भारतीय पुरुष कानूनी तौर पर अपनी पत्नियों का बलात्कार कर सकते हैं. शादी भारत में बलात्कार का लाइसेंस है. हमारे देश में शादी के बाद 'नही' शब्द का मतलब नही रह जाता है. भारत में सारे रेप बलात्कार नहीं होते हैं. चलिए इसे इस तरह से कहते हैं- अगर कोई पुरुष अपनी पत्नी से बलात्कार करता है, तो भारत के बलात्कार कानून उस पर लागू नहीं होते हैं.
भारतीय दंड संहिता की धारा 375 बलात्कार को 'एक महिला के साथ बिना सहमति के संभोग' के रूप में परिभाषित करती है. हालांकि, अगर पति अपनी पत्नी के साथ उसकी सहमति के बिना यह करता है और उसकी पत्नी 15 साल से ज्यादा उम्र की है, तो पति को किसी भी तरह की दंडात्मक कार्रवाई से छूट मिलती है. सुप्रीम कोर्ट ने 15 साल की इस आयुसीमा को बढ़ाकर 18 साल कर दिया था. भारत में कानून के तहत शादी का मतलब बदली न जा सकने वाली निहित सहमति है.
छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट का एक हालिया फैसला जिसे कई लोगों ने नृशंस पाया, चौंकाने वाला नहीं होना चाहिए. जब हाई कोर्ट ने अपनी पत्नी के साथ बलात्कार के आरोपी एक व्यक्ति को इस फैसले के साथ मंजूरी दे दी कि एक पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ जबरन सेक्स करना बलात्कार नहीं है. यहां तक कि अगर यह बलपूर्वक या उसकी इच्छा के खिलाफ है. आखिरकार, छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के विद्वान न्यायाधीश एनके चंद्रवंशी केवल भारत के कानून का हवाला दे रहे थे.
भारत में हाई कोर्ट आश्चर्यजनक रूप से वैवाहिक बलात्कार (marital rape) की वैधता और परिभाषा पर अक्सर अलग-अलग राय रखते हैं. बीते महीने केरल हाई कोर्ट ने फैसला सुनाया कि वैवाहिक बलात्कार, हालांकि आईपीसी के तहत ये दंडनीय नही है, फिर भी इसे क्रूरता के रूप में तलाक के लिए आधार माना जा सकता है. केरल हाई कोर्ट ने कहा, ''पत्नी के शरीर को पति होने के कारण अपना समझना और उसकी इच्छा के विरुद्ध यौन संबंध बनाना वैवाहिक बलात्कार के अलावा और कुछ नहीं है. उसकी शारीरिक और मानसिक अखंडता के लिए सम्मान के अधिकार में शारीरिक अखंडता शामिल है. और, किसी भी तरह का अनादर या उल्लंघन शारीरिक...
भारतीय पुरुष कानूनी तौर पर अपनी पत्नियों का बलात्कार कर सकते हैं. शादी भारत में बलात्कार का लाइसेंस है. हमारे देश में शादी के बाद 'नही' शब्द का मतलब नही रह जाता है. भारत में सारे रेप बलात्कार नहीं होते हैं. चलिए इसे इस तरह से कहते हैं- अगर कोई पुरुष अपनी पत्नी से बलात्कार करता है, तो भारत के बलात्कार कानून उस पर लागू नहीं होते हैं.
भारतीय दंड संहिता की धारा 375 बलात्कार को 'एक महिला के साथ बिना सहमति के संभोग' के रूप में परिभाषित करती है. हालांकि, अगर पति अपनी पत्नी के साथ उसकी सहमति के बिना यह करता है और उसकी पत्नी 15 साल से ज्यादा उम्र की है, तो पति को किसी भी तरह की दंडात्मक कार्रवाई से छूट मिलती है. सुप्रीम कोर्ट ने 15 साल की इस आयुसीमा को बढ़ाकर 18 साल कर दिया था. भारत में कानून के तहत शादी का मतलब बदली न जा सकने वाली निहित सहमति है.
छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट का एक हालिया फैसला जिसे कई लोगों ने नृशंस पाया, चौंकाने वाला नहीं होना चाहिए. जब हाई कोर्ट ने अपनी पत्नी के साथ बलात्कार के आरोपी एक व्यक्ति को इस फैसले के साथ मंजूरी दे दी कि एक पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ जबरन सेक्स करना बलात्कार नहीं है. यहां तक कि अगर यह बलपूर्वक या उसकी इच्छा के खिलाफ है. आखिरकार, छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के विद्वान न्यायाधीश एनके चंद्रवंशी केवल भारत के कानून का हवाला दे रहे थे.
भारत में हाई कोर्ट आश्चर्यजनक रूप से वैवाहिक बलात्कार (marital rape) की वैधता और परिभाषा पर अक्सर अलग-अलग राय रखते हैं. बीते महीने केरल हाई कोर्ट ने फैसला सुनाया कि वैवाहिक बलात्कार, हालांकि आईपीसी के तहत ये दंडनीय नही है, फिर भी इसे क्रूरता के रूप में तलाक के लिए आधार माना जा सकता है. केरल हाई कोर्ट ने कहा, ''पत्नी के शरीर को पति होने के कारण अपना समझना और उसकी इच्छा के विरुद्ध यौन संबंध बनाना वैवाहिक बलात्कार के अलावा और कुछ नहीं है. उसकी शारीरिक और मानसिक अखंडता के लिए सम्मान के अधिकार में शारीरिक अखंडता शामिल है. और, किसी भी तरह का अनादर या उल्लंघन शारीरिक अखंडता की व्यक्तिगत स्वायत्तता का उल्लंघन है.''
इस फैसले को छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के निर्णय के साथ जोड़ दें, तो आप अपने आप को एक कानूनी विरोधाभास में पाते हैं.
2018 में गुजरात हाई कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि पति द्वारा बिना सहमति के सेक्स बलात्कार नहीं था. उसी वर्ष, दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा कि पुरुषों और महिलाओं दोनों को 'नहीं' कहने का अधिकार है और शादी का मतलब सहमति नहीं है.
जबकि कोई सोचता होगा कि सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्टता दी होगी और महिलाओं को कानूनी सुरक्षा प्रदान करते हुए स्त्री द्वेष से भरे लिंग के आधार पर भेदभाव करने वाले कूड़े के ढेर में कदम रखा. शीर्ष अदालत ने दशकों से जो किया है, वो है दूसरी ओर देखना और महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने में पूरी तरह नाकाम रहना.
इस साल मार्च में भारत की 5,000 से अधिक महिला अधिकार कार्यकर्ताओं ने एक ओपन लेटर लिखा था, जिसमें तत्कालीन चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एसए बोबडे को पद छोड़ने और माफी मांगने के लिए कहा गया था. सीजेआई ने इस तरह के असंतोष को भड़काने के लिए जो किया था वह थे दो सवाल. जस्टिस बोबडे ने एक नाबालिग लड़की से बलात्कार के आरोपी व्यक्ति से पूछा था कि क्या वह उससे शादी करने के लिए तैयार है. सीजेआई ने वैवाहिक बलात्कार के एक अलग मामले में दूसरा भयावह सवाल किया था, ''जब दो लोग पति और पत्नी के तौर पर साथ रह रहे हैं, पति चाहे कितना भी क्रूर हो, क्या उनके बीच यौन संबंध को बलात्कार कहा जा सकता है?''
क्या इस तरह के सवाल उस देश में यौन हिंसा को वैधता देते हैं, जो आमतौर पर इसे सामान्य करने के लिए उत्सुक है? मैं इस सवाल को खुला छोड़ दूंगी क्योंकि वैवाहिक बलात्कार की वैधता स्पष्ट है, लेकिन अदालत की अवमानना का मामला थोड़ा धुंधला है.
हमारे देश की सर्वोच्च अदालत ने जो सबसे अच्छा काम किया है, वह 2017 में यह फैसला सुनाना है कि नाबालिग पत्नी के साथ सेक्स करना बलात्कार की श्रेणी में आएगा. इसने आईपीसी की धारा 375 के अपवाद को कम कर दिया, जिसमें कहा गया था कि किसी व्यक्ति द्वारा 15 साल से अधिक उम्र की पत्नी के साथ यौन संबंध को बलात्कार की श्रेणी में नहीं रखा जाएगा. भारतीय न्यायपालिका ने जो कुछ किया है, वह वैवाहिक बलात्कार की सीमा को 15 से बढ़ाकर 18 वर्ष की आयु करना. असल में, अगर आपकी पत्नी 18 वर्ष की है, तो आपके पास वैवाहिक बलात्कार के लिए एक हॉल पास है.
कार्यपालिका और विधायिका भी न्यायपालिका से बहुत अलग नहीं हैं. 100 से अधिक देशों में वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में रखा गया है. लेकिन भारत लगभग 32 देशों की चमकदार लीग में खड़ा है, जहां वैवाहिक बलात्कार को अपराध नहीं माना जाता है. पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, बोत्सवाना, ईरान, नाइजीरिया और लीबिया इस असाधारण लीग के कुछ सम्मानित सदस्य हैं. अंग्रेजों द्वारा सौंपे गए हमारे दंड कानून पत्थरों में लिखे गए हैं, जबकि अंग्रेजों ने 1991 में वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित कर दिया था. महान भारतीय पितृसत्तात्मक मानसिकता ने लंबे समय तक एक विडंबना को ग्रहण किया.
2013 में संयुक्त राष्ट्र की एक समिति ने सिफारिश की कि भारत सरकार वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करे. निर्भया मामले प्रदर्शनों के बाद गठित जेएस वर्मा समिति ने भी इसकी सिफारिश की थी. कई समितियां, कई रिपोर्टें बनीं, लेकिन स्थितियां जस की तस बनी हुई हैं. भारत में एक के बाद एक सरकारों ने शादी के बाद अपने शरीर पर महिलाओं के अधिकारों को लेकर कोई इच्छा या रुचि नहीं दिखाई है.
यह सब थोड़ा विचलित करने वाला है कि हमारे सांसदों को यह समझने की जरूरत है कि शादी को पति के लिए अपनी पत्नी से बलात्कार करने के लाइसेंस के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. लेकिन, इतिहास गवाह है कि यह एक बड़ा सवाल रहा है.
विधि आयोग ने अपनी 172वीं रिपोर्ट में वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने का विरोध इस आधार पर किया था कि ''यह वैवाहिक संबंधों में अत्यधिक हस्तक्षेप हो सकता है'' और कहा कि एक पति द्वारा जबरन यौन संबंध को पत्नी के खिलाफ किसी भी अन्य शारीरिक हिंसा की तरह अपराध के रूप में माना जा सकता है.
जबकि एक संसदीय स्थायी समिति ने कहा है कि यदि वैवाहिक बलात्कार को अपराध बनाया गया था, तो परिवार व्यवस्था तनाव में आ जाएगी और इससे व्यावहारिक कठिनाइयां हो सकती हैं.
2016 में सरकार ने राज्यसभा को बताया कि वैवाहिक बलात्कार की अवधारणा अंतरराष्ट्रीय है और गरीबी, निरक्षरता, सामाजिक रीति-रिवाजों, धार्मिक विश्वासों और 'विवाह की पवित्रता' के कारकों के कारण भारतीय संदर्भ में लागू नहीं की जा सकती है.
2018 में कांग्रेस सांसद शशि थरूर द्वारा लोकसभा में पेश किए गए महिला यौन, प्रजनन और मासिक धर्म अधिकार विधेयक, 2018 नाम के एक प्राइवेट बिल में वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने की मांग की गई थी. सरकार से समर्थन नहीं मिलने के कारण यह बिल पास नहीं हो पाया.
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 यह सुनिश्चित करता है कि ''राज्य किसी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता या भारत के क्षेत्र के भीतर कानूनों के समान संरक्षण से इनकार नहीं करेगा.'' भारतीय आपराधिक कानून महिलाओं खासतौर से उन महिलाओं के साथ भेदभाव करता है, जिनका उनके पतियों द्वारा बलात्कार किया जाता है. हालांकि, संविधान सभी को समानता की गारंटी देता है.
यह चौंकाता है, लेकिन हां, हम एक ऐसा देश हैं जो ज्यादातर यही मानता है कि एक भारतीय महिला शादी के करने बाद कई चीजों के साथ अपने पति को कभी खत्म न होने वाली, बदली न जा सकने वाली और हमेशा के लिए सहमति सौंपती देती है, जिसे केवल मौत ही खत्म कर सकती है.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.