किस बात के लिए लड़े, किससे लड़े, जिनके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएं? हिंदुओं के लिए, स्त्रियों के हुए अपमान के लिए या फिर धार्मिक भावना आहत होने के लिए. हिंदुओं के लिए लड़ना बेकार है क्योंकि हिंदू धर्म का अपमान करने वाला कोई और नहीं बल्कि हिंदू ही है. स्त्रियों के अपमान के लिए आवाज़ उठायें, लेकिन अपमान पुरुष नहीं बल्कि स्त्री ही स्त्री का कर रही है, तो फिर किसके लिए क्या करें! काली, एक शॉर्ट फ़िल्म है. जिसे एक NRI फ़िल्म-निर्देशिका ने बनाया है, नाम है लीना. उस फ़िल्म के पोस्टर को अब तक लगभग सोशल मीडिया पर रह रहे लोगों ने देख ही लिया होगा. जहां मां काली का रूप धारण किए कोई अभिनेत्री सिगरेट पी रही है. एक हाथ में LGBTQ का झंडा उठाया है. लीना की सोच में शायद एमपॉवर्ड स्त्री की यही छवि होगी. उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी है, वो शायद सिगरेट, शराब पी कर ही सक्षम महसूस करती होगी खुद को. लेकिन यहां बात उनकी नहीं है. यहां बात मेरी भी है, यहां बात उन लाखों हिंदू लड़कियों की है जिसने एमपॉवरमेंट का मतलब दुर्गा और काली के बारे में पढ़ कर ही जाना है.
मुझ जैसी बाक़ी की लड़कियों को सशक्त महसूस करने के लिए सिगरेट या शराब की ज़रूरत कभी महसूस नहीं हुई. सशक्त होने के लिए बौद्धिक चेतना की दरकार होती है जो अच्छा पढ़ने-लिखने, अपने संस्कारों को समझने से आती है. पहली बार किसी फ़िल्म के पोस्टर को देख कर मन पीड़ा से भर उठा. अजीब तरह से कचोट रहा है मन. ऐसा लग रहा है कि जैसे किसी ने मुझे बीच चौराहे पर ला कर बेइज़्ज़त कर दिया है.
जैसे कोई जलती सिगरेट से मेरी आत्मा को दाग रहा हो. मैं समझने की कोशिश कर रही हूं कि क्या मानसिकता होगी लीना जी की जो उन्होंने काली मां को सिगरेट पीते...
किस बात के लिए लड़े, किससे लड़े, जिनके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएं? हिंदुओं के लिए, स्त्रियों के हुए अपमान के लिए या फिर धार्मिक भावना आहत होने के लिए. हिंदुओं के लिए लड़ना बेकार है क्योंकि हिंदू धर्म का अपमान करने वाला कोई और नहीं बल्कि हिंदू ही है. स्त्रियों के अपमान के लिए आवाज़ उठायें, लेकिन अपमान पुरुष नहीं बल्कि स्त्री ही स्त्री का कर रही है, तो फिर किसके लिए क्या करें! काली, एक शॉर्ट फ़िल्म है. जिसे एक NRI फ़िल्म-निर्देशिका ने बनाया है, नाम है लीना. उस फ़िल्म के पोस्टर को अब तक लगभग सोशल मीडिया पर रह रहे लोगों ने देख ही लिया होगा. जहां मां काली का रूप धारण किए कोई अभिनेत्री सिगरेट पी रही है. एक हाथ में LGBTQ का झंडा उठाया है. लीना की सोच में शायद एमपॉवर्ड स्त्री की यही छवि होगी. उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी है, वो शायद सिगरेट, शराब पी कर ही सक्षम महसूस करती होगी खुद को. लेकिन यहां बात उनकी नहीं है. यहां बात मेरी भी है, यहां बात उन लाखों हिंदू लड़कियों की है जिसने एमपॉवरमेंट का मतलब दुर्गा और काली के बारे में पढ़ कर ही जाना है.
मुझ जैसी बाक़ी की लड़कियों को सशक्त महसूस करने के लिए सिगरेट या शराब की ज़रूरत कभी महसूस नहीं हुई. सशक्त होने के लिए बौद्धिक चेतना की दरकार होती है जो अच्छा पढ़ने-लिखने, अपने संस्कारों को समझने से आती है. पहली बार किसी फ़िल्म के पोस्टर को देख कर मन पीड़ा से भर उठा. अजीब तरह से कचोट रहा है मन. ऐसा लग रहा है कि जैसे किसी ने मुझे बीच चौराहे पर ला कर बेइज़्ज़त कर दिया है.
जैसे कोई जलती सिगरेट से मेरी आत्मा को दाग रहा हो. मैं समझने की कोशिश कर रही हूं कि क्या मानसिकता होगी लीना जी की जो उन्होंने काली मां को सिगरेट पीते हुए दिखाया है. मैं सच में उनका पक्ष सुनना चाहूंगी. ये कैसा फ़ेमिनिज़म है जहां एक स्त्री ही दूसरी स्त्री को शक्ति-विहीन दिखाना चाह रही है. हां, शक्ति-विहीन ही तो है.
मां काली यानि दुनिया में निहित समस्त क्रोध की ज्वाला को अपने अंदर भर कर, जब आवेग में आए तो दुनिया का सर्वनाश कर दें, ऐसी स्त्री को सिगरेट पीते दिखाना. ये अपग्रेड नहीं है कहीं से भी स्त्रियों को ये डीग्रेड करना है. हो सकता है कॉलेज के दिनों में लीना सिगरेट नहीं पीती रही हों. अंग्रेज़ी नहीं बोल पाती रही हों. शराब नहीं पी पाने की वजह से कूल लड़के-लड़कियां उन्हें अपने साथ नहीं लेते रहे हों.
तो उन्होंने अपनी उस कुंठा को ख़त्म करने के लिए सिगरेट पीना शुरू किया हो, या दूसरे ग़लत काम, जिसको करके उनको एमपॉवर होता महसूस हुआ हो. लेकिन उनका सच, उनकी कुंठा सारी दुनिया का सच नहीं हो सकता है. ये फ़ेमिनिस्ट होने की निशानी सिगरेट पीना, शराब पीना, कई लोगों के साथ शारीरिक सम्बंध बनाना, हिंदू देवी-देवता का अपमान करना कब से हो गया?
लीना जैसी डिज़ायनर फ़ेमनिस्टों की वजह से ही आज भारत में फ़ेमिनिस्ट होना किसी गाली जैसा हो गया है. किसी को कहिए आप फ़ेमिनिस्ट हैं तो जज करने लगता है सामने वाला. क्योंकि उसे पता है कि फ़ेमनिज़म के नाम पर क्या चरस बोया जा रहा है. बराबरी के नाम पर हर वो ग़लत काम करना है जिसे करके पुरुष समुदाय को भी नीची नज़र से ही देखा जाता है.
मैं तो हैरान हूं कि फ़ेसबुक पर महिलाओं की आज़ादी, उनके मान-सम्मान के लिए हर वक़्त झंडा उठाए खड़ी रहती हैं आज चुप क्यों हैं? क्या सच में उनको मां काली के पोस्टर को देख कर बेइज़्ज़त होने जैसा महसूस नहीं हुआ होगा. बात आस्तिक या नास्तिक होने की नहीं है. बात है एक शक्तिशाली स्त्री की शक्तियों को कम करने की कोशिश करना, उसके अधिकारों को छीनने के लिए गंदा खेल खेलना.
मां काली को सिगरेट पीते दिखाना धार्मिक भावनाओं को आहत करने से कहीं ज़्यादा बड़ी बात है. दुनिया के करोड़ों लोग जो भी हिंदू धर्म को मानते हैं उनके लिए काली शक्ति का स्वरूप है. ये पोस्टर उस शक्ति पर प्रहार है. फ़ेमनिजम तो ये बिलकुल नहीं है. क्योंकि जो शक्तिशाली है पहले से आप उस स्त्री की शक्ति को कम करके दिखा रही हैं.
काश, ये बात समझ में आती उन सभी फ़ेक फ़ेमिनिस्ट को जिनको लगता है कि सिगरेट पीना ही फ़ेमिनिस्ट होना है. शराब पी कर गाली देना ही कूल होना है. और दुर्गा-काली का मज़ाक़ उड़ाना ही ग्रेट-फ़िल्म मेकर होने की निशानी है. ख़ैर!
ये भी पढ़ें -
Kanhaiya Lal की मौत के बाद लोग इधर-उधर मुंह कर रहे हैं और पैरेलल यूनिवर्स एक्टिव हो गया है!
सिद्धू मूसेवाला का हत्यारा अंकित सिरसा: जो उम्र से 'नाबालिग' है, अपराधी के रूप में नहीं
बदरुद्दीन अजमल की गोहत्या न करने की अपील के पीछे वजह असम के 'योगी' तो नहीं?
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.