मेरे प्रिय,
सोचा तो ये था कि आज तुम्हें आखरी ख़त लिखूंगी. बंदी के दिन ख़त्म हो जाएंगे. हम बीमारी से जीत चुके होंगे. दुनिया वापस अपने पहियों पर घूमने लगेगी. सब पहले जैसा हो जाएगा. लेकिन जो सोचते हैं वो होता कहां है. होता तो वो है जो वक़्त के नाम तय होता है. इस समय वक़्त के नाम मौतें तय हैं. मायूसी तय है. और उस मायूसी के साथ ही एक उम्मीद तय है. आज सुबह जब प्रधामंत्री जी ने बताया कि ये कैद अभी कुछ दिन के लिए और मुकर्रर की गई है तो एक अजीब सी बेचैनी मन में उठी. बेचैनी इस बात की नहीं कि मुझे उनकी बात से तकलीफ़ हुई, बल्कि बेचैनी इस बात की कि अभी बीमारी के ख़त्म होने के आसार नहीं दिख रहे. सरकारें अपनी तरफ से व्यवस्था बना रही हैं लेकिन इस संक्रामक बिमारी ने जैसे अपने ज़िद्दी कदम यहां जड़ कर लिए हैं. अब कोशिश यही करनी है कि इसकी जड़ें काटी जाएं. इसके लिए ये बंदी बढ़ाना ज़रूरी था.
ना जाने अगले दिनों में क्या होगा? क्या लोग मायूसी में ख़ुश रहना सीख लेंगे? क्या औरतों के साथ इन दिनों में बढ़े अत्याचार और नहीं बढ़ेंगे? क्या हताशा और नौकरी जाने का डर नहीं बढ़ेगा? मैं आज चाहकर भी तुमसे हाल-ए-दिल नहीं कह पा रही हूं. दिल तो चाहता है कि इस समय तुम्हारी मोहब्बत में डूब जाऊं. सारी दुनिया की उलझनों को एक झटके में तुम्हारे सीने से लगकर भुला दूं. तुम्हारे कंधे पर सर रखकर बस टकटकी लगाए उम्मीद को करीब आता देखती रहूं. लेकिन ये सब कहने या करने की इच्छा से ज्यादा प्रबल वह भय है, वह मायूसी है, वह हताशा है जो अब लोगों के मरने पर, बीमारी पर, बढ़ रही है.
अगले चंद दिनों में जाने क्या-क्या ख़बरें देखने मिलेंगी. जाने मामले बढ़ेंगे या घटेंगे. जाने ये दुनिया वापस पहले...
मेरे प्रिय,
सोचा तो ये था कि आज तुम्हें आखरी ख़त लिखूंगी. बंदी के दिन ख़त्म हो जाएंगे. हम बीमारी से जीत चुके होंगे. दुनिया वापस अपने पहियों पर घूमने लगेगी. सब पहले जैसा हो जाएगा. लेकिन जो सोचते हैं वो होता कहां है. होता तो वो है जो वक़्त के नाम तय होता है. इस समय वक़्त के नाम मौतें तय हैं. मायूसी तय है. और उस मायूसी के साथ ही एक उम्मीद तय है. आज सुबह जब प्रधामंत्री जी ने बताया कि ये कैद अभी कुछ दिन के लिए और मुकर्रर की गई है तो एक अजीब सी बेचैनी मन में उठी. बेचैनी इस बात की नहीं कि मुझे उनकी बात से तकलीफ़ हुई, बल्कि बेचैनी इस बात की कि अभी बीमारी के ख़त्म होने के आसार नहीं दिख रहे. सरकारें अपनी तरफ से व्यवस्था बना रही हैं लेकिन इस संक्रामक बिमारी ने जैसे अपने ज़िद्दी कदम यहां जड़ कर लिए हैं. अब कोशिश यही करनी है कि इसकी जड़ें काटी जाएं. इसके लिए ये बंदी बढ़ाना ज़रूरी था.
ना जाने अगले दिनों में क्या होगा? क्या लोग मायूसी में ख़ुश रहना सीख लेंगे? क्या औरतों के साथ इन दिनों में बढ़े अत्याचार और नहीं बढ़ेंगे? क्या हताशा और नौकरी जाने का डर नहीं बढ़ेगा? मैं आज चाहकर भी तुमसे हाल-ए-दिल नहीं कह पा रही हूं. दिल तो चाहता है कि इस समय तुम्हारी मोहब्बत में डूब जाऊं. सारी दुनिया की उलझनों को एक झटके में तुम्हारे सीने से लगकर भुला दूं. तुम्हारे कंधे पर सर रखकर बस टकटकी लगाए उम्मीद को करीब आता देखती रहूं. लेकिन ये सब कहने या करने की इच्छा से ज्यादा प्रबल वह भय है, वह मायूसी है, वह हताशा है जो अब लोगों के मरने पर, बीमारी पर, बढ़ रही है.
अगले चंद दिनों में जाने क्या-क्या ख़बरें देखने मिलेंगी. जाने मामले बढ़ेंगे या घटेंगे. जाने ये दुनिया वापस पहले जैसी हो पाएगी या नहीं. अब ऐसा लग रहा है मैं मशीनचालित जीवन जी रही हूं. सुबह रात की उम्मीद में होती है और रात सुबह की. आज कहां तो सब बंदी ख़त्म होने के इंतजार में थे और कहां आज मुंबई में फिर दिल्ली जैसे हालात दिखे. राजनीति करने वाले फिर खेल गए. फिर मजदूर को मोहरा बनाया गया. फिर अफवाहों ने अपना रोल अदा किया. फिर एक बहुत बड़ी भीड़ जमा है.
यह बंदी जब किसी संक्रमण के खिलाफ़ हो तो सबसे ज़रूरी है कि जो जहां है वो वहीं रुक जाए. ताकि अपने साथ संक्रमण (संभावित स्थिति में) को आगे ना बढ़ाए. सोचिए विदेशों से लाई यह बीमारी इन ग़रीबों द्वारा इनके गांव तक पहुंची तो क्या होगा? गांव के गांव समाप्त हो जाएंगे और हमें भनक तक नहीं लगेगी. उस देश में जहां आज भी गांव में मामूली सी मेडिकल फेसिलिटी नहीं है वहां इस बीमारी से बचने का इलाज इसे फ़ैलने ना देना ही है.
लेकिन नहीं, अफवाहों ने अपना काम किया और एक बार फिर लानत-मलानत का सिलसिला चल पड़ा. सरकार को कोसा जा रहा है. व्यवस्था को कोसा जा रहा है. बस उन्हें नहीं कोसा जा रहा जो इन दिनों घर पर बैठकर कम्युप्टर पर उंगलियां पीटने के, कोसने, खामी निकालने के अलावा कोई काम नहीं कर रहे. मैं बस ये जानना चाहती हूं कि कितने लोग हैं जो डर फैलाने के बजाय अपनी वॉल्स पर जानकारियां लिख रहे हैं कि क्या नियम बने, क्या सुविधाएं मिल रही हैं.
कितने लोगों ने इस समय में अपनी काम वाली, जमादार, गश्त वाले, या इसी तरह के लोगों को फ़ोन करके बताया कि आपके लिए सरकार ने ये सुविधाएं दी हैं, ये नंबर है, यहां बात करिए, यहां से मदद लीजिए. कितने लोगों ने व्हाट्सएप/फेसबुक पर चिटपुंजिया मज़ाक या अफ़वाह फ़ैलाने से पहले क्रॉसचेक किया है? कितने लोगों ने व्हाट्सएप/फेसबुक पर सही जानकारियां फैलाई हैं.
जब समंदर पर सेतु बन रहा था तो गिलहरी ने भी अपनी ज़िम्मेदारी निभाई थी. क्योंकि वह उसे अपना काम लगा था. आप इस समय देश को, लोगों को अपना समझकर अपनी कितनी ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं सब उसी पर निर्भर करता है. बाकी सरकार तो है ही अंत में जिसे कोसकर हम अपने सोशल एक्टिविस्ट वाले दम्भ को सेक सकते हैं.
अगले कुछ दिन बहुत कठिन हैं जानती हूं. मेरा क्या है मैं तो तुम्हें याद कर, ख़त लिखकर काट लूंगी और दुआ करूंगी कि सब ठीक हो, लेकिन तुम्हारे अलावा बस इतना चाहती हूं कि इस समय में लोग अपनी ज़िम्मेदारी समझें. इस समय में दोष निकालने की बजाय हर संभव सहायता दें. यही बस एक तरीका है इस जंग से जीतने का और देश को वापस ख़ुशहाल बनाने का.
तुम्हारी
प्रेमिका
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