कला से लेकर संगीत और, भाषाओं से लेकर साहित्य तक हमारा देश अपने आप में कई विविधताओं को समेटे है. यूं तो यहां ऐसा बहुत कुछ है जिसकी कल्पना मात्र से ही कोई भी व्यक्ति गर्व से भर जाए. मगर जो आज के हालात हैं उनको देखकर बस यही कहा जा सकता है कि हम भले ही दूसरे की चीजों, उनके भोजन, उनकी संस्कृति पर गर्व कर लें मगर जब बात अपनी संस्कृति, अपनी चीजों, अपनी बातों पर गर्व करने की होती है तो शर्म के चलते या ये सोचकर की लोग क्या कहेंगे हम उससे दूरी बना लेते हैं.
प्रायः हम अपने बड़े बुज़ुर्गों से यही सुनते हैं कि 'तुम युवा, अरे तुम एक दिग्भ्रमित कौम हो जिसे न अपने इतिहास में रूचि है और न ही जिसे अपने वर्तमान से मतलब है.' इस पर विचार करिए और इसे गहनता से समझिये तो कहीं न कहीं ये बात एक हद तक सच लगेगी.
हम इस देश के वो युवा हैं जिसने पूर्व में सचिन-कांबली की जुगलबंदी तो वर्तमान में कोहली-धोनी को खेलते देखा है, जिसका बचपन शक्तिमान, कैप्टन व्योम, जंगल बुक, चित्रहार, रंगोली और चंद्रकांता को देखते हुए बीता है. जिन्होंने बिल्लू-पिंकी, नागराज, डोगा, चाचा चौधरी और साबू की कॉमिक्सों से मिलने वाले सुख को महसूस किया है.
हां हम वो युवा हैं जिन्होंने रैंगलर की जींसों से लेकर लिवाइस की शर्ट नाइक,प्यूमा या रिबॉक के जूते और रे-बैन के एवियेटर चश्मों के बीच वाकई इतना कुछ भुला दिया है जिसको याद करने में सदियां लग जाएंगी. बहरहाल, आज का दिन हिन्दी के लिए बेहद खास है. हां वही हिंदी जिसे आज हम अपने जीवन से लगभग निकाल ही चुके हैं. वही हिन्दी जिसके साहित्य और उसके स्तम्भों की कल्पना मात्र ही हमें बोर करने के लिए काफी है.
आज का दिन क्यों खास है इसके लिए हमें 137 साल पीछे जाना होगा....
कला से लेकर संगीत और, भाषाओं से लेकर साहित्य तक हमारा देश अपने आप में कई विविधताओं को समेटे है. यूं तो यहां ऐसा बहुत कुछ है जिसकी कल्पना मात्र से ही कोई भी व्यक्ति गर्व से भर जाए. मगर जो आज के हालात हैं उनको देखकर बस यही कहा जा सकता है कि हम भले ही दूसरे की चीजों, उनके भोजन, उनकी संस्कृति पर गर्व कर लें मगर जब बात अपनी संस्कृति, अपनी चीजों, अपनी बातों पर गर्व करने की होती है तो शर्म के चलते या ये सोचकर की लोग क्या कहेंगे हम उससे दूरी बना लेते हैं.
प्रायः हम अपने बड़े बुज़ुर्गों से यही सुनते हैं कि 'तुम युवा, अरे तुम एक दिग्भ्रमित कौम हो जिसे न अपने इतिहास में रूचि है और न ही जिसे अपने वर्तमान से मतलब है.' इस पर विचार करिए और इसे गहनता से समझिये तो कहीं न कहीं ये बात एक हद तक सच लगेगी.
हम इस देश के वो युवा हैं जिसने पूर्व में सचिन-कांबली की जुगलबंदी तो वर्तमान में कोहली-धोनी को खेलते देखा है, जिसका बचपन शक्तिमान, कैप्टन व्योम, जंगल बुक, चित्रहार, रंगोली और चंद्रकांता को देखते हुए बीता है. जिन्होंने बिल्लू-पिंकी, नागराज, डोगा, चाचा चौधरी और साबू की कॉमिक्सों से मिलने वाले सुख को महसूस किया है.
हां हम वो युवा हैं जिन्होंने रैंगलर की जींसों से लेकर लिवाइस की शर्ट नाइक,प्यूमा या रिबॉक के जूते और रे-बैन के एवियेटर चश्मों के बीच वाकई इतना कुछ भुला दिया है जिसको याद करने में सदियां लग जाएंगी. बहरहाल, आज का दिन हिन्दी के लिए बेहद खास है. हां वही हिंदी जिसे आज हम अपने जीवन से लगभग निकाल ही चुके हैं. वही हिन्दी जिसके साहित्य और उसके स्तम्भों की कल्पना मात्र ही हमें बोर करने के लिए काफी है.
आज का दिन क्यों खास है इसके लिए हमें 137 साल पीछे जाना होगा. जी हां 31 जुलाई 1880 का दिन यूँ तो एक साधारण दिन था मगर इस दिन एक ऐसी घटना घटी जिसने इतिहास रच दिया. तारीख इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गयी. हममें से कम ही लोग जानते होंगे कि इसी दिन हिंदी उपन्यास के सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने जन्म लिया था. 'मुंशी प्रेमचंद' एक ऐसे लेखक, जिनकी रचनाएँ ये बताने के लिए काफी हैं कि भारतीय ग्रामीण जीवन और विकासशील भारत की जो स्थिति आज से 100 साल पहले जैसी थी वैसी आज भी है.
एक ऐसा लेखक जिसको पढ़ने के बाद एक पाठक को ये महसूस होता है कि वो भी भारत के उन गांवों की यात्रा पर है जिनका वर्णन प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में किया है. ये कहना मेरे लिए अतिश्योक्ति न होगा कि फणीश्वर नाथ रेणु के बाद भारतीय गांवों का इतना सजीव चित्रण शायद ही कहीं और मिलें.
ध्यान रहे कि, प्रेमचंद की रचनाओं की एक-एक पंक्ति में गांव के सहज-सरल रूप का सजीव चित्र मौजूद है. जिसे एक ऐसा पाठक भी महसूस कर सकता है जो शायद ही कभी गांवों में रहा हो या उसने गाँवों को कभी देखा हो. कहा जा सकता है कि प्रेमचंद का साहित्य एक पाठक के मन को छूता है और उसे भाव विभोर कर देता है.
कैसे हुई प्रेमचंद के लेखन की शुरुआत
हम प्रेमचंद पर बात कर रहे हैं. मगर हमारे लिए ये जानना बेहद जरूरी है कि धनपतराय नाम का एक आम लड़का प्रेमचंद बना तो बना कैसे. गरीबी, अभाव, शोषण तथा उत्पीड़न जैसी जीवन की मुश्किल परिस्थितियां भी प्रेमचन्द के साहित्य के प्रति रुझान को रोक न सकी. प्रेमचन्द जब मिडिल में थे तभी से उन्होंने अलग-अलग उपन्यासों को पढ़ना शुरू कर दिया था. मुंशी प्रेमचंद की बचपन से ही उर्दू भाषा पर अच्छी पकड़ थी. प्रेमचंद पर नॉवल और उर्दू उपन्यास का ऐसा उन्माद छाया कि पैसे न होने के चलते इन्होंने एक स्थानीय बुकसेलर से दोस्ती गाँठ ली और उसी की दुकान पर बैठकर ढेर सारे नॉवल पढ़ डाले.
प्रेमचंद के बारे में जानने पर मिलता है कि ये बचपन से ही उर्दू के समकालीन उपन्यासकारों सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार आदि के दीवाने हो गये थे. और जहाँ भी इन लेखकों कि किताब मिलती उसे पढ़ने का हर संभव प्रयास करते थे. ये इन लोगों के प्रति प्रेमचंद की दीवानगी ही थी जिसके चलते इन्होंने एक तम्बाकू वाले से दोस्ती की और उसकी दुकान पर मौजूद 'तिलस्मे -होशरुबा' पढ़ी. कह सकते हैं कि ये प्रेमचंद की ही प्रतिभा थी जिसके चलते इन्होंने 13 वर्ष की उम्र में से ही लिखना आरंभ कर दिया था.
बात अगर प्रेमचंद की लेखनी की हो तो इसमें ऐसा बहुत कुछ है जिसको पढ़कर न सिर्फ एक आदमी सोचने पर मजबूर हो जाएगा, बल्कि उसकी आंखें खुद छलक उठेंगी. इस बात को समझाने के लिए आपको प्रेमचंद की एक कहानी का उदाहरण देता हूँ कहानी का नाम है ईदगाह. न जाने क्यों ये कहानी मुझे बहुत प्रिय है. इसे मैं अगर आज के हालात में देखने का प्रयास करूं तो यही कहूंगा कि. 'ईद चली गयी, न वो हमीद की लड़कपन वाली बुजुर्गों के लिए फ़िक्र दिखी, न हाथों में 'चिमटा' पकडे बूढ़ी अमीना के कभी अपने पर तो कभी हालात पे निकलते बेबस और लाचार आंसू.
हां, ईदगाह आज भी गुलजार है, गुलजार है उन अमीरों से जो महंगे कपड़ों, आलिशान गाड़ियों और अलग अलग पकवानों के बीच अपने एसी कमरे में बैठकर गरीब की गुरबत और उसके फाकों पर रंज करते हैं. हो न हो, अब शायद 'अमीना' ने भी अपने को 'एडजस्ट' कर लिया है हालात के लिए, आंसू के लिए, 'चिमटे' के लिए, अपनी गुरबत के लिए, अपनी गरीबी के लिए.
इन सब से दूर हमीद 'त्याग', 'सदभाव' और 'विवेक' लिए बूढ़ी अमीना के लिए आज भी चिमटा खरीदने के लिए पैसे जुटा रहा है. ताकि अमीना को उसक लिए रोटी बनाते वक्त परेशानी न हो और अमीना की अंगुलियां कहीं फिर से तवे से जल न जाएं. हमीद और अमीना के लिए ईद आई और अगले साल तक के लिए फिर चली गयी लेकिन परिस्थितियां आज भी लगभग वही की वही हैं'.
खैर, मैं आज सुबह से सोच रहा था कि मुंशी प्रेमचंद के जन्म दिन के उपलक्ष में कुछ लिख कर उन्हें श्रद्धांजली दूं. यकीन मानिए क्या और कैसे लिखना है इसपर विचार करते हुए सुबह से शाम और अब रात हो गयी है. हिंदी साहित्य के स्तम्भ की शान में लिखने के लिए मुझे शब्द ही नहीं मिल रहे, यूं समझ लीजिये दिमाग ब्लैंक हो गया है. शब्द आ रहे हैं बस. ये नहीं समझ आ रहा कि इस बार क्या मैं उनके साथ इंसाफ कर पाऊंगा?
विडंबना देखिये जिस आदमी को पढ़कर मैंने थोड़ा बहुत लिखना सीखा आज मैं उसी की शान में कुछ नहीं लिख पा रहा हूं. अपनी परेशानी को अगर मुंशी प्रेमचंद के शब्दों में कहूं तो 'चिंता एक काली दीवार की भांति चारों ओर से घेर लेती हैं, जिसमें से निकलने की फिर कोई गली नहीं सूझती'.
प्रायः ऐसा मेरे साथ हाई स्कूल और इण्टर के दिनों में होता था जब भौतिकी और बीजगणित आने के बावजूद मैं मारे टेंशन के परीक्षा भवन में परीक्षा खत्म होने के एक घंटा पहले तक बगले झांकता था. मुंशी प्रेमचंद को श्रद्धांजली देने के लिए अभी शायद मेरा लेवल इतना ही है,'वर्तमन में हाशिये पर जा चुके हिंदी साहित्य को अपने खून से सींचने वाले महान कथाकार मुंशी प्रेम चंद को उनके जन्म दिन पर कोटि कोटि नमन'.
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