1985 का साल. 70 साल की थीं शाह बानो, जब उनके पति ने तलाक दे दिया. कारण- पति ने एक से ज्यादा शादियां की थीं. सौतेले बच्चों में जायदाद को लेकर झगड़ा हुआ, पति ने झंझट खत्म करने के लिए तीन बार तलाक-तलाक बोल शाह बानो को अलग हो जाने का फरमान सुना दिया. शाह बानो ने जब गुजारे के लिए मुआवजे की बात कही तो पति का तर्क था कि इस्लामिक कानून के हिसाब से वो इसके लिए बाध्य नहीं है. शरिया के हिसाब से वो केवल तलाक के तीन महीने बाद तक ही मुआवजा देगा.
करीब तीन दशक पहले जब सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई हुई तो अदालत ने पर्सनल लॉ पर सवाल खड़े कर दिए. खूब विवाद मचा. आज के दौर में कुछ ऐसा ही हल्ला शायरा बानो मामले के बाद मचा है. शादी के 15 साल बाद शायरा को पिछले साल उनके पति ने तलाक दे दिया था. शायरा ने पर्सनल लॉ के नियमों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है. बहरहाल, शाह बानो के समय भी प्रचंड बहुमत वाली सरकार थी...आज भी वैसी ही बहुमत वाली सरकार है. फर्क चेहरों और पार्टी का है. तब राजीव गांधी थे और अब नरेंद्र मोदी.
ये फर्क मामूली नहीं है. वो इसलिए कि दोनों ही पार्टियों की इमेज एक-दूसरे से बिल्कुल उलट है. ऐसे में क्या ये कहा जा सकता है कि तीस साल पहले जिस तरह राजीव गांधी ने वोट की चिंता करते हुए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद के जरिए पलटा था, मौजूदा सरकार उससे कोई अलग स्टैंड रखेगी? क्योंकि ये तो साफ हो गया है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड का मुद्दा कानूनी नहीं राजनीतिक ज्यादा है. और अब ऐसा लगने लगा है कि जो पार्टी यूनिफॉर्म सिविल कोड पर मुखर रही है और अब सत्ता में है, वो भी इसे राजनीति के जरिए सुलझाने की बजाए इसे राजनीतिक मसाला ही बनाने पर तुली है.
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यूनिफॉर्म सिविल कोड पर अगर बहस हो रही है या इस मसले पर कुछ नया...
1985 का साल. 70 साल की थीं शाह बानो, जब उनके पति ने तलाक दे दिया. कारण- पति ने एक से ज्यादा शादियां की थीं. सौतेले बच्चों में जायदाद को लेकर झगड़ा हुआ, पति ने झंझट खत्म करने के लिए तीन बार तलाक-तलाक बोल शाह बानो को अलग हो जाने का फरमान सुना दिया. शाह बानो ने जब गुजारे के लिए मुआवजे की बात कही तो पति का तर्क था कि इस्लामिक कानून के हिसाब से वो इसके लिए बाध्य नहीं है. शरिया के हिसाब से वो केवल तलाक के तीन महीने बाद तक ही मुआवजा देगा.
करीब तीन दशक पहले जब सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई हुई तो अदालत ने पर्सनल लॉ पर सवाल खड़े कर दिए. खूब विवाद मचा. आज के दौर में कुछ ऐसा ही हल्ला शायरा बानो मामले के बाद मचा है. शादी के 15 साल बाद शायरा को पिछले साल उनके पति ने तलाक दे दिया था. शायरा ने पर्सनल लॉ के नियमों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है. बहरहाल, शाह बानो के समय भी प्रचंड बहुमत वाली सरकार थी...आज भी वैसी ही बहुमत वाली सरकार है. फर्क चेहरों और पार्टी का है. तब राजीव गांधी थे और अब नरेंद्र मोदी.
ये फर्क मामूली नहीं है. वो इसलिए कि दोनों ही पार्टियों की इमेज एक-दूसरे से बिल्कुल उलट है. ऐसे में क्या ये कहा जा सकता है कि तीस साल पहले जिस तरह राजीव गांधी ने वोट की चिंता करते हुए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद के जरिए पलटा था, मौजूदा सरकार उससे कोई अलग स्टैंड रखेगी? क्योंकि ये तो साफ हो गया है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड का मुद्दा कानूनी नहीं राजनीतिक ज्यादा है. और अब ऐसा लगने लगा है कि जो पार्टी यूनिफॉर्म सिविल कोड पर मुखर रही है और अब सत्ता में है, वो भी इसे राजनीति के जरिए सुलझाने की बजाए इसे राजनीतिक मसाला ही बनाने पर तुली है.
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यूनिफॉर्म सिविल कोड पर अगर बहस हो रही है या इस मसले पर कुछ नया होता है तो निश्चित तौर पर संविधान बनने के बाद भारत में ये सबसे बड़ा बदलाव होगा. लेकिन क्या ये इतना आसान है? हाल ही में लॉ कमिशन ऑफ इंडिया ने आम लोगों से यूनिफॉर्म सिविल कोड (समान नागरिक संहिता) पर 16 सवाल किए हैं.
वैसे तो, लोकतंत्र में प्रावधानों पर लोगों से सुझाव मांगना एक आम प्रक्रिया है. फिर भी ऐसा लगता नहीं कि सरकार वाकई यूनिफॉर्म सिविल कोड पर गंभीर है. दरअसल, समान नागरिक संहिता ऐसा मुद्दा तो है नहीं कि इतनी आसानी से इस पर कोई कानून बन सके. इसके लिए सरकार को तमाम पार्टियों और सिविल सोसाइटी को विश्वास में लेना होगा. एक गंभीर चर्चा की शुरुआत करनी होगी और ऐसा होता दिख नहीं रहा.
यूनिफॉर्म सिविल कोड पर क्या वाकई गंभीर है सरकार? |
न कोई पार्टी इस पर खुलकर बोल रही है और न ही सरकार इसकी कोई पहल ही करती दिख रही है. क्या सवालों के जरिए गेंद को इधर से उधर उछालने की कोशिश भर है? दूसरे शब्दों में हवाबाजी, शगूफा जो चाहे कहिए. लेकिन यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर मौजूदा सरकार गंभीर तो कतई नहीं है. ये सरकार के नुमाइंदो और मंत्रियों के बयानों से भी स्पष्ट होता है.
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वैंकेया नायडू और अरुण जेटली ये समझाने में जुटे हैं कि तीन तलाक और समान नागरिक संहिता अलग-अलग मुद्दे हैं. ये व्याख्या दूसरे लोग दें तो ठीक भी है, लेकिन जब सरकार की ओर से ऐसे बयान आए तो कन्फ्यूजन ही पैदा होता है. क्या ये बात सही नहीं है कि जब तीन तलाक पर बहस होगी तो यूनिफॉर्म सिविल कोड पर भी उसकी छाया दिखेगी. उस पर भी बात होगी.
जब बीजेपी शुरू से यूनिफॉर्म सिविल कोड पर मुखर रही है, तो सरकार में आने के बाद वो फर्क समझाने में क्यों लगी है? ऑल इंडिया मुस्लम पर्सनल लॉ बोर्ड और कई दूसरे रूढ़िवादी मुस्लिम इस पर कड़ा ऐतराज जताते रहे हैं, लेकिन सरकार तो कम से कम अपने स्टैंड पर ज्यादा गंभीरता दिखाए. या फिर नरेंद्र मोदी की सरकार को भी अरविंद केजरीवाल के 'जनता से पूछेंगे' वाला आइडिया ज्यादा पसंद आ गया है, जिसकी जवाबदेही बाद में जनता भी मांगने नहीं आती.
ये सही है कि भारत जैसे देश में, जहां सैकड़ों पूजा पद्धतियां है, रीति-रिवाज है, जन्म..शादी या मृत्यु को लेकर कई मान्यताएं है, यूनिफॉर्म सिविल कोड मुश्किल है. साथ ही..कश्मीर से लेकर नागालैंज और मिजोरम जैसे राज्यों के लिए अलग-अलग प्रावधान! लेकिन फिर भी ऐसी व्यवस्था तो की ही जा सकती है कि रूढ़िवादी सोच को आईना दिखाया जाए, जेंडर और धर्म पर भेदभाव न हों. संविधान से मिले अधिकार सबके लिए हो और सबसे जरूरी...कि न्याय व्यवस्था से ऊपर या उसके समकालिन जो व्यवस्थाएं खड़ी हो गई हैं, उन पर लगाम कसी जाए.
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