जोशीमठ (Joshimath Sinking) के हालात के बारे में हम क्या कहें, उनके दिलों से पूछिए जिन्हें अपना आशियाना छोड़कर रिफ्यूजी कैंप में जाना पड़ा रहा है. घर बनाने में सिर्फ पैसा लगता है क्या? घर बनाने में इंसान झोंक देता है अपनी जवानी. अपनी जिंदगी भर की कमाई. घर सिर्फ मकान नहीं होता, घर होता है पूर्वजों की निशानी. बच्चों का भविष्य. घर सिर्फ सीमेंट, बालू, ईंट नहीं होता. घर होता है बच्चे का पहला रूंदन. घर से आंगन में गाए जाते हैं ब्याह के गीत. पहली बार उतरती है किसी की डोली. उसी घर से होती है जिंदगी के सफर की अंतिम विदाई और उठती है अर्थी. घर की आंगन में होता है चिड़ियों का चहकना, बेटियों की हंसी का गूंजना. घर सिर्फ आंधी-तूफान, धूप, ठंड से नहीं बचाता वह मुसीबत के घड़ी में घरवालों को अपने आगोश में ले लेता है.
घर में लोग बच्चे से जवान होते है और फिर बूढ़े होते हैं. घर से कोई कितना भी दूर क्यों ना चला जाए दिल के एक कोने में उसकी यादें बसी रहती हैं. लोगों को अपना आशियाना बनाने में खून-पसीना एक करना पड़ता है. आम आदमी की चप्पलें घिस जाती हैं दफ्तर के चक्कर लगाने में. दुकान के गल्ले को संभाल कर अपने सुख काटकर पैसे बचाने में. घर बनाने में इंसान अपना सबकुछ झोंक देता है, अपनी मेहनत, अपने सपने, अपने पैसे, अपने अरमान...अपना सबकुछ.
सैलरी ईएमआई बन जाती है. लोगों को सिर पर छत बनाने के लिए बैंक का लोन जो लेना पड़ता है. इतना करने के बाद इंसान के मन में तसल्ली होती है, चलो वह अपने घर में तो है. कोई भी चाहता है कि बड़ा ना सही छोटा ही मगर अपना घर हो. जिसे अपना कहा जा सके. घर में लोगों का आत्मा बसती है, वे कहीं भी चले जाएं मगर सुकून अपने घर में आकर ही मिलता है. चाहें वह अमीर का घर हो या गरीब का....मगर घर तो आखिर घर ही होता है.
जोशीमठ (Joshimath Sinking) के हालात के बारे में हम क्या कहें, उनके दिलों से पूछिए जिन्हें अपना आशियाना छोड़कर रिफ्यूजी कैंप में जाना पड़ा रहा है. घर बनाने में सिर्फ पैसा लगता है क्या? घर बनाने में इंसान झोंक देता है अपनी जवानी. अपनी जिंदगी भर की कमाई. घर सिर्फ मकान नहीं होता, घर होता है पूर्वजों की निशानी. बच्चों का भविष्य. घर सिर्फ सीमेंट, बालू, ईंट नहीं होता. घर होता है बच्चे का पहला रूंदन. घर से आंगन में गाए जाते हैं ब्याह के गीत. पहली बार उतरती है किसी की डोली. उसी घर से होती है जिंदगी के सफर की अंतिम विदाई और उठती है अर्थी. घर की आंगन में होता है चिड़ियों का चहकना, बेटियों की हंसी का गूंजना. घर सिर्फ आंधी-तूफान, धूप, ठंड से नहीं बचाता वह मुसीबत के घड़ी में घरवालों को अपने आगोश में ले लेता है.
घर में लोग बच्चे से जवान होते है और फिर बूढ़े होते हैं. घर से कोई कितना भी दूर क्यों ना चला जाए दिल के एक कोने में उसकी यादें बसी रहती हैं. लोगों को अपना आशियाना बनाने में खून-पसीना एक करना पड़ता है. आम आदमी की चप्पलें घिस जाती हैं दफ्तर के चक्कर लगाने में. दुकान के गल्ले को संभाल कर अपने सुख काटकर पैसे बचाने में. घर बनाने में इंसान अपना सबकुछ झोंक देता है, अपनी मेहनत, अपने सपने, अपने पैसे, अपने अरमान...अपना सबकुछ.
सैलरी ईएमआई बन जाती है. लोगों को सिर पर छत बनाने के लिए बैंक का लोन जो लेना पड़ता है. इतना करने के बाद इंसान के मन में तसल्ली होती है, चलो वह अपने घर में तो है. कोई भी चाहता है कि बड़ा ना सही छोटा ही मगर अपना घर हो. जिसे अपना कहा जा सके. घर में लोगों का आत्मा बसती है, वे कहीं भी चले जाएं मगर सुकून अपने घर में आकर ही मिलता है. चाहें वह अमीर का घर हो या गरीब का....मगर घर तो आखिर घर ही होता है.
सोचिए उत्तराखंड के जोशीमठ में जिनका घर धंस रहा हो उनके दिल पर क्या बीत रही होगी? मैं तो अंदाजा नहीं लगा पा रही हूं क्योंकि वहां मेरा घर जो नहीं है. भाग्यशाली हैं वो लोग जिनका घर जोशीमठ में नहीं है. क्योंकि जो वहां हो रहा है उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है. अपना घर रहते हुए पल भल में बेघर होकर सड़क पर आ जाना क्या होता है यह हम नहीं समझते मगर बेघर हुए लोगों की तकलीफ का तकाजा जरूर लगा सकते हैं.
लोगों के घरों में चौड़ी दरारें आ गई हैं. जमीन में चीरा लग गया है. कहीं मंदिर गिर गया है तो कहीं जमीन में पानी आ गया है. किसी का घर झुक गया है, किसी का घर तिरछा हो गया है. वहां रहने वाले लोग अपनी दुनिया उजड़ते हुए देख रहे हैं. उनकी आंखों से पानी गिर रहा है. पुरुष को फिर भी खुद को संभाल रहे हैं मगर महिलाओं की रोने की आवाजें किसी को भी विचलित कर सकती हैं.
घर का आंगन महिलाओं की दुनिया होती है. वे पूरी उम्र अपनी गृहस्थी को संभालने में बिता देती हैं. जिस घऱ को उन्होंने इतने प्यार से पाला था. जिस घर की रसोई में उनका दिल बसता है वे उस घर को इस हाल में नहीं देख पा रही हैं. वे अपनी दुनिया उजड़ते देख रही हैं मगर इतनी बेबस हैं कि चाहकर भी कुछ कर नहीं पा रही हैं.
लोग कैंप में औऱ रिश्तेदारों के घर जाकर रह रहे हैं. वे सुबह होते ही अपने घरों को देखने आ जाते हैं जैसे वे पूछ रहे हैं तुम कैसे हो? जैसे कोई जवान व्यक्ति अचानक किसी गंभीर बीमारी का शिकार हो गया हो और उसके अपने उसे बचाने की झूठी कोशिश कर रहे हैं. यह जानते हुए भी सामने वाला अब वेंटिलेटर पर पड़ा है और उनका साथ छोड़कर जाने वाला है.
वे अपने घरों की निहारते हैं और अपनी यादों को जीते हैं. एक-एक तस्वीर उनकी आंखों के सामने से गुजर रही है. घर तो घर लोगों की खेत फट गए हैं. लोगों के चेहरों पर दर्द है, खौफ है और भविष्य की टेंशन है. आगे क्या होगा उन्हें नहीं पता. पता नहीं उन्हें नया घर कब मिलेगा? मिलेगा या नहीं. वे अपनी जगह छोड़कर कहां जाएंगे. उनके बच्चों का क्या होगा? बच्चे अब कहां जाकर पढ़ेंगे क्योंकि वह स्कूल तो धंस गया. सोचिए वहां नौकरी करने वाले अब क्या करेंगे? किसी का गुजारा मकान के किराए से होता था, किसी ने उम्र भर पत्थर तोड़कर घर बनाया, कोई बेरोजगार है.
लोगों को समझ नहीं आ रहा है कि अपने घर का सामान कहां लेकर जाएं? कैसे अपने घर को समेट लें. इसलिए वे अपने बच्चों के सर्टिफेकट लेकर जा रहे हैं. जिन लोगों का घर खतरे की लिस्ट में है वे कुछ गर्म कपड़े लिए रैन बसरों में रात बिताते हैं और दिन में अपने घर के बाहर टकटकी लगाए रहते हैं, इस उम्मीद में कोई उनकी मदद को आगे आएगा. बेघर हुए लोग क्या कभी इन घरों वापसी करेंगे? कौन देगा, इन आंखों को जवाब, जिसका घर छिन जाए उसके पास अब आस और याद के सिवा बचा क्या है?
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.