हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है.
जन्नत कैसी होगी? वहां क्या होगा? हिसाब किताब कैसे होगा? इस बात को भले ही हम और आप न जानें मगर असद उल्लाह खां जानते थे.15 फरवरी आज ही वो दिन था जब 1869 में दिल्ली में बाब-ए-उर्दू/फ़ारसी अदब (उर्दू और फ़ारसी शायरी के स्तंभ) मिर्ज़ा ग़ालिब की रूह परवाज़ कर गयी. जिस तरह अपनी क़लम से ग़ालिब ने उर्दू / फ़ारसी शायरी को एक नई धार दी कहना गलत नहीं है कि मिर्ज़ा के साथ अंत हुआ एक ऐसे युग का जिसके सूत्रधार वो ख़ुद थे. प्रायः जब हम 'शेर' या 'शायरी' जैसे शब्दों से रू-ब-रू होते हैं जो सबसे पहली बात हमारे जहन में आती है वो है 'आशिक़' 'माशूक़' 'इश्क़' 'मुहब्बत' और प्यार मगर क्या यही शायरी है ? जवाब के परिणामस्वरूप लंबा वाद विवाद हो सकता है मगर जब हम ग़ालिब को पढ़ते हैं उनके लिखे शेरों के मायने तलाश करते हैं तो महसूस होता है कि शायरी 'इश्क़' मुहब्बत से कहीं ऊपर की चीज़ है.
जिक्र शायरी में प्यार मुहब्बत आशिक माशूक का हुआ है. साथ ही बात ग़ालिब की चल रही है तो बेहतर है हम ग़ालिब की लिखी हुई एक प्रसिद्ध कता को पढ़े जिसमें भले ही ग़ालिब ने बात इश्क़ कि की हो लेकिन एक एक शब्द अपने में कई मायने समेटे हुए है. ग़ालिब ने कहा था कि -
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होतातिरे वा'दे पर जिए हम तो ये जान झूट जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए'तिबार होता
तिरी नाज़ुकी से जाना कि बंधा था अहद बोदा
कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तुवार होता
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
ये ख़लिश कहां से होती जो जिगर के पार...
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है.
जन्नत कैसी होगी? वहां क्या होगा? हिसाब किताब कैसे होगा? इस बात को भले ही हम और आप न जानें मगर असद उल्लाह खां जानते थे.15 फरवरी आज ही वो दिन था जब 1869 में दिल्ली में बाब-ए-उर्दू/फ़ारसी अदब (उर्दू और फ़ारसी शायरी के स्तंभ) मिर्ज़ा ग़ालिब की रूह परवाज़ कर गयी. जिस तरह अपनी क़लम से ग़ालिब ने उर्दू / फ़ारसी शायरी को एक नई धार दी कहना गलत नहीं है कि मिर्ज़ा के साथ अंत हुआ एक ऐसे युग का जिसके सूत्रधार वो ख़ुद थे. प्रायः जब हम 'शेर' या 'शायरी' जैसे शब्दों से रू-ब-रू होते हैं जो सबसे पहली बात हमारे जहन में आती है वो है 'आशिक़' 'माशूक़' 'इश्क़' 'मुहब्बत' और प्यार मगर क्या यही शायरी है ? जवाब के परिणामस्वरूप लंबा वाद विवाद हो सकता है मगर जब हम ग़ालिब को पढ़ते हैं उनके लिखे शेरों के मायने तलाश करते हैं तो महसूस होता है कि शायरी 'इश्क़' मुहब्बत से कहीं ऊपर की चीज़ है.
जिक्र शायरी में प्यार मुहब्बत आशिक माशूक का हुआ है. साथ ही बात ग़ालिब की चल रही है तो बेहतर है हम ग़ालिब की लिखी हुई एक प्रसिद्ध कता को पढ़े जिसमें भले ही ग़ालिब ने बात इश्क़ कि की हो लेकिन एक एक शब्द अपने में कई मायने समेटे हुए है. ग़ालिब ने कहा था कि -
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होतातिरे वा'दे पर जिए हम तो ये जान झूट जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए'तिबार होता
तिरी नाज़ुकी से जाना कि बंधा था अहद बोदा
कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तुवार होता
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
ये ख़लिश कहां से होती जो जिगर के पार होता
ये कहां की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारासाज़ होता कोई ग़म-गुसार होता
रग-ए-संग से टपकता वो लहू कि फिर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता
ग़म अगरचे जां-गुसिल है प कहां बचें कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता ग़म-ए-रोज़गार होता
कहूं किस से मैं कि क्या है शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यों न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता
उसे कौन देख सकता कि यगाना है वो यकता
जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो-चार होता
ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तिरा बयान 'ग़ालिब'
तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता
भले ही इस कता में मिर्ज़ा ने इश्क़ में बिरहा या जुदाई की बातों पर बल दिया हो मगर इसमें कहीं से भी वो हल्कापन और छिछली बाते नहीं है जो आज के वक़्त में हम उर्दू शायरी के अंतर्गत देखते हैं.
तमाम साहित्यकार और भाषाविद इस बात को लेकर एकमत हैं कि यूं तो हमारे बीच एक से एक शायर हुए हैं लेकिन जिस तरह शब्दों के साथ ग़ालिब ने खेला उसका मुकाबला शायद ही कोई और कर पाए. मगर जब हम ग़ालिब को देखते हैं तो मिलता है कि ग़ालिब ने कभी खुद को महान नहीं समझा और मरते दम तक इस बात को माना कि वो एक बेहद आम से शायर हैं.
हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था
आप आते थे मगर कोई इनां-गीर भी था
तुम से बेजा है मुझे अपनी तबाही का गिला
उस में कुछ शाइब-ए-ख़ूबी-ए-तक़दीर भी था
तू मुझे भूल गया हो तो पता बतला दूं
कभी फ़ितराक में तेरे कोई नख़चीर भी था
क़ैद में है तिरे वहशी को वही ज़ुल्फ़ की याद
हां कुछ इक रंज-ए-गिरां-बारी-ए-ज़ंजीर भी था
बिजली इक कौंद गई आंखों के आगे तो क्या
बात करते कि मैं लब-तिश्ना-ए-तक़रीर भी था
यूसुफ़ उस को कहूं और कुछ न कहे ख़ैर हुई
गर बिगड़ बैठे तो मैं लाइक़-ए-ताज़ीर भी था
देख कर ग़ैर को हो क्यों न कलेजा ठंडा
नाला करता था वले तालिब-ए-तासीर भी था
पेशे में ऐब नहीं रखिए न फ़रहाद को नाम
हम ही आशुफ़्ता-सरों में वो जवां-मीर भी था
हम थे मरने को खड़े पास न आया न सही
आख़िर उस शोख़ के तरकश में कोई तीर भी था
पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर ना-हक़
आदमी कोई हमारा दम-ए-तहरीर भी था
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था
ऐसा नहीं था कि ग़ालिब की हर जगह तारीफ हुई और तारीफें ही उनके हिस्से में आईं. एक शायर के तौर पर ग़ालिब को तमाम तरह की आलोचनाओं का सामना करना पड़ा. लोगों ने उन्हें दरबारी शायर कहा और इस बात पर बल दिया कि ग़ालिब ऐसी शायरी करते हैं जिसका उद्देश्य हुकूमत को ख़ुश करना है.
मशहूर ये भी है कि ग़ालिब का अपने समकक्ष शायर इब्राहिम ज़ौक़ के साथ तगड़ा कॉम्पटीशन भी था . दोनों के समर्थकों में कई बार इस बात को लेकर बहस भी हुई कि आखिर ज़ौक़ और ग़ालिब में बेहतरीन शायरी का ताज किसके सिर जाए. दोनों के बीच ऐसे कई किस्से हैं जो इस बात की तसदीख कर देते हैं कि शासन के सामने दोनों ही अपना अपना वर्चस्व दिखाने को आतुर रहते थे.
बात अगर उन शायरियों की हो जो ग़ालिब और ज़ौक़ ने दरबार में की उसमें जहां एक तरफ ज़ौक़ की शायरी क्लिष्ट थी तो वहीं ग़ालिब दरबार में इस्तेमाल की गई शायरी में जहां एक तरफ व्यंग्यात्मक लहजा था तो वहीं दूसरी ओर ज़ौक़ के मुकाबले वो कहीं ज्यादा आसान थी.
आज ग़ालिब हमारे बीच नहीं हैं मगर जिस लहजे में उन्होंने शायरी की वो हमारे बीच है. कई मौकों पर ग़ालिब जहां अपनी शायरी में तल्ख हुए हैं तो वहीं कई मौके ऐसे भी आए हैं जब हमें खिजलाहत के साथ साथ मजाहिया लहजा भी दिखाई देता है . इस बात को समझने के लिए हमें ग़ालिब की वो रचना देखनी चाहिए जिसमें उन्होंने 'भविष्य' की चिंता को जाहिर किया है. ग़ालिब कहते हैं कि
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यों रात भर नहीं आती
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हंसी
अब किसी बात पर नहीं आती
जानता हूं सवाब-ए-ताअत-ओ-ज़ोहद
पर तबीअत इधर नहीं आती
है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूं
वर्ना क्या बात कर नहीं आती
क्यों न चीखूं कि याद करते हैं
मेरी आवाज़ गर नहीं आती
दाग़-ए-दिल गर नज़र नहीं आता
बू भी ऐ चारागर नहीं आती
हम वहां हैं जहां से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती
काबा किस मुंह से जाओगे 'ग़ालिब'
शर्म तुम को मगर नहीं आती
हम फिर इस बात को कह रहे हैं कि ग़ालिब होना आसान नहीं है. आज सोशल मीडिया के इस दौर में जब सबके अंदर दिखने, छपने और सुने जाने का कीड़ा हो यदि हम ग़ालिब के शेरों को मॉडिफाई कर रहे हैं तो हम किसी भी सूरत में उनके साथ इंसाफ नहीं कर रहे हैं.
वहीं वो लोग जो अपनी कौड़ी की तीन शायरियों में ग़ालिब का नाम डालकर उसे महान बनाने की फिराक में हैं उन्हें इस बात को समझना चाहिए कि यदि आज ग़ालिब की रूह को सबसे ज्यादा तकलीफ होती होगी तो उसका सबब बस ये शायरियां होती होंगी जिन्हें लिखने के बारे में कभी ग़ालिब ने सोचा ही नहीं.
आज ग़ालिब की पुण्यतिथि है इसलिए हम बस ये कहकर अपनी बातों को विराम देंगे कि हर शेर, हर कता, हर ग़ज़ल को ग़ालिब का मत बताइये. ऐसा करके आप ग़ालिब की आत्मा को सुख नहीं बल्कि कष्ट दे रहे हैं वो भी बहुत सारा कष्ट.
आखिर में गालिब के ही इस शेर के साथ अलविदा कि
इशरत-ए-कतरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना.
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