ओडिशा से एक दिल दहला देने वाला वीडियो वायरल हुआ है, जहां एक लड़का अपनी मां की लाश को साइकिल पर बांध कर ले जाता नजर आ रहा है. लड़के की मां का देहांत हो गया था मगर चूंकि यह परिवार छोटी बिरादरी का था इसलिए कोई भी उसकी मदद को सामने आया. करपाबहल गांव की यह घटना जातिवाद की क्रूरतम कहानी बयां कर रही है.
यदि ये कहानी सच है, तो जातिवाद खत्म करने के तमाम प्रयासों पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं. ओडिशा के सुदूर गांव की ये घटना बताती है कि दिल्ली में जातिवाद और आरक्षण की सियासत कोसों दूर है जमीनी हकीकत. जातिवाद के दंश को दूर करने के लिए संविधान में करीब 70 साल पहले इंतजाम किए गए. जातिगत उत्पीड़न दूर करने के लिए समय-समय पर दंड संहिता में प्रावधान किए गए. लेकिन अपनी मां की लाश को साइकिल पर ढोता ये लड़का निशानी है उस नाकामयाबी की, जो देश के नीति निर्माताओं ने इस निचले तबके के लिए सुझाई.
ऐसी तमाम घटनाओं के बीच देश इंडिया से न्यू इंडिया की तरफ जाने के लिए बढ़ा. हम विकास की बात करने लगे. आधुनिकता की बात करने लगे. मुद्दों को जात पात से परे ले जाकर देखने की बात करने लगे. यानी नेताओं के भाषणों में हमें वो ख्वाब दिखाए गए, जिनको यदि अमली जामा पहना दिया गया तो एक ऐसा भारत निकल कर हमारे सामने आएगा जो वर्तमान कि अपेक्षा कहीं बेहतर कहीं ज्यादा सशक्त होगा.
कल्पना और वास्तविकता में फर्क है. वास्तविकता यही है कि आज भी हम अपने को छोटी जाति बड़ी जाति के बंधनों में बांधे हैं जिसके चलते हमें अपने घर की लाशों को अपने कंधे पर रखकर या फिर उन्हें अपनी साइकिल पर बांध कर इस आस में इधर उधर भटकना पड़ता है कि शायद कोई आए और हमारी मदद कर दे.
जिस लड़के का वीडियो वायरल हुआ है...
ओडिशा से एक दिल दहला देने वाला वीडियो वायरल हुआ है, जहां एक लड़का अपनी मां की लाश को साइकिल पर बांध कर ले जाता नजर आ रहा है. लड़के की मां का देहांत हो गया था मगर चूंकि यह परिवार छोटी बिरादरी का था इसलिए कोई भी उसकी मदद को सामने आया. करपाबहल गांव की यह घटना जातिवाद की क्रूरतम कहानी बयां कर रही है.
यदि ये कहानी सच है, तो जातिवाद खत्म करने के तमाम प्रयासों पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं. ओडिशा के सुदूर गांव की ये घटना बताती है कि दिल्ली में जातिवाद और आरक्षण की सियासत कोसों दूर है जमीनी हकीकत. जातिवाद के दंश को दूर करने के लिए संविधान में करीब 70 साल पहले इंतजाम किए गए. जातिगत उत्पीड़न दूर करने के लिए समय-समय पर दंड संहिता में प्रावधान किए गए. लेकिन अपनी मां की लाश को साइकिल पर ढोता ये लड़का निशानी है उस नाकामयाबी की, जो देश के नीति निर्माताओं ने इस निचले तबके के लिए सुझाई.
ऐसी तमाम घटनाओं के बीच देश इंडिया से न्यू इंडिया की तरफ जाने के लिए बढ़ा. हम विकास की बात करने लगे. आधुनिकता की बात करने लगे. मुद्दों को जात पात से परे ले जाकर देखने की बात करने लगे. यानी नेताओं के भाषणों में हमें वो ख्वाब दिखाए गए, जिनको यदि अमली जामा पहना दिया गया तो एक ऐसा भारत निकल कर हमारे सामने आएगा जो वर्तमान कि अपेक्षा कहीं बेहतर कहीं ज्यादा सशक्त होगा.
कल्पना और वास्तविकता में फर्क है. वास्तविकता यही है कि आज भी हम अपने को छोटी जाति बड़ी जाति के बंधनों में बांधे हैं जिसके चलते हमें अपने घर की लाशों को अपने कंधे पर रखकर या फिर उन्हें अपनी साइकिल पर बांध कर इस आस में इधर उधर भटकना पड़ता है कि शायद कोई आए और हमारी मदद कर दे.
जिस लड़के का वीडियो वायरल हुआ है उसका नाम सरोज बताया जा रहा है और उसकी उम्र 17 साल है.सरोज की मां जिसकी उम्र 45 साल थी उसकी मौत तब हुई जब वो पानी भरने गई और गिर गई. बात जब अंतिम संस्कार की आई तो पूरे गांव में कोई ऐसा नहीं था जो सरोज की मदद के लिए सामने आता. वजह सरोज की जाति थी.
सरोज छोटी जाति से था. गांव वालों के इस रुख से सरोज आहत तो जरूर हुआ मगर उसने हार नहीं मानी. उसने मां की लाश को साइकिल से बांधा और उसे लेकर करीब 5 किलोमीटर तक पैदल यात्रा की और उसे लेकर जंगल गया जहां उसने अपनी मां का अंतिम संस्कार किया है. 17 साल के सरोज की मां मर चुकी है. सरोज अकेले ही दम पर उसका अंतिम संस्कार कर चुका है. मगर जो सवाल हमारे सामने खड़ा हो रहा है वो ये कि आखिर हम किस दिशा में जा रहे हैं? क्या हम जात पात के बंधनों में हम इस हद तक जकड़े हैं कि हमें इस बात का ख्याल ही नहीं है कि मानवता भी कोई चीज है.
जो सुलूक सरोज के साथ हुआ है. उसने कहीं न कहीं हमें आईना दिखाया है और बताया है कि अभी भी हमें विकासशील से विकसित बनने में एक लम्बा वक़्त लगेगा. इंडिया से न्यू इंडिया की तरफ जा रहे हम लोगों का भविष्य क्या होगा इसपर कुछ कहना अभी जल्दबाजी है. मगर सरोज के रूप में जो घटना ओडिशा में घटित हुई उसने हमें साफ बता दिया है कि हम इंसान नहीं बल्कि वो जीव हैं जिनमें न इंसानियत है और न ही किसी की मदद करने का जज्बा.
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