'अलीम पाशा बनाम कर्नाटक राज्य' के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने हाल ही में कहा था कि POCSO (यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम) सेक्स के लिए सहमति की उम्र के संबंध में मुस्लिम पर्सनल लॉ को ओवरराइड करता है और इसलिए, नाबालिग मुस्लिम लड़की के साथ शादी के बाद सेक्स को POCSO से छूट नहीं दी जाएगी. इसी को आधार बनाते हुए एक बार फिर सिंगल बेंच जज बादमीकार ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि मुस्लिम कानून के तहत, एक नाबालिग लड़की 15 साल की उम्र में शादी कर सकती है और इसलिए, अगर ऐसी नाबालिग मुस्लिम पत्नी गर्भवती हो जाती है तो पॉक्सो अधिनियम या बाल विवाह प्रतिबंध अधिनियम के तहत पति के खिलाफ कोई अपराध नहीं बनता है. परंतु ऐसा स्पष्ट करते हुए भी माननीय जज ने उस व्यक्ति को, जिसपर एक नाबालिग मुस्लिम लड़की से शादी करने के बाद उसे गर्भवती करने के लिए POCSO के तहत अपराध का मामला दर्ज किया गया था, विवाह के संबंध को ध्यान में रखते हुए जमानत देते हुए कहा कि 'मेरी राय में, याचिकाकर्ता को जमानत पर स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है चूंकि पीड़िता गर्भवती है, उसे सपोर्ट चाहिए और याचिकाकर्ता अपनी पत्नी की देखभाल कर सकता है.' साथ ही जज साहब ने पीड़िता के इस तथ्य को भी खारिज कर दिया कि उसने शादी के लिए आपत्ति जताई थी.
समझ नहीं आता न्यायमूर्ति सख्ती क्यों नहीं बरतते ? अक्सर निर्णय संतुलनकारी कार्य प्रतीत होते हैं. पॉस्को के तहत अपराध बनता है तो फिर अपराधी को रियायत देने के लिए आधार क्यों गढ़ लिए जाते हैं ? क्या माननीय न्यायाधीश पॉक्सो की भावना के विपरीत नजर नहीं आते जब वे पीड़िता के शादी से समय असहमति जताये जाने को इस बिना पर स्वीकार नहीं करते कि वह आज बता रही है ? पीड़िता की असहमति...
'अलीम पाशा बनाम कर्नाटक राज्य' के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने हाल ही में कहा था कि POCSO (यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम) सेक्स के लिए सहमति की उम्र के संबंध में मुस्लिम पर्सनल लॉ को ओवरराइड करता है और इसलिए, नाबालिग मुस्लिम लड़की के साथ शादी के बाद सेक्स को POCSO से छूट नहीं दी जाएगी. इसी को आधार बनाते हुए एक बार फिर सिंगल बेंच जज बादमीकार ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि मुस्लिम कानून के तहत, एक नाबालिग लड़की 15 साल की उम्र में शादी कर सकती है और इसलिए, अगर ऐसी नाबालिग मुस्लिम पत्नी गर्भवती हो जाती है तो पॉक्सो अधिनियम या बाल विवाह प्रतिबंध अधिनियम के तहत पति के खिलाफ कोई अपराध नहीं बनता है. परंतु ऐसा स्पष्ट करते हुए भी माननीय जज ने उस व्यक्ति को, जिसपर एक नाबालिग मुस्लिम लड़की से शादी करने के बाद उसे गर्भवती करने के लिए POCSO के तहत अपराध का मामला दर्ज किया गया था, विवाह के संबंध को ध्यान में रखते हुए जमानत देते हुए कहा कि 'मेरी राय में, याचिकाकर्ता को जमानत पर स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है चूंकि पीड़िता गर्भवती है, उसे सपोर्ट चाहिए और याचिकाकर्ता अपनी पत्नी की देखभाल कर सकता है.' साथ ही जज साहब ने पीड़िता के इस तथ्य को भी खारिज कर दिया कि उसने शादी के लिए आपत्ति जताई थी.
समझ नहीं आता न्यायमूर्ति सख्ती क्यों नहीं बरतते ? अक्सर निर्णय संतुलनकारी कार्य प्रतीत होते हैं. पॉस्को के तहत अपराध बनता है तो फिर अपराधी को रियायत देने के लिए आधार क्यों गढ़ लिए जाते हैं ? क्या माननीय न्यायाधीश पॉक्सो की भावना के विपरीत नजर नहीं आते जब वे पीड़िता के शादी से समय असहमति जताये जाने को इस बिना पर स्वीकार नहीं करते कि वह आज बता रही है ? पीड़िता की असहमति का मान तब परिवार ने , समाज ने रख लिया होता तो आज कोई मामला होता क्या अदालत के समक्ष ?
विडंबना देखिये उपरोक्त फैसले के दो दिन पहले ही कर्नाटक उच्च न्यायालय की ही दूसरी बेंच ने एक अन्य सदृश मामले में एक मुस्लिम के खिलाफ नाबालिग गर्भवती पत्नी के मामले को खारिज कर दिया था. इस मामले में अपीलकर्ता के खिलाफ पुलिस ने स्वतः ही पॉक्सो के तहत मुकदमा दर्ज किया था जब हॉस्पिटल में मेडिकल चेकअप के दौरान पीड़िता गर्भवती पाई गई और उसकी उम्र मात्र 17 वर्ष 2 महीने थी यानि वह नाबालिग थी.
अपीलकर्ता ने मुस्लिम लॉ की आड़ ली थी और साथ ही ये भी तर्क दिया कि अब वह बालिग़ हो चुकी है और उसने बच्चे को जन्म दे दिया है जसकी उम्र 2 महीने है, और चूंकि दोनों ही पक्षों ने आपसी सहमति से मामला सुलझा लिया है, सो मामला खारिज होना क्वालीफाई करता है. इस बेंच ने अपने फैसले के लिए पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट और हाल ही के दिल्ली हाई कोर्ट के निर्णयों को आधार बनाया था.
सवाल है क्या कानून की नजर में किसी एक अपराध की सुनवाई के लिए अलग अलग मापदंड हो सकते हैं ? सैद्धांतिक रूप से नहीं हो सकते. कर्नाटक हाई कोर्ट के ताजा फैसले में, हालांकि आरोपी को जमानत दी गई, पॉक्सो अधिनियम और आईपीसी को पर्सनल लॉ के ऊपर बताते हुए इस बात को स्पष्ट कर दिया गया है. इसी प्रकार की टिप्पणी अदालत ने एक अन्य मामले में भी की है जिसमें सोलह वर्षीया किशोरी से बलात्कार के मामले में मुस्लिम युवक ने आपराधिक प्रकरण में बरी किये जाने के लिए पर्सनल लॉ की आड़ लेने की कोशिश की थी.
मुस्लिम कानून के मुताबिक़ युवावस्था 15 साल की उम्र में मानी जाती है. ऐसे में बाल विवाह प्रतिरोध कानून और पॉक्सो अधिनियम के तहत मामले नहीं बनते, तर्क दिया जाता रहा है. परंतु युवावस्था का आधार वैज्ञानिक रूप से तय होता है, इसे किसी धर्म - समुदाय के प्रावधानों से कैसे आंका जा सकता है ? पिछले सालों में अदालतों के अलग अलग फैसलों को लेकर असमंजस बना है कि क्या धार्मिक कानून की आड़ में किसी अपराध को अलग नजरिये से देखा जा सकता हैं ?
पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय ने कुछ समय पहले ऐसा ही फैसला दे दिया था जिसमें शारीरिक तौर पर यौवन प्राप्त सोलह वर्षीया मुस्लिम लड़की को विवाह योग्य माना गया था. हालाँकि इस फैसले को एनसीपीसीआर (राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग) ने सुप्रीम कोर्ट में यह कहते हुए चुनौती दे रखी है कि यह बाल विवाह को बढ़ावा देने वाला तो होगा ही , पॉक्सो एक्ट भी इससे प्रभावित होगा.
सुप्रीम कोर्ट इस प्रकरण पर सुनवाई कर रहा है. पॉक्सो एक्ट बिल्कुल स्पष्ट है कि 18 साल से कम उम्र की लड़की की सहमति के कोई मायने नहीं है. कानून और समाज की व्यवस्थाएं अलग अलग नहीं हो, यह धार्मिक कानून की पैरवी करने वालों को देखना ही होगा. विवाह की काम आयु रखना वैसे भी बालिकाओं की सेहत के लिए बड़ा खतरा है.
ऐसे में युवावस्था की उम्र को लेकर वैज्ञानिक सोच को ही अनुमति मिलनी चाहिए न कि किसी अन्य व्यवस्था के तहत दी गई उम्र को. विवाह की आयु सीमा एक समान करने के प्रस्तावों को भी इसी नजरिये से देखा जाना चाहिए. समय के साथ बदलाव वक्त की जरुरत है. ऐसे मामलों में अदालतों को भी सामान दृष्टि ही रखनी होगी.
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