हर नफस उम्रे गुजि़श्ता की है मय्यत फ़ानी,
जिंदगी नाम है मर-मर के जिए जाने का
फ़ानी बदायूंनी की मशहूर लंबी ग़ज़ल का यह आखिरी शेर (यानी मक्ता) है. बीतती जिंदगी की कब्र पर हमारा हर नया पल खड़ा है. जिन लम्हों को हम मर रहे होते हैं, उसी का तो नाम जिंदगी है. फ़ानी साहब, ज़ाहिर है, बदायूं के थे, जो बरेली से दक्खिन लगा ही हुआ है. वे बरेली में पढ़े भी और वकालत भी की. मीर और कुछ दूसरे शायरों की तरह उन्हें भी दर्द और गम का शायर कहा गया है. दर्द, बदायूं और फ़ानी को बार-बार बरेली तक खींचकर लाने का सबब? और कुछ नहीं, हड्डियों के एक डॉक्टर का लिखा पहला-पहला नाटक है, जिसकी रग-रग में यह शेर पैबस्त दिखता है.
डॉ. ब्रजेश्वर सिंह (50) बरेली के एक ऑर्थोपेडिक सर्जन हैं. दुनिया भर की चीज़ें न सिर्फ पढ़ते हैं, बल्कि जब-तब दुनिया के चक्कर भी मारते रहते हैं. शहर के सिविल लाइंस में प्रभा टाकीज़ के बगल में उनका अपना अस्पताल है सिद्धि विनायक नाम से. पत्नी गरिमा भी वहीं गाइनोकॉलोजिस्ट हैं. लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई के दौरान अपने किसी दोस्त के साथ उस वक्त की मशहूर कथाकार गौरापंत शिवानी के यहां जाने का मौका मिला. शिवानी की बातों में उन्हें इतना रस आने लगा कि वे उनके उपन्यास पढ़ते और उस पर बात करने उनके पास जा पहुंचते. लखनऊ में ही उन्हें रवींद्रालय में नाटक भी देखने का चस्का लग गया. बीच में एक अरसा पढ़ाई पर ही फोकस करने और कई जगह ट्रेनिंग/प्रशिक्षण के बाद बरेली लौटने पर साहित्य और नाटक ने धीरे-धीरे उनका ध्यान फिर अपनी ओर खींचा. रात भर सर्जरी कर अलस्सुबह कार में पीछे सोते हुए वे नाटक देखने दिल्ली निकल जाते. कभी-कभी वहीं से उडक़र मुंबई, पुणे और बेंगलुरु तक.
हर नफस उम्रे गुजि़श्ता की है मय्यत फ़ानी,
जिंदगी नाम है मर-मर के जिए जाने का
फ़ानी बदायूंनी की मशहूर लंबी ग़ज़ल का यह आखिरी शेर (यानी मक्ता) है. बीतती जिंदगी की कब्र पर हमारा हर नया पल खड़ा है. जिन लम्हों को हम मर रहे होते हैं, उसी का तो नाम जिंदगी है. फ़ानी साहब, ज़ाहिर है, बदायूं के थे, जो बरेली से दक्खिन लगा ही हुआ है. वे बरेली में पढ़े भी और वकालत भी की. मीर और कुछ दूसरे शायरों की तरह उन्हें भी दर्द और गम का शायर कहा गया है. दर्द, बदायूं और फ़ानी को बार-बार बरेली तक खींचकर लाने का सबब? और कुछ नहीं, हड्डियों के एक डॉक्टर का लिखा पहला-पहला नाटक है, जिसकी रग-रग में यह शेर पैबस्त दिखता है.
डॉ. ब्रजेश्वर सिंह (50) बरेली के एक ऑर्थोपेडिक सर्जन हैं. दुनिया भर की चीज़ें न सिर्फ पढ़ते हैं, बल्कि जब-तब दुनिया के चक्कर भी मारते रहते हैं. शहर के सिविल लाइंस में प्रभा टाकीज़ के बगल में उनका अपना अस्पताल है सिद्धि विनायक नाम से. पत्नी गरिमा भी वहीं गाइनोकॉलोजिस्ट हैं. लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई के दौरान अपने किसी दोस्त के साथ उस वक्त की मशहूर कथाकार गौरापंत शिवानी के यहां जाने का मौका मिला. शिवानी की बातों में उन्हें इतना रस आने लगा कि वे उनके उपन्यास पढ़ते और उस पर बात करने उनके पास जा पहुंचते. लखनऊ में ही उन्हें रवींद्रालय में नाटक भी देखने का चस्का लग गया. बीच में एक अरसा पढ़ाई पर ही फोकस करने और कई जगह ट्रेनिंग/प्रशिक्षण के बाद बरेली लौटने पर साहित्य और नाटक ने धीरे-धीरे उनका ध्यान फिर अपनी ओर खींचा. रात भर सर्जरी कर अलस्सुबह कार में पीछे सोते हुए वे नाटक देखने दिल्ली निकल जाते. कभी-कभी वहीं से उडक़र मुंबई, पुणे और बेंगलुरु तक.
क्या ये नाटक बरेली में नहीं हो सकते? बरेली के लोगों को ये नाटक देखने को आखिर क्यों नहीं मिल सकते? पर बरेली में नाटक का ऐसा ऑडिटोरियम कहां मिलेगा? इस तरह के सवालों का एक सिलसिला भी चल पड़ा उनके जेहन में. फौरन उन्होंने उत्साही और भरोसे के साथियों की टीम बनाकर शहर के एक ऑडिटोरियम में थिएटर फेस्टिवल शुरू करवा दिया. दर्शक टूट पड़े. संभाल पाना मुश्किल हो गया. देश भर के नामी ग्रुप आ पहुंचे बरेली में. पर उनकी एक ही शिकायत: ‘प्ले के लिए ऑडि (टोरियम) ठीक नहीं है.’ सिंह ने अस्पताल में ली जाने वाली फीस में से ही एक हिस्सा अलग मद में निकालना शुरू कर दिया. कैंट रोड पर ज़मीन खरीदी और दो साल के भीतर अपना विंडरमेयर कल्चरल सेंटर world class black box auditorium के साथ तैयार था. मशहूर रंगकर्मी रंजीत कपूर को बुलाकर उन्होंने शहर से कुछ प्रतिभाएं छांटीं और डेढ़ दर्जन कलाकारों का रंग विनायक थिएटर ग्रुप भी खड़ा हो गया. अब जनवरी में 8-10 दिन का सालाना विंडरमेयर थिएटर फेस्ट तो होता ही है, बाकी महीनों में रंग विनायक अपने नाटक कर शहर के लोगों में साहित्य और कलाओं के प्रति संवेदनाएं जगाता है.
लेकिन संवेदनाओं पर बात करने के लिए लौटते हैं डॉ. सिंह और दर्द-ओ-ग़म पर. आप क्रिकेट देखते हों तो यूं समझें कि उनका चेहरा थोड़ा-थोड़ा पिछली पीढ़ी के ऑस्ट्रेलियाई पेसर मिशेल जॉनसन से मेल खाता है. सर्जरी और मेडिसिन से इतर किसी मुद्दे पर बात करें तो उनमें आपको एक नितांत मासूमियत और भोलापन नजर आएगा. उनके शॉर्प ऑब्ज़र्वेशन और संवेदनाओं की गहराई का आप कतई अंदाज़ न लगा पाएंगे. इस भ्रम को एक हद तक ही सही, पर एकाएक तोड़ा 2014 के अंत में आई उनकी किताब इन ऐंड आउट ऑफ थिएटर्स ने. भारी कष्ट से गुज़रते नितांत जीवट वाले अपने कुछ मरीज़ों के किस्से उन्होंने उसमें पिरोए थे: ऑब्ज़र्वेशन और संवेदनाएं स्वेटर के फंदों की तरह गुंथी-बुनी. उन्हें पढ़ने के बाद मनुष्य की संघर्ष शक्ति में बरबस ही पाठक का भरोसा बनता था. मनुष्यता की पूरी गरिमा को स्थापित करते हुए.
लेकिन 2014 में ही एक और सर्जन से उनकी वर्चुअल मुलाकात ने जैसे उन्हें भीतर तक बदल डाला. अमेरिका में रहने वाले एक दोस्त के कहने पर उन्होंने वहां के एक न्यूरो सर्जन डॉ. पॉल सुधीर कलानिधि की फेसबुक देखी और उनके बारे में और भी चीजें खोज-खंगालकर पढ़ीं. वे जितना खोदते, उतना ही धंसते जाते. पॉल ने स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी से साहित्य में स्नातक करने के बाद मेडिकल की पढ़ाई की थी. लकवाग्रस्त लोग रोबोट के जरिए पानी या वाइन का ग्लास खुद उठा सकें, इस आशय का उनका रिसर्च स्टैनफोर्ड मेडिसिन जर्नल में छपा तो चारों ओर हलचल मच गई. उनके काम को देखते हुए स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी ने उनके लिए न्यूरोसर्जन न्यूरोसाइंटिस्ट की पीठ सृजित करने की पेशकश कर दी थी, लेकिन पॉल को तब तक अपने फेफड़ों में एडवांस स्टेज के कैंसर का पता चला.
मार्च 2015 में पॉल दुनिया से विदा हो गए. लेकिन साहित्य में गहरे रचे-बसे रहे पॉल ह्वेन ब्रेथ बिकम्स एअर के रूप में एक ऐसी किताब छोड़ गए, जिसमें वे अपनी मृत्यु के बारे में जान जाने के बाद बचे जीवन की योजना के बारे में बात करते हैं. इसी में वे बताते हैं कि किस तरह दक्षिण भारत के रहवासी उनके ईसाई पिता और हिंदू मां दोनों के घरवालों को शादी मंजूर न होने के चलते अमेरिका चले आए. यह भी कि उनकी नानी हमेशा उनको उनके हिंदू पक्ष वाले नाम सुधीर से ही बुलाती थीं.
अपने जीवन और सर्जरी के काम को गहरी तटस्थता से ऑब्ज़र्व करते, लिखते पॉल को देखकर सिंह बुरी तरह उनके इश्क में मुब्तिला हो चुके थे. इसी बीच एक दिन पॉल के फेसबुक पेज पर उनके एक परिजन ने उनके न रहने की पोस्ट लगाई तो सिंह का तो जैसे कलेजा ही मुंह को आ गया. पॉल नौ महीने की बेटी केडी के रूप में संतान का सुख लेकर गए थे, लेकिन संतान के लिए स्पर्म और एग के 15 जोड़े निकाले जाने पर उन्होंने सवाल किया था कि एक जान के लिए 14 जीव मार दिए जाएंगे?
डॉ. ब्रजेश्वर अपने अस्पताल की पहली मंजि़ल पर रात के एक बजे पॉल का किस्सा सुना रहे हैं. 3-4 घंटे पहले ही पॉल पर लिखे उनके नाटक पलादिन का प्रीमियर हुआ है. ‘‘महीनों क्या, कई साल से साथ-साथ लिए हुए चल रहा पॉल को. आज बहुत रिलीफ मिल रही है...’’ ट्रॉमा के एक मरीज़ का वे घुटने के नीचे रॉड डालते हुए ऑपरेशन कर चुके हैं और दूसरा कर रहे हैं, शाहजहांपुर के किसी डॉक्टर का बिगाड़ा हुआ फ्रैक्चर का केस. दाहिनी जांघ में फीमर तक मांसपेशियां काटनी पड़ी हैं. मणिपॉल में एमबीबीएस के दूसरे वर्ष के छात्र और जाड़े की छुट्टिïयों में घर आए बेटे अन्नू के सवालों का भी बीच-बीच वे जवाब देते चलते हैं.
पृष्ठभूमि में रामरक्षा स्तोत्र बज रहा है. एक सहायक कॉटन के सोख्ते से लगातार खून पोंछ रहा है. दसियों बार उन्हें ओटी में ऑपरेट करते देखता रहा हूं पर यह केस देखा नहीं जा रहा. मैं घबराहट रोकते, ऐप्रन पहने हुए ही बगल के चैंबर में आकर बैठ जाता हूं. थोड़ी देर बाद वे भी आ गए हैं, टीम को आगे की तैयारी के लिए कहकर. ‘‘पॉल की संवेदना देखिए भैया! जो आदिमी खुद मरने जा रहा हो, वह इस हद तक सोच रहा है कि एक जान के लिए 14 स्पर्म मार दिए जाएंगे.’’ पॉल की किताब 2016 में साल भर तक न्यूयॉर्क टाइम्स के चार्ट में बेस्ट सेलर बनी रही. उसे पुलित्ज़र के लिए भी नामित किया गया. सिंह अमूमन इसी छोटे-से चैंबर में रात के इसी वक्फे में पॉल का नाटक लिखते.
‘‘दरअसल, ऑपरेशन के वक्त डॉक्टर का दिमाग चरम सक्रियता पर होता है. मैं एक ऑपरेशन करता और दूसरा पेशेंट तैयार होने तक इधर बैठकर लॉपटॉप पर लिखता रहता.’’ पॉल की यात्रा एक सिद्धहस्त सर्जन से एक दयनीय मरीज़ बन जाने की भी यात्रा है. अब आता है सिंह के विज्ड़म और संवेदना का चरम: ‘‘एक प्रैक्टिशनर डॉक्टर रोज सैकड़ों जीते-मरते मरीजों के बीच होता है. वह physiological spiritual, moral action यानी उसे जो नैतिक लगता है, वह बाकायदा लागू करता है, जबकि साहित्य वाले लोग नैतिक सिद्धांत की बातें करते हैं. यह बात पॉल भी कहते थे. इस स्तर पर मैं पॉल से गहराई तक रिलेट करता हूं.’’ रिलेट पॉल की पत्नी लूसी भी करती हैं. 4-5 महीने पहले उन्होंने कैंसर की वजह से अपनी पत्नी खो चुके एक डॉक्टर से शादी कर ली है. पॉल पर नाटक के लिए उनका भी संदेश आया है सिंह के पास ‘‘थैंक यू.’’
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