1985 में जीतेंद्र और जयाप्रदा की एक फिल्म आई थी 'संजोग', जिसमें जयाप्रदा अपने बच्चे को खो देतीं हैं और फिर कपड़े के एक गुड्डे को लेकर वो पूरी जिंदगी उसे ही अपना मुन्ना मानतीं हैं. उनकी मानसिक हालत ऐसी ही थी जिसकी वजह से वो गुड्डे को अपने बच्चे की ही तरह रखती थीं और एक गीत गाती थीं, शायद आपको भी याद हो वो गाना 'जू जू जू जू, यशोदा का नंदलाला'.
आज एक खबर पढ़कर मुझे इस फिल्म की याद आ गई. खबर थी कि असली लगने वाली नवजात बच्चों की डॉल्स उन महिलाओं की मदद कर रही हैं जो मां नहीं बन सकतीं. क्योंकि ये डॉल्स न सिर्फ बिलकुल असली बच्चों की तरह दिखती हैं बल्कि छूने में भी इंसानों जैसी ही महसूस होती हैं. इन हाइपररियलिस्टिक डॉल्स को 'रीबॉर्न डॉल्स' कहा जाता है.
जो महिलाएं मां नहीं बन सकतीं या जिन माओं ने किसी कारण से अपने बच्चे खो दिए हैं, कहा जा रहा है कि ये डॉल्स उनके लिए किसी दवा से कम नहीं हैं. इसलिए वो इन सिलिकॉन डॉल्स पर काफी पैसा खर्च कर रही हैं. वो अपने हिसाब से डॉल्स का लिंग, त्वचा और आंखों का रंग पसंद कर सकती हैं.
क्यों इन डॉल्स का रुख कर रहे हैं लोग
ये डॉल्स इतनी एडवांस हैं कि अगर इन्हें बॉटल से फीड कराया जाए तो ये बच्चों की तरह सू-सू भी करती हैं. ये डॉल्स अंबलिकल कॉर्ड के साथ ही आती हैं जिन्हें हटाया भी जा सकता है.
देखिए...
1985 में जीतेंद्र और जयाप्रदा की एक फिल्म आई थी 'संजोग', जिसमें जयाप्रदा अपने बच्चे को खो देतीं हैं और फिर कपड़े के एक गुड्डे को लेकर वो पूरी जिंदगी उसे ही अपना मुन्ना मानतीं हैं. उनकी मानसिक हालत ऐसी ही थी जिसकी वजह से वो गुड्डे को अपने बच्चे की ही तरह रखती थीं और एक गीत गाती थीं, शायद आपको भी याद हो वो गाना 'जू जू जू जू, यशोदा का नंदलाला'.
आज एक खबर पढ़कर मुझे इस फिल्म की याद आ गई. खबर थी कि असली लगने वाली नवजात बच्चों की डॉल्स उन महिलाओं की मदद कर रही हैं जो मां नहीं बन सकतीं. क्योंकि ये डॉल्स न सिर्फ बिलकुल असली बच्चों की तरह दिखती हैं बल्कि छूने में भी इंसानों जैसी ही महसूस होती हैं. इन हाइपररियलिस्टिक डॉल्स को 'रीबॉर्न डॉल्स' कहा जाता है.
जो महिलाएं मां नहीं बन सकतीं या जिन माओं ने किसी कारण से अपने बच्चे खो दिए हैं, कहा जा रहा है कि ये डॉल्स उनके लिए किसी दवा से कम नहीं हैं. इसलिए वो इन सिलिकॉन डॉल्स पर काफी पैसा खर्च कर रही हैं. वो अपने हिसाब से डॉल्स का लिंग, त्वचा और आंखों का रंग पसंद कर सकती हैं.
क्यों इन डॉल्स का रुख कर रहे हैं लोग
ये डॉल्स इतनी एडवांस हैं कि अगर इन्हें बॉटल से फीड कराया जाए तो ये बच्चों की तरह सू-सू भी करती हैं. ये डॉल्स अंबलिकल कॉर्ड के साथ ही आती हैं जिन्हें हटाया भी जा सकता है.
देखिए वीडियो-
एक सामान्य डॉल की कीमत करीब 408 ब्रिटिश पाउंड यानी करीब 33 हजार रुपए है जबकि कस्टमाइज़ डॉल की कीमत 1315 पाउंड यानी करीब 10 से 11 लाख रुपए तक है. ज्यादातर लोग ऐसी डॉलेस लेना पसंद कर रहे हैं जिनकी उम्र 0-3 साल के बच्चे जितनी हो.
एक बार डॉल घर लाने के बाद लोग इन्हें अपना असली बच्चा ही मान लेते हैं. उनके कपड़े बदलना, नहलाना-धुलाना, खाना खिलाना, सुलाना, प्यार करना बिलकुल उसी तरह ख्याल रखना जैसे वो असली ही हों.
क्या सच में लोगों के दुख दूर कर रही हैं ये डॉल्स-
22 साल की उम्र में ही जेन को मेनोपॉज़ हो गया, और वो कभी मां नहीं बन पाईं, उन्होंने ऐसी तीन गुड़ियां खरीदीं और अब वो खुद को मां कहती हैं. ये डॉल्स ही अब उनके बच्चे हैं जिनके साथ वो खुशी खुशी जी रही हैं.
एक महिला के पास तो 10 ऐसी ही डॉल्स का कलेक्शन है.
वहीं एक पिता भी हैं जो अपने बेटे को खो चुके हैं और अब एक डॉल के साथ जीवन बिता रहे हैं.
डॉल्स ही क्यों-
लोग खुद से इन डॉल्स को खरीद रहे हैं और तो और थेरेपिस्ट भी दुखी पेरेंट्स को ऐसी डॉल्स लाने की सलाह दे रहे हैं. मनोवैज्ञानिक डेविड जे डायमंड का कहना है कि 'बच्चे के जन्म से पहले ही उससे जुड़ाव हो जाता है. और एक डॉल के साथ एक व्यक्ति वही सारी चीजें महसूस कर सकता है जो उसने पहले महसूस की थीं'. वहीं मनोवैज्ञानी ऐलीन पी जोल्डब्रोड का कहना है कि 'दुखी माता-पिता के लिए ऐसी डॉल्स अपने साथ रखना फायदेमंद है. इससे उन्हें डिप्रेशन से निकने में मदद मिलती है'
पर क्या ये खुद को धोखा देना नहीं ?
हो सकता है कि कुछ देर के लिए इन डॉल्स के साथ समय बिताने के बाद एक वयस्क अपना दुख थोड़ी देर के लिए भूल जाता हो. पर क्या ये संभव नहीं कि संजोग फिल्म की जयप्रदा की तरह वो सारी उम्र उसी बहकावे में जीता रहे. और उस झूठे ख्याल से कभी वापस ही न लौट सके. खुद को दुख या डिप्रेशन से निकालने के लिए ये डॉल्स माध्यम तो हो सकती हैं लेकिन इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि यही डॉल्स दुख में जी रहे लोगों की मानसिक स्थिति को नियंत्रित भी कर रही होती हैं.
क्या इससे बेहतर ये नहीं कि लोग लाखों रुपए इन गुड़ियों पर खर्च करने के बजाए किसी बच्चे को गोद लें और उनकी परवरिश करें. गुड़ियों के संसार से बाहर आएं और हकीकत में जिएं?
बचपन में गुड़ियों से खेलने वाला इंसान पूरी तरह परिपक्व होकर भी गुड़ियों से खेल रहा है. यानी वापस बचपन जी रहा है. ये तो महज बच्चों की डॉल्स हैं, जिनपर माएं अपनी ममता लुटा रही हैं, पर लोग तो शारीरिक जरूरतें पूरी करने के लिए भी सिलिकॉन डॉल्स पर ही निर्भर हो रहे हैं.
कहना गलत नहीं होगा कि ये डॉल्स बच्चों के लिए नहीं, बल्कि बड़ों को बच्चा बनाने के लिए बनाई जा रही हैं. जिसके दूरगामी परिणाम जाहिर तौर पर इतने सुखद नहीं होंगे जितने सुखद ये आज दिखाई दे रहे हैं.
ये भी पढ़ें-
जिंदगी में आई 'गुडि़या' तो देखिए कैसे कैसे रिश्ते बने...
हैरान कर रही है हाथ पकड़कर चलने वाली डॉल
सेक्स डॉल्स को रिपेयर करने वाले शख्स की सुनेंगे तो इन गुड़ियों पर तरस आएगा
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.