती हूं और उसे देखती हूं. इस तरह की क्रूरता के आगे हम कितने असहाय हो जाते हैं, कितने निरीह हैं हम कि अपने खिलाफ हुए शोषण और सुनी गई गालियों के बारे में बात भी नहीं कर पाते.
ये हमारे लिए शर्म की बात है. हम इससे बाहर निकलते हैं, हम कोशिश करते हैं कि अपनी मासूमियत को खोने की बात को भूल जाएं और आगे बढ़ जाते हैं. लेकिन फिर, कब्रिस्तान कोई अदृश्य स्थान तो होते नहीं. वो हमारी याद में हमेशा जिंदा रहते हैं. हम हमेशा अपनी यादों में उस जगह बार बार जाते हैं. रेप की कई यादों की मैं कैदी हूं. और जब रात को मैं दरवाजे बंद करती हूं तो मुझे इस हमले का डर सताता है. अपने इस डर से मैंने अक्सर सवाल पूछे हैं. मैं 38 साल की हूं और मैं अपने शरीर के बोझ, एक महिला के रुप में मेरी पहचान और पुरुषों की क्रूरता, धर्म की क्रूरता, उनकी शक्ति से डरती हूं.
मैं एक बच्ची थी, जब एक बुढ़े और तथाकथित सम्मानीय आदमी ने मुझे अपने बाथरूम में खींचा था. मुझे उस बाथरूम की नीली टाइल्स याद हैं. उस दोपहर को याद करते हुए भी मैं थरथराती हूं. हम उसके घर के बाहर खेलते थे. और हर कोई उस बूढ़े आदमी का सम्मान करता था. वो एक प्रोफेसर था. उनकी पत्नी का निधन हो गया था. मैं तब मासूम थी. लेकिन जब उसने मुझे बाथरुम खींचा और छेड़छाड़ करने की कोशिश करने लगा तो मैं भाग...
गुस्सा शांत होने के बाद मुझे एक अजीब ही किस्म की उदासी ने घेर लिया. मेरे नजर के सामने से उस आठ साल की बच्ची का चेहरा हट ही नहीं रहा है. रेप और हत्या की मैंने कई खबरें पढ़ी हैं, लेकिन कभी भी कोई भी खबर या घटना समझ नहीं आती कि क्यों हुई?
पीले फूलों वाली उसकी बैंगनी फ्रॉक, बड़ी बड़ी आंखें और मासूम चेहरा. वो दिन रात मुझे घूरती हैं. भेदती हैं. मैं अपने बचपन की फोटो देखती हूं और उसे देखती हूं. इस तरह की क्रूरता के आगे हम कितने असहाय हो जाते हैं, कितने निरीह हैं हम कि अपने खिलाफ हुए शोषण और सुनी गई गालियों के बारे में बात भी नहीं कर पाते.
ये हमारे लिए शर्म की बात है. हम इससे बाहर निकलते हैं, हम कोशिश करते हैं कि अपनी मासूमियत को खोने की बात को भूल जाएं और आगे बढ़ जाते हैं. लेकिन फिर, कब्रिस्तान कोई अदृश्य स्थान तो होते नहीं. वो हमारी याद में हमेशा जिंदा रहते हैं. हम हमेशा अपनी यादों में उस जगह बार बार जाते हैं. रेप की कई यादों की मैं कैदी हूं. और जब रात को मैं दरवाजे बंद करती हूं तो मुझे इस हमले का डर सताता है. अपने इस डर से मैंने अक्सर सवाल पूछे हैं. मैं 38 साल की हूं और मैं अपने शरीर के बोझ, एक महिला के रुप में मेरी पहचान और पुरुषों की क्रूरता, धर्म की क्रूरता, उनकी शक्ति से डरती हूं.
मैं एक बच्ची थी, जब एक बुढ़े और तथाकथित सम्मानीय आदमी ने मुझे अपने बाथरूम में खींचा था. मुझे उस बाथरूम की नीली टाइल्स याद हैं. उस दोपहर को याद करते हुए भी मैं थरथराती हूं. हम उसके घर के बाहर खेलते थे. और हर कोई उस बूढ़े आदमी का सम्मान करता था. वो एक प्रोफेसर था. उनकी पत्नी का निधन हो गया था. मैं तब मासूम थी. लेकिन जब उसने मुझे बाथरुम खींचा और छेड़छाड़ करने की कोशिश करने लगा तो मैं भाग गई. कुछ तो गलत था. मेरे साथ क्या हुआ ये समझने के लिए मैं बहुत छोटी थी. मुझे कुछ समझ नहीं आया था कि मेरे साथ हुआ क्या सिवाय इसके कि बस मुझे लग रहा था कि मुझे गंदा लग रहा था. मैंने घर के बाहर खेलना बंद कर दिया. मैं उससे बचने लगी. लेकिन मैंने इसके बारे में किसी को भी नहीं बताया. कई साल बीत गए लेकिन वो नीली टाइल्स मेरे जहन से जाती नहीं हैं. और अब मैं नीली टाइल्स से नफरत करती हूं.
और ये फिर से हुआ. भीड़ में, एक सर्कस के बाहर. एक आदमी ने मुझे ज़बर्दस्ती छूआ. मैं एक बच्ची थी. लेकिन इन सभी की वजह से मेरी मासूमियत खोती चली गई. ऐसा कई बार हुआ. एक बार सीढ़ियों पर अंधेरे में एक आदमी मेरा इंतजार कर रहा था. हम लुक्का छिपी खेल रहे थे. और जैसे ही मैंने सीढियां चढ़ीं, उसने मुझे पकड़ लिया और मुझे महसूस करने लगा. मुझे ये तक नहीं पता कि तब मेरे स्तन थे या नहीं.
मुझे सीढ़ी का वो टूटा हुआ फर्श याद है. मुझे वो अंधेरा याद है. मुझे लगता है कि मैं अभी भी इससे संघर्ष कर रही हूं. लड़ रही हूं. बात ये है कि जब भी किसी बच्ची के साथ हिंसा, शोषण की खबर पढ़ती हूं तो मेरी सांस थम जाती है. मैं सांस नहीं ले पाती. मुझे घुटन होने लगती है. जब भी मैं ऐसा कुछ पढ़ती हूं वो सब बातें मुझे याद आ जाती हैं.
मैं अजीब समय में बड़ी हुई. हम लड़कियां थीं और शाम 4 बजे के बाद लड़कियों को बाहर रहने की अनुमति नहीं थी. रेप के बारे में मैंने सबसे पहले 1999 में जाना जब पटना में एक कार में एक लड़की का अर्ध नग्न शरीर मिला था. वो स्कूल और कॉलेज में मेरी सीनियर थी. मुझे उसका चेहरा याद है. मामला आज तक अनसुलझा है.
बाईस साल कोई मरने की उम्र नहीं होती. और इसलिए तो बिल्कुल भी नहीं क्योंकि आप एक औरत हैं. उन्होंने उसके शरीर को फेंक दिया और आराम से निकल गए. आज तक दोषियों को सजा नहीं मिली. हम सिर्फ गुस्सा, हताशा और निराशा में रहे. कुछ कर नहीं पाए.
वो रेप राजनीतिक सत्ता के ताकत पर मुहर थी. विरोध प्रदर्शन हुए लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला.
रेप शक्तिशाली लोगों का विशेषाधिकार है. कठुआ मामले में भी पितृसत्ता, पात्रता और धर्म की ही घुसपैठ है. न्याय अगर होता है तो भी सालों लग जाएंगे. फाइलों पर धूल चढ़ जाएगी. इस बीच रेप की कई और घटनाएं हो जाएंगी. हम कई सवालों के साथ अनंत काल बैठे रहेंगे लेकिन हमें कोई जवाब नहीं मिलेगा. रेप कई चीजों के बारे में है- वर्ग, जाति आदि.
रेप और दुर्व्यवहार के मामले में ये ऐतिहासिक चुप्पी नई नहीं है. हमने विरोध प्रदर्शन देखें हैं, लोगों के गुस्से को देखा है, तर्क-कुतर्क को देखा है. हम उस महिला, बच्ची, पीड़िता को दोषी ठहराएंगे. हमारे मामले में न्याय फेल हो गया है. इस समाज और विश्व ने हमें निराश किया है.
और इन सब के बावजूद, हम वो अदृश्य महिलाएं हैं जो पुरुषों की नजरों से छुप रही हैं. मेरा पीछा किया जाता है लेकिन फिर भी मैं कोर्ट में सुनवाई के लिए इंतजार करती हूं. वकील मेरी नैतिकता पर सवाल उठते हैं और मुझसे पूछते हैं कि मैं अपने पीछा करने वाले से फेसबुक पर क्यों जुड़ी थी? ये दर्दनाक है. और मैं थककर बैठ जाती हूं. निराश, हताश, बिना किसी आशा के. मैं अदालत में अपने स्टॉकर यानी पीछा करने वाले को कोर्ट में देखती हूं और उससे खुद को छुपाने की कोशिश करती हूं. मैं डरी हुई हूं. मैं ये नहीं बता सकती कि आखिर मुझे डर किस बात से है. लेकिन कई दिनों तक मैं शांति से नहीं रह पाती. मुझे रेप का डर लगता है. मुझे लगता है कि मेरे साथ कोई अनहोनी हो जाएगी.
मैंने ये तय नहीं किया था कि मुझे लड़का पैदा होना है या फिर लड़की. अपने शरीर के भार और उन कड़वी यादों को मैंने नहीं चुना. अब ये वजन मुझ से सहन नहीं होता. मैं अब सिर्फ उस दर्द के बारे में लिख सकती हूं जो ऐसी खबरें पढ़कर मुझे महसूस होती है.
मैं सो नहीं पाती क्योंकि मुझे लगता है कि मुझे निडर और स्वतंत्र बनाने का मेरी मां के सपने पूरा नहीं हो पाया. मैं इस डर की कैदी हूं और मैं कुछ भी भूल नहीं पाई हूं. मैंने मजबूत बनने की बहुत कोशिश की. लेकिन मैं अभी भी टूट जाती हूं. मुझे अभी भी इस दुनिया से डर लगता है.
मैं अकेली रहती हूं. और रातों में मैं रोज प्रार्थना करती हूं कि कभी भी मेरा रेप न हो. लेकिन फिर भी जब पुरुष सेक्सि्ट जोक सुनाते हैं तो भी मैं खामोश रहती हूं. मैं चुप इसलिए नहीं रहती क्योंकि मैं डरपोक हूं, बल्कि इसलिए चुप रहती हूं क्योंकि न्याय पर से मेरा भरोसा उठ गया है.
अपने चारों ओर फैली इस चुप्पी से मुझे नफरत है. और मुझे पता है कि कम से कम ये लिखकर मैंने अपने भीतर के डर के बारे में बता बात की है.
आखिर आठ साल की बच्ची ने ऐसा क्या किया था कि उसे ये सब भुगतना पड़ा? इस रेप के बारे में सब भूल जाएंगे. ये हम सभी को पता है.
आप कह रहे हैं कि हम इस देश को दूसरे देशों से ज्यादा सुरक्षित बना रहे हैं.
आप मुझे आंकड़े दिखाते हैं. बताते हैं.
आप कहते हैं कि हमने आतंकवादियों को मार गिराया.
आप कहते हैं कि हमारे देश की सीमाएं सुरक्षित हैं.
आप बहुत सी बातें कहते हैं.
और आप विकास, रोजगार, आदि की भी बात करते हैं. उनका हवाला देते हैं.
आप हत्याओं को अनदेखा कर देते हैं. आप कहते हैं कि हमें मुसलमानों, दलितों, पाकिस्तान, चीन, आदि से खतरा है. लेकिन आप खुद का उल्लेख करना भूल जाते हैं. हम सत्ता से खतरे में हैं.
और अब एक छोटी लड़की मर गई है, लेकिन आप कुछ नहीं कह रहे हैं.
लेकिन मन ही मन आपने बलात्कार और हत्या को एक चेतावनी के रूप में सही ठहराया है. इसे दूसरे के लिए एक सबक बताया है ताकि वो अपनी "औकात" में रहें. क्योंकि राष्ट्रवाद के लिए रेप और हत्या करना सही है.
आप नंबर बताते जाते हैं.
और हम कानून, न्याय, सरकार, देश, समाज से अपना भरोसा छोड़ते जाते हैं. और अगर इसे निराशा नहीं कहते, तो फिर मुझे नहीं पता कि मैं अब शब्दकोश पर भरोसा कर सकती हूं या नहीं.
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