भारत के एक बड़े वर्ग, जो गांव, छोटे शहरों, नगरपालिका आदि में बसता है, ने अभी तक विधवा विवाह को पूरी तरह, दिल से स्वीकार नहीं किया है. एक स्त्री जो कम उम्र में विधवा हो जाती है उसके लिए तो फिर भी लोगों का दिल पसीज जाता है कि सारी उम्र अकेले कैसे बिताएगी पुनर्विवाह कर दिया जाए लेकिन यदि वही 30 के आसपास की उम्र पार चुकी है, बच्चे हैं तो उसके लिए उचित वर की तलाश न के बराबर मामलों में ही पूरी हो पाती है. बच्चे अगर बड़े होने लगे हों तो उनके लिए भी असंभव सा हो जाता है किसी अन्य पुरुष को अपनी मां के साथ देखना. वहीं अगर स्त्री 50 की उम्र पार कर चुकी हो तो उसके बड़े हो चुके बच्चे कतई स्वीकार नहीं कर पाते अपनी मां के साथ खड़े किसी पर-पुरुष को.
परिवार और समाज भी उस स्त्री से यही अपेक्षा करता है कि अब वह बकाया जीवन धर्म-ध्यान में बिताए. उसने 50 वर्ष जी लिए मलतब अब उसकी एक साथी के साथ जीने की सारी इच्छाएं समाप्त हो जानी चाहिए थीं. यह बात अनदेखी हो जाती है कि असल में बढ़ती उम्र ही वह दौर है जब एक साथी की सबसे अधिक ज़रूरत होती है. लेकिन इस ज़रूरत को समझने, स्वीकार कर पाने में अभी भारतीय समाज को बहुत समय लगेगा.
इसी नासमझी का नतीजा है कर्नाटक में सामने आया वह मामला जिसमें एक पुत्र ने अपनी ही मां का बलात्कार कर हत्या कर दी. वजह थी कि उसकी विधवा मां अपने जीवन में एक साथी चाहती थी, वह साथी उसे मिल भी गया था जिसके साथ वह रहना चाहती थी, जो उसके बेटे को मंज़ूर नहीं हुआ और इसलिए उसने यह कुकर्म किया. जाने हमारा समाज स्त्री को मनुष्य समझना कब शुरू करेगा, मनुष्य जिसकी अपनी कुछ इच्छाएं होती हैं.
समाज को वे स्त्रियां अधिक प्रिय होती हैं जो सिर्फ और...
भारत के एक बड़े वर्ग, जो गांव, छोटे शहरों, नगरपालिका आदि में बसता है, ने अभी तक विधवा विवाह को पूरी तरह, दिल से स्वीकार नहीं किया है. एक स्त्री जो कम उम्र में विधवा हो जाती है उसके लिए तो फिर भी लोगों का दिल पसीज जाता है कि सारी उम्र अकेले कैसे बिताएगी पुनर्विवाह कर दिया जाए लेकिन यदि वही 30 के आसपास की उम्र पार चुकी है, बच्चे हैं तो उसके लिए उचित वर की तलाश न के बराबर मामलों में ही पूरी हो पाती है. बच्चे अगर बड़े होने लगे हों तो उनके लिए भी असंभव सा हो जाता है किसी अन्य पुरुष को अपनी मां के साथ देखना. वहीं अगर स्त्री 50 की उम्र पार कर चुकी हो तो उसके बड़े हो चुके बच्चे कतई स्वीकार नहीं कर पाते अपनी मां के साथ खड़े किसी पर-पुरुष को.
परिवार और समाज भी उस स्त्री से यही अपेक्षा करता है कि अब वह बकाया जीवन धर्म-ध्यान में बिताए. उसने 50 वर्ष जी लिए मलतब अब उसकी एक साथी के साथ जीने की सारी इच्छाएं समाप्त हो जानी चाहिए थीं. यह बात अनदेखी हो जाती है कि असल में बढ़ती उम्र ही वह दौर है जब एक साथी की सबसे अधिक ज़रूरत होती है. लेकिन इस ज़रूरत को समझने, स्वीकार कर पाने में अभी भारतीय समाज को बहुत समय लगेगा.
इसी नासमझी का नतीजा है कर्नाटक में सामने आया वह मामला जिसमें एक पुत्र ने अपनी ही मां का बलात्कार कर हत्या कर दी. वजह थी कि उसकी विधवा मां अपने जीवन में एक साथी चाहती थी, वह साथी उसे मिल भी गया था जिसके साथ वह रहना चाहती थी, जो उसके बेटे को मंज़ूर नहीं हुआ और इसलिए उसने यह कुकर्म किया. जाने हमारा समाज स्त्री को मनुष्य समझना कब शुरू करेगा, मनुष्य जिसकी अपनी कुछ इच्छाएं होती हैं.
समाज को वे स्त्रियां अधिक प्रिय होती हैं जो सिर्फ और सिर्फ समर्पण के भाव में ही जीना चाहें. वे स्त्रियां जो बिना किसी विरोध के अपने अधिकारों व इच्छाओं को त्याग देती हैं, वे स्त्रियां जो पति की तरक्की में साथ देने उसके बनाए नियमों को पालते हुए, उसके द्वारा थोपी गई इच्छाओं को स्वीकारने का, उसके द्वारा दिए गए आदेशों को पालने का कुशलता से दिखावा करती हैं, वे दुनिया को सबसे ज़्यादा प्रिय होती हैं.
कहीं-न-कहीं हम स्त्रियां ख़ुद भी इसी महानता को उचित मानकर इसके साथ जीने और दूसरों को भी उसी चश्मे से देखने की ग़लती करते हैं. पुरुष को बदलने के लिए, उसे सभ्यता, संस्कार और आदर सिखाने के लिए हमें महानता का यह चोला उतारना होगा. और ऐसे कपूतों को सपूत बनाने में अहम भूमिका निभानी होगी वरना हमारे पास सिवाय अपनी दुर्गति पर रोने के और कुछ नहीं बचेगा.
ये भी पढ़ें -
'बाबा का ढाबा' वाले कांता प्रसाद पर एक पौराणिक कहानी फिट बैठती है
फ्रांस मामले में मुसलमानों को जैन समाज से प्रेरणा लेनी की जरूरत है
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.