कुछ जगहें ऐसी होती हैं जहां से आप गुज़र कर भी गुज़र नहीं पाते. आप अपना एक हिस्सा वहीं छोड़ आते हैं, सदा के लिए, बर्फ़ के किसी फ़ाहे के नीचे. तो कभी नीले आसमान के साये में उग आए लम्बे मनमौजी देवदार के दरख़्तों में. गुलमर्ग (Gulmarg), बिलकुल एक वैसी ही जगह है. जहां अब मैं नहीं हूं लेकिन वो अब भी मेरे साथ चल रहा है. उसका झक नीला आसमान, दूर-दूर तक फैली हिमालय (Himalaya) की बर्फ़ से ढंकी चोटियां, देवदार के ऊंचे-ऊंचे पेड़ और प्यार की ख़ुशबू लिए ठंडी हवाएं सब इस भीड़ में मेरे साथ सफ़र कर रहा है. नाम ही इतना प्यारा है कि क्या कहा जाए गुलमर्ग यानी Meadow of Flowers. हां, दिसंबर की सर्दियों में फूल नहीं दिखे. बदले फूलों के, बर्फ़ ही बर्फ़ दिखी. जैसे किसी ने सफ़ेद रेशम बिछा रखी हो या किसी रंगरेज ने रंगने से पहले अपनी सफ़ेद रुई को सूखने के लिए रख छोड़ा हो. श्रीनगर (Srinagar) से 45 किलोमीटर दूर है गुलमर्ग (Gulmarg). मेरी यात्रा का दूसरा पड़ाव था ये छोटा सा शहर. जिसे अंग्रेजों ने 19 वीं शताब्दी में ढूंढा था. वैसे उसके काफ़ी पहले भेड़ चराने वाले लड़कों ने इसे ढूंढ लिया था और इसका नाम गौरी-मार्ग रखा था. लेकिन 16वीं शताब्दी में कोई सुल्तान वहां आया था. उसने गौरीमार्ग की ख़ूबसूरती देखी. जहां तक उसकी नज़र गयी उसे सिर्फ़ फूल ही फूल दिखें और तब उसने उस जगह का नाम गौरीमार्ग से बदल कर गुलमर्ग कर दिया. बाद में अंग्रेज़ो ने इसे गर्मी से बचने के लिए अपनी आरामगाह के रूप में चुना. अंग्रेज, क्रिसमस के दिनों में भी यहां स्कीइंग करने आते थे.
जब मैं वहां थी तब फिर से क्रिसमस था. मुझे भी स्कीइंग करनी थी. मुझे वो गुलमर्ग देखना था जिसे अंग्रेजों ने देखा था. मैं श्रीनगर से...
कुछ जगहें ऐसी होती हैं जहां से आप गुज़र कर भी गुज़र नहीं पाते. आप अपना एक हिस्सा वहीं छोड़ आते हैं, सदा के लिए, बर्फ़ के किसी फ़ाहे के नीचे. तो कभी नीले आसमान के साये में उग आए लम्बे मनमौजी देवदार के दरख़्तों में. गुलमर्ग (Gulmarg), बिलकुल एक वैसी ही जगह है. जहां अब मैं नहीं हूं लेकिन वो अब भी मेरे साथ चल रहा है. उसका झक नीला आसमान, दूर-दूर तक फैली हिमालय (Himalaya) की बर्फ़ से ढंकी चोटियां, देवदार के ऊंचे-ऊंचे पेड़ और प्यार की ख़ुशबू लिए ठंडी हवाएं सब इस भीड़ में मेरे साथ सफ़र कर रहा है. नाम ही इतना प्यारा है कि क्या कहा जाए गुलमर्ग यानी Meadow of Flowers. हां, दिसंबर की सर्दियों में फूल नहीं दिखे. बदले फूलों के, बर्फ़ ही बर्फ़ दिखी. जैसे किसी ने सफ़ेद रेशम बिछा रखी हो या किसी रंगरेज ने रंगने से पहले अपनी सफ़ेद रुई को सूखने के लिए रख छोड़ा हो. श्रीनगर (Srinagar) से 45 किलोमीटर दूर है गुलमर्ग (Gulmarg). मेरी यात्रा का दूसरा पड़ाव था ये छोटा सा शहर. जिसे अंग्रेजों ने 19 वीं शताब्दी में ढूंढा था. वैसे उसके काफ़ी पहले भेड़ चराने वाले लड़कों ने इसे ढूंढ लिया था और इसका नाम गौरी-मार्ग रखा था. लेकिन 16वीं शताब्दी में कोई सुल्तान वहां आया था. उसने गौरीमार्ग की ख़ूबसूरती देखी. जहां तक उसकी नज़र गयी उसे सिर्फ़ फूल ही फूल दिखें और तब उसने उस जगह का नाम गौरीमार्ग से बदल कर गुलमर्ग कर दिया. बाद में अंग्रेज़ो ने इसे गर्मी से बचने के लिए अपनी आरामगाह के रूप में चुना. अंग्रेज, क्रिसमस के दिनों में भी यहां स्कीइंग करने आते थे.
जब मैं वहां थी तब फिर से क्रिसमस था. मुझे भी स्कीइंग करनी थी. मुझे वो गुलमर्ग देखना था जिसे अंग्रेजों ने देखा था. मैं श्रीनगर से अपने कुछ साथियों के साथ एक प्राइवेट कार से गुलमर्ग के लिए सुबह ही निकल गयी. रास्ते में ड्राइवर ने बताया कि गुलमर्ग जहां से शुरू होता है, हम सिर्फ़ वहीं तक जाएंगे. उसके आगे जाने के लिए वहां से बसें चलती हैं. छोटी बसें जो गुलमर्ग के ड्राइवर ही चलाते हैं. श्रीनगर की प्राइवेट कार कभी-कभी आगे जाने के लिए अलाऊ नहीं होती. साथ ही साथ उसने ये भी बताया कि अगर बहुत बर्फ़ रात को गिरी हो तो रास्ता भी बंद हो सकता है या मौसम अभी बिगड़ जाए तो भी नहीं जा सकते.
मैं मन ही मन प्रार्थना कर रही थी कि कुछ भी गड़बड़ न हो. कैसे भी करके मैं पहुंच जाऊं अपने गुलमर्ग में. दिन के सवा ग्यारह बजे हम गुलमर्ग शहर में पहुंचे.वहां से आगे जाने के लिए लोकल बस मिली जिसमें हमें बस ड्राइवर के रूप में सुहेल मिला. कश्मीर में दिखे सबसे ख़ूबसूरत चेहरों में से एक चेहरा था उसका. पता नहीं कुछ लोग होते हैं न, जिनको पहली बार देखो और वो अपने से लगते हैं सुहेल कुछ-कुछ वैसा ही था.
बस में उसकी बग़ल वाली सीट पर बैठते ही उसने पूछा था कहां से आयीं हैं? मुंबई, जवाब था मेरा.'गुलमर्ग का मौसम और मुंबई का फ़ैशन कब बदल जाए पता नहीं चलता मेम साहेब.' बोल कर उसने सिगरेट सुलगा लिया. बस अब कश्मीर घाटी से होते हुए गुलमर्ग के अंदर बढ़ने लगी. वो बस हमें उस जगह ले जा रही थी जहां से हमें केबल-कार राइड करनी थी. केबल कार से ही हम दुनिया के सबसे बेहतरीन स्कीइंग-रिसोर्ट में पहुंचने वाले थे.
जैसे-जैसे बस आगे बढ़ रही थी हमें घुमावदार रोड के दोनों छोरों पर बर्फ़ का ढेर और बर्फ़ से ढंके चीड़ -देवदार के पेड़ दिखने लगे. इतनी ख़ूबसूरती मैंने ज़िंदगी में पहले कभी नहीं देखी थी. ईश्वर से बड़ा कलाकार कोई नहीं है ये उस पल महसूस हुआ. सही कहूं तो वो रास्ता मुझे वॉन ग़ाग की पेंटिंग का कैनवास लग रहा था. मैं नज़रों में सब कुछ भर लेना चाहती थी. इस क़दर उस ख़ूबसूरती में मैं खो गयी थी कि फ़ोटो तक क्लिक करने की सुध नहीं रही.
'मैडम हमारा गुलमर्ग कैसा लग रहा?' सुहेल की आवाज़ जब कानों में पड़ी तो याद आया कि फ़ोटो क्लिक कर लूं. थोड़ी ख़ूबसूरती क़ैद करके रख लूं अपने लिए. मैं बस में से फ़ोटो लेने लगी तो सुहेल ने एक जगह बस रोकी और बताया कि ये देखो ये है कश्मीर-वैली. जहां तक आंखें देख पर रही थी वहां तक सिर्फ़ और सिर्फ़ सूरज की रौशनी से नहाई हुई हिमालय पर्वत की चोटियां दिख रहीं थी. सफ़ेद नहीं सुनहरी. मानों किसी चित्रकार ने सुनहरे रंग वाला ग्लिटर उड़ेल दिया हो.
कुछ फ़ोटो क्लिक करके लौटने के बाद सुहेल से बातें होनी शुरू हो गयी. मैंने उससे पूछा कि कितने साल से बस चला रहे हो? जवाब आया सात साल. और पढ़ाई कितनी की है? आठवीं जमात. आगे क्यों नहीं पढ़ा? इस सवाल को सुन कर वो चुप हो गया. बस भी डेस्टिनेशन पर पहुंच चुकी थी. हम बस से निकल कर केबल कार वाली जगह की तरफ़ बढ़ने लगे. उस दौरान कई लोग जो स्लेज ख़ुद खींचते हैं वो भाड़े के लिए आ कर बात करने लगे. मुझे चल कर वहां तक जाना था सो मना कर दिया मगर मना करते हुए उनकी निराश शक्ल को देख कर बुरा भी लगा.
साथ आए दोस्तों में से एक दोस्त ने फिर स्लेज के लिए हां कर दिया. अब ऊमर जो स्लेज खींच रहा था वो भी हमारे साथ हो गया. उसका भी वही सवाल था कि,'हमारा कश्मीर आपको कैसा लगा?' नपा सा जवाब दिया हमने अच्छा. उस वक़्त धूप तो निकली थी मगर टेम्प्रेचर माइंनस सात था. बोलते हुए जान निकल रही थी मगर ऊमर को बातें करनी थीं. फिर उसने पूछा कि, 'और आपको यहां कोई दिक्कत तो नहीं हो रही न?'
'नहीं.' 'वो जो खबरों में हमारे लिए दिखाते हैं न हम वैसे नहीं हैं. हमारे लिए ट्यूरिसट ख़ुदा है. इस साल सब बर्बाद हो गया. चार अगस्त के बाद कोई यहां नहीं आया. इंटरनेट नहीं है. ये देखो छोटा फ़ोन यूज़ कर रहें. बड़ा फ़ोन घर पर रखा हुआ है. कोई हमारे लिए नहीं सोचता. हम पत्थरबाज नहीं है. स्लेज खींच कर हमारी रोज़ी चलती है. अब यहां कोई घूमने ही नहीं आएगा तो बताओ हमारी ज़िंदगी कैसे चलेगी?'
एक सांस में इतना सब बोल कर ऊमर चुप हो गया था. पता नहीं इस जन्नत में हो कर भी मन उदासी से भरने लगा. मुझे फिर वही बात याद आई कि ग़रीब चाहे बिहार में हो या कश्मीर में उनके लिए कोई नहीं सोचता. सरकार को सिर्फ़ वोट की पड़ी है. उसे अनुच्छेद 370 को हटा कर सिर्फ़ वाह-वाही लूटनी थी और वो ये बख़ूबी कर रहें. बदले उस वाह-वाही के यहां गुलमर्ग में लोगों के घरों में चूल्हे नहीं जल पा रहे तो क्या?
मूड थोड़ा और ख़राब होता इसके पहले केबल कार में बैठ गयी थी. धीरे-धीरे ही सही गुलमर्ग फिर से अपना जादू दिखाने लगा. मैं सब कुछ एक बार फिर से भूलने लगी. स्वीटज़रलैंड और यूरोप क्या होगा मेरे गुलमर्ग के सामने. स्वर्ग नहीं देखा है मगर स्वर्ग अगर सच में होगा कहीं तो गुलमर्ग सा ही हसीन होगा. कुछ जादू सा होने लगा था. मैं हक़ीक़त से दूर कहीं और जा चुकी थी. किसी और दुनिया में किसी और के साथ जो वहां नहीं हो कर भी वहीं था.
केबल कार से उतरने के बाद हम थे और बर्फ़ थी और सूरज की गर्म किरणों से नहाया हुआ हिमालय. मैं बस चुप हो कर वहां अपने होने को महसूस करना चाहती थी. स्नो-राइड करने वाली बाइक भाड़े पर मिल रही थी. जो आपको गुलमर्ग के अलग अलग पॉइंट्स पर ले जाती है. मुझे जाना नहीं था मगर फिर ऊमर की बात याद आयी. ये इन बाइकरों की रोज़ी-रोटी का सवाल था. और फिर आपको ज़िंदगी हर दिन ये मौक़ा थोड़े ही देती है कि आप बर्फ़ में बाइक चलाओ.
कोई आधे घंटे तक बर्फ़ में बाइकिंग करने के बाद जब वापिस लौटी तो अपना हाथ, अपना पैर कुछ भी महसूस नहीं हो रहा था. सब कुछ सुन्न पड़ चुका था. केबल कार तक कैसे पहुंची और वहां से बस तक वो भी ब्लैंक सा है. बस में जैसे ही लौटी सुहेल ने अपनी सिगरी मुझे हाथ सेंकने के लिए ऑफ़र की. ये सिगरी वो होती है जिसमें कोयला जला कर कश्मीरी लोग अपने फिरन के नीचे ले कर चलते हैं. ख़ुद को गर्म रखने के लिए. मुझे सोहेल पर अचानक ही प्यार आया. मुझे लगा कितने प्यारे होते हैं ये कश्मीरी लड़के.
'वो आपने तब पूछा था न कि मैंने आगे पढ़ाई क्यों नहीं की? सुहेल ने जब ये कहा तो मुझे उससे हो रही बात का वो सिरा याद आया. मैंने कहा,' हां बताओ क्यों नहीं की आगे की पढ़ाई?
आपको पता है यहां हर चार-पांच महीने पर स्कूल बंद हो जाते हैं. खुलते बंद होते रहते हैं तो मास्टर भी पढ़ाने नहीं आते. ऊपर से मेरे अब्बू कपड़े सिलते हैं. घर का खर्च नहीं चल पाता. जो पढ़ भी लें तो नौकरी नहीं मिलती. तो पढ़ कर क्या फ़ायदा? पढ़ कर भी तो ड्राइवर ही बनना है. या स्लेज खींचनी है. कौन सा सरकार नौकरी दे देगी?
मैं उसे पढ़ने से क्या होता है ये समझाना चाह रही थी. मैं उसे कहना चाह रही थी कि पढ़ लोगे तो अपने अधिकार को समझोगे. कोई तुम्हारा फ़ायदा नहीं उठा पाएगा. मगर फिर ये सोच कर चुप हो गयी कि जब आपको आपके अधिकार का पता हो और आप अपने अधिकारों का हनन होते देख रहे हैं तो तकलीफ़ और बढ़ जाती है. इग्नोरेंस इज़ ब्लिस!
मैंने सिर्फ़ मुस्कुरा दिया. आंखें बाहर की ख़ूबसूरती देख रही थी और मन में ग़रीबी और बेरोज़गारी का अंधेरा उतरने लगा था. सुहेल को देखा मैंने चोर नज़रों से, उसके चेहरे में मुझे हिंदुस्तान के हर निराश युवा का चेहरा दिखा. वो मेरी तरफ़ देख कर हल्का सा मुस्कुराया और बस में गाना प्ले कर दिया.
- मेरा मुल्क, मेरा देश, मेरा ये वतन. शांति का, उन्नति का, प्यार का चमन. इसके वास्ते निसार है मेरा तन, मेरा मन!
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