लालू यादव को AIMS जाकर इलाज़ करवाने की अनुमति मिल गयी. वैसे भी बिहार में जो अस्पताल हैं वहां जाकर ठीक होने की कितनी संभावना है ये उनसे बेहतर कौन जानता होगा? आखिर उन्होंने अपने शासनकाल में इन अस्पतालों को बद से बदतर होते हुए देखा ही होगा. वैसे आनी तो उनको शर्म चाहिए मगर वो आती कहां हैं इन राजनेताओं को.
खैर, इस खबर को सुनने के बाद दिमाग में एक बार फिर से बिहार के अस्पतालों की छवि ताज़ा हो गयी. अभी पिछले दिनों ही परिवार-नियोजन के लिए बध्याकरण करवाने के घण्टों बाद 'सोना देवी' नाम की महिला फर्श पर घण्टों लेटी रही. उसे ऑपरेशन के चार घण्टे बाद तक भी बिस्तर नहीं मिला था. जब उसने पानी मांगा तो नर्स ने यह बोल कर मना कर दिया कि ऑपरेशन के तुरंत बाद पानी नहीं दिया जाता. जबकि बाद में पता चलता है कि अस्पताल में पानी की सप्लाई नहीं आती. अस्पताल के कर्मचारी कुछ बाल्टियों में पानी भर कर लाते हैं और उससे जितने मरीज़ को पानी मिल जाये वही काफी है.
अस्पतालों में पानी की सप्लाई ही नहीं
यह घटना बिहार के नवादा जिले की है लेकिन दुःख की बात यह है कि सिर्फ ये एकलौती घटना नहीं है. आए दिन इलाज के अभाव में मरीजों के दम तोड़ने की खबर तो, जन्म के समय ऑक्सीजन सिलेंडर के आभाव में नवजात शिशु की मौत की घटना सामने आती ही रहती है. तो पिछले सप्ताह बिजली नहीं रहने की स्तिथि में एक ऑपरेशन महज़ टॉर्च की रौशनी में किया गया. लगभग हर दिन कहीं न कहीं, किसी न किसी अस्पताल में ऐसी घटनाएं घट रही होती हैं. हां ये अलग बात है कि इनमें से कुछ ही खबरों में आ पाती हैं, बाकी बस उन अस्पतालों की दीवारों के बीच दम तोड़ लेती हैं.
मरीज बन गए हैं बिहार के अस्पताल
वैसे बिहार सरकार ने 500 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र खोले हुए हैं जिनका उद्देश्य ग्रामीण इलाकों में स्वाथ्य सुविधाएं प्रदान करना है. मगर स्वाथ्य सुविधाएं कहां से मिलेंगी जब तक पर्याप्त संसाधन और डॉक्टर नहीं होंगे?
आंकड़ों की मानें तो राज्य में लगभग 28,000 मरीजों पर एक डॉक्टर है जबकि वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन (WHO) द्वारा तय किये गए मानक के आधार पर एक हज़ार मरीज़ पर एक डॉक्टर होना चाहिए. इसी से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं यहां की स्वास्थ्य सुविधाओं का. लोगों के पास जान बचाने के लिए निजी अस्पतालों में जाने के अलावा कोई रास्ता बचा है क्या?
बिहार में 28,000 मरीजों पर एक डॉक्टर है
वैसे 2015 के स्वास्थ्य मंत्रालय की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि बिहार में सबसे ज्यादा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र की कमी है और जो स्वाथ्य केंद्र हैं उनमें सुविधाएं न के बराबर हैं. जहां डॉक्टर और मरीज़ों के अनुपात से लेकर स्वाथ्य बीमा तक का यही हाल है. बिहार सरकार का कहना है कि ग्रामीण अस्पतालों में भर्ती सभी मरीज प्रत्येक दिन तीन-चार बार भोजन के हकदार हैं. लेकिन अधिकतर अस्पतालों में भर्ती मरीज़ों को एक बार भी भोजन नहीं मिलता है. इनके परिवार वाले इनके लिए भोजन लाते हैं.
इसके अलावा कितने ही अस्पतालों में शौचालय की सुविधा नहीं है और जो हैं वो इस काबिल नहीं है कि उनका उपयोग किया जा सके. कुछ ऐसा ही हाल दवाइयों को लेकर है. अस्पताल की तरफ से मुफ्त में कोई भी दवाई नहीं दी जाती है.
मूलभूत सुविधाएं भी नहीं हैं अस्पतालों में
इससे ज्यादा शर्मिंदगी की बात क्या होगी कि जहां राज्य के नेताओं को छींक भी आ जाये तो वो AIMS का रुख कर लेते हैं, वहीं वो जनता जो उन्हें वोट देकर इन कुर्सियों पर बिठाती है वो घुट-घुट कर इन अस्पतालों में दम तोड़ने के लिए बेबस हैं और दुःख की बात यह है कि इन मुद्दों पर सब खामोश रहते हैं. इन गरीबों की मौत पर तो कोई मातम भी नहीं मनाता है. खैर, देश में और भी बड़े मुद्दे हैं तो इन विषयों पर कौन सोचे!
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