ज़िंदा रहने के मौसम बहुत हैं मगर
जान देने की रुत रोज़ आती नहीं
हुस्न और इश्क़ दोनों को रुसवा करे
वो जवानी जो खूं में नहाती नहीं
बांध लो अपने सर पर कफ़न साथियों,
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों.
हर साल छब्बीस जनवरी और पंद्रह अगस्त को जब भी ये गाना चित्रहार और रंगोली में दूरदर्शन पर आता था, अम्मा के साथ हम तीनों भाई बहन भी रो पड़ते थे. इसकी एक वजह डैडी जी का डिफ़ेंस में होना यानी हमसब से दूर होना और दूसरी वजह इसकी लिरिक्स. वैसे तब छोटे थे तो लिरिक्स क्या होती है, इसे कौन लिखता है ये सब समझ से परे की चीज़ थी. जैसे-जैसे वक़्त गुजरा पढ़ने-लिखने लगी तो वास्ता शायर और शेर जैसे टर्म से भी पड़ा.
आठवीं जमात में जब थी तब एनुअल डे पर एक कविता मैंने स्टेज पर पढ़ी थी. बिना ये जाने कि लिखा किसने है, इसके मायने क्या है. हिंदी वाले सर ने लिखवा दिया था. जिसके बोल कुछ यूं थे.
तू कि बे-जान खिलौनों से बहल जाती है
तपती सांसों की हरारत से पिघल जाती है
पांव जिस राह में रखती है फिसल जाती है
बन के सीमाब हर इक ज़र्फ़ में ढल जाती है
ज़ीस्त के आहनी सांचें में भी ढलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे
क़द्र अब तक तेरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझ में शोले भी हैं बस अश्क-फ़िशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प...
ज़िंदा रहने के मौसम बहुत हैं मगर
जान देने की रुत रोज़ आती नहीं
हुस्न और इश्क़ दोनों को रुसवा करे
वो जवानी जो खूं में नहाती नहीं
बांध लो अपने सर पर कफ़न साथियों,
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों.
हर साल छब्बीस जनवरी और पंद्रह अगस्त को जब भी ये गाना चित्रहार और रंगोली में दूरदर्शन पर आता था, अम्मा के साथ हम तीनों भाई बहन भी रो पड़ते थे. इसकी एक वजह डैडी जी का डिफ़ेंस में होना यानी हमसब से दूर होना और दूसरी वजह इसकी लिरिक्स. वैसे तब छोटे थे तो लिरिक्स क्या होती है, इसे कौन लिखता है ये सब समझ से परे की चीज़ थी. जैसे-जैसे वक़्त गुजरा पढ़ने-लिखने लगी तो वास्ता शायर और शेर जैसे टर्म से भी पड़ा.
आठवीं जमात में जब थी तब एनुअल डे पर एक कविता मैंने स्टेज पर पढ़ी थी. बिना ये जाने कि लिखा किसने है, इसके मायने क्या है. हिंदी वाले सर ने लिखवा दिया था. जिसके बोल कुछ यूं थे.
तू कि बे-जान खिलौनों से बहल जाती है
तपती सांसों की हरारत से पिघल जाती है
पांव जिस राह में रखती है फिसल जाती है
बन के सीमाब हर इक ज़र्फ़ में ढल जाती है
ज़ीस्त के आहनी सांचें में भी ढलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे
क़द्र अब तक तेरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझ में शोले भी हैं बस अश्क-फ़िशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उन्वान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे.
तब सिर्फ़ इसे पढ़ा भर था. गुज़रता वक़्त आपको पढ़ीं हुई चीज़ों को समझाने का काम करता है. स्कूल में पढ़ी गयी वो कविता कब ज़िंदगी में शामिल हो गयी पता भी नहीं चला. जब अव्वल-अव्वल के दिनों में लिखना शुरू किया तो एक दिन कुछ खोजते हुए इंटरनेट पर इस कविता को लिखने वाले शख़्स को देखा. दूरदर्शन के किसी इंटरव्यू का क्लिप था. जिसमें कैफी आज़मी नाम का शख़्स इसे गुनगुना रहा था. ठहर कर उस पूरी क्लिप को देखा. वो जिस अन्दाज़ में इसे पढ़ रहें थे सुन कर लगा दुनिया की तमाम पाबंदियां तोड़ सकतीं हैं लड़कियां. वो जो चाहती हैं वो कर सकती हैं.
आज उसी शख़्स, उसी शायर का जन्मदिन है. जिसकी कविता ने मेरी ज़िंदगी को एक राह दी. जो न हो कर भी मेरी ज़िंदगी में शामिल रहा. आज अगर कैफी साहेब होते तो 101 साल के होते. आज़मगढ़ के एक छोटे से गांव में जन्में कैफी साहब के लिए किसने सोचा होगा कि वो अपने ज़माने का इकलौता ‘फ़ेमिनिस्ट’ शायर बनेगा. जो लिखने के अलावा घर के तमाम काम भी करेगा. बीवी काम पर जाएगी तो बच्चों को संभालेगा. मुशायरे में मसनद के पीछे बच्चों को पहले थपकी दे कर सुला देगा, फिर अपनी नज़्म पढ़ेगा. पुरुष होना क्या होता है, मुलायम दिल बंदा कैसा होता है इसकी मिसाल हैं कैफी आज़मी.
मगर जो मिसाल बनते हैं उनकी ज़िंदगी आसान कब रही है? कैफी साहेब भी मुफ़लिसी की दौर से गुजरें हैं. एक वक़्त पर उनके लिए ये तक कहा जाने लगा था कि, 'ये मनहूस शायर है. इसके साथ काम करोगे तो तुम्हारे सितारे भी गर्दिश में चले जाएंगे.' उसकी वजह गुरुदत्त साहेब की सबसे अज़ीज़ फ़िल्म ‘काग़ज़ के फूल’ का फ़्लॉप हो जाना था.
अपने एक इंटरव्यू में ख़ुद कैफी साहेब ने कहा था कि जब उन्हें हक़ीक़त फ़िल्म के लिए उसके डायरेक्टर साइन कर रहे थे, तो डायरेक्टर साहब के कई दोस्तों ने कैफी आज़मी की मनहूसियत का वास्ता दे कर उन्हें रोकने की कोशिश की थी. लेकिन उन्होंने किसी की न सुनी और कैफी आज़मी को ही चुना. उसी फ़िल्म का वो गाना है, कर चले हम फ़िदा, जिसे सुन कर आज भी आंखें नम हो जाती है. हक़ीक़त फ़िल्म के बाद कैफी आज़मी के लिए सब कुछ बदलने लगा. वो फ़िल्म उनके कैरियर के लिए मील का पत्थर साबित हुई.
आज भी ज़िंदगी के तमाम मौक़ों पर उनके लिखे शेर याद आते हैं. मुहब्बत के साथ-साथ समाज के सबसे निचले तबकों को आवाज़ उनकी नज़्मों ने दिया है. लेकिन अपनी ही लिखी नज़्मों में से उनकी सबसे पसंदीदा वो है जिसे बेग़म अख़्तर ने अपनी आवाज़ दी थी.
वो मुझे भुल गयी इसकी शिकायत क्या है
रंज तो ये है कि रो-रो के भुलाया होगा.
वैसे कैफी साहेब आपको कोई भुल नहीं सकता. आप नहीं हो कर भी हैं हमारे दरमियां दिन मुबारक हो सर.
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