कट्टरपंथियों के साथ एक समस्या है. वे किसी बात को समझते बाद में हैं, विरोध पहले शुरू कर देते हैं. हंगामा भी ऐसा जैसे कहीं कयामत आ गई हो. ईरान में सरकारी खर्चे पर बनी फिल्म 'मोहम्मद-मैसेंजर ऑफ गॉड' रिलीज हो गई है जिसे लेकर अरब देशों में बवाल मच गया है.
ईरान मूल रूप से शिया बहुल देश है. वहां के सुन्नी समुदाय के कई मौलाना अब फिल्म पर रोक लगाने की मांग कर रहे हैं. बाकी अरब देश सुन्नी बहुल क्षेत्र माने जाते हैं. मतलब शिया-सुन्नी का एंगल भी खोज लिया गया है.
फिल्म पर विवाद कितना जायज?
इस फिल्म का डायरेक्शन ऑस्कर पुरस्कार जीत चुके माजिद माजिदी ने किया है. फिल्म तीन पार्ट में है. पहला पार्ट 117 मिनट का है जिसमें पैगंबर साहब के बचपन की कहानी दिखाई गई है. पूरी फिल्म में पैगंबर का रोल करने वाले का चेहरा नहीं दिखाया गया है. उनके किरदार को हमेशा पीछे से या फिर परछाई के जरिए दर्शाया गया है. इस्लाम में पैगंबर की आकृति दिखाने पर रोक है. फिल्म में इसका ख्याल भी रखा गया है. माजिद ने एक इंटरव्यू में कहा है कि पश्चिमी देशों में इस्लाम को लेकर भय के बढ़ते वातावरण को देखते हुए इस फिल्म को बनाने का फैसला किया. उनकी कोशिश है कि फिल्म के जरिए इस्लाम की उदार छवि दुनिया में जाए.
यह ईरान की अब तक की सबसे महंगी फिल्म है जिसे बनाने में 4 करोड़ अमेरिकी डॉलर की लागत आई है. रिलीज होने के बाद ईरान में बॉक्स ऑफिस पर फिल्म की अच्छी कमाई की बात भी कही जा रही है.
फिल्मों पर विवाद नया नहीं
पैगंबर की जिंदगी पर तमाम विरोधों के बीच पहले भी फिल्में बनी हैं. 1976 में सीरियाई-अमेरिकी फिल्म निर्माता मुस्तफा अल अक्कड भी 'द मैसेज-स्टोरी ऑफ इस्लाम' फिल्म ले आए थे. ऐसा नहीं है कि बड़े पर्दे पर धार्मिक विषयों को दिखाने या नहीं दिखाने के मसले पर केवल मुस्लिम समाज से ही विरोध आए हैं. ईसाई से लेकर हिंदू समाज में भी ऐसे कट्टर तत्व हैं जो विरोध का झंडा बुलंद किए रहते हैं. फिल्म 'हरे राम हरे कृष्ण' से लेकर...
कट्टरपंथियों के साथ एक समस्या है. वे किसी बात को समझते बाद में हैं, विरोध पहले शुरू कर देते हैं. हंगामा भी ऐसा जैसे कहीं कयामत आ गई हो. ईरान में सरकारी खर्चे पर बनी फिल्म 'मोहम्मद-मैसेंजर ऑफ गॉड' रिलीज हो गई है जिसे लेकर अरब देशों में बवाल मच गया है.
ईरान मूल रूप से शिया बहुल देश है. वहां के सुन्नी समुदाय के कई मौलाना अब फिल्म पर रोक लगाने की मांग कर रहे हैं. बाकी अरब देश सुन्नी बहुल क्षेत्र माने जाते हैं. मतलब शिया-सुन्नी का एंगल भी खोज लिया गया है.
फिल्म पर विवाद कितना जायज?
इस फिल्म का डायरेक्शन ऑस्कर पुरस्कार जीत चुके माजिद माजिदी ने किया है. फिल्म तीन पार्ट में है. पहला पार्ट 117 मिनट का है जिसमें पैगंबर साहब के बचपन की कहानी दिखाई गई है. पूरी फिल्म में पैगंबर का रोल करने वाले का चेहरा नहीं दिखाया गया है. उनके किरदार को हमेशा पीछे से या फिर परछाई के जरिए दर्शाया गया है. इस्लाम में पैगंबर की आकृति दिखाने पर रोक है. फिल्म में इसका ख्याल भी रखा गया है. माजिद ने एक इंटरव्यू में कहा है कि पश्चिमी देशों में इस्लाम को लेकर भय के बढ़ते वातावरण को देखते हुए इस फिल्म को बनाने का फैसला किया. उनकी कोशिश है कि फिल्म के जरिए इस्लाम की उदार छवि दुनिया में जाए.
यह ईरान की अब तक की सबसे महंगी फिल्म है जिसे बनाने में 4 करोड़ अमेरिकी डॉलर की लागत आई है. रिलीज होने के बाद ईरान में बॉक्स ऑफिस पर फिल्म की अच्छी कमाई की बात भी कही जा रही है.
फिल्मों पर विवाद नया नहीं
पैगंबर की जिंदगी पर तमाम विरोधों के बीच पहले भी फिल्में बनी हैं. 1976 में सीरियाई-अमेरिकी फिल्म निर्माता मुस्तफा अल अक्कड भी 'द मैसेज-स्टोरी ऑफ इस्लाम' फिल्म ले आए थे. ऐसा नहीं है कि बड़े पर्दे पर धार्मिक विषयों को दिखाने या नहीं दिखाने के मसले पर केवल मुस्लिम समाज से ही विरोध आए हैं. ईसाई से लेकर हिंदू समाज में भी ऐसे कट्टर तत्व हैं जो विरोध का झंडा बुलंद किए रहते हैं. फिल्म 'हरे राम हरे कृष्ण' से लेकर 'पीके' तक के कई उदाहरण मिल जाएंगे. और फिल्मों की ही बात क्यों करें. साहित्य और नाटकों पर भी ऐसे हंगामे होते रहे हैं. लेकिन हम क्या करें अपनी इन भावनाओं का.......जो दूसरों की देखा-देखी अक्सर चीजों को बिना पढ़े या समझे आहत हो जाती हैं.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.