डिस्कवरी/डिस्कवरी साइंस चैनल्स पर Ancient nexplained Files, Expedition nknown और nearthed जैसे कार्यक्रमों में एक विशेष पुरातात्विक विषय पर विशेषज्ञों द्वारा विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों की विशिष्ट तकनीकों के सहारे अपनी अपनी बात रखना अत्यधिक रोचक लगता है साथ ही एक टीस भी उठती है कि क्या भारत में ऐतिहासिक और पुरातात्विक शोध को उस मानसिकता से कभी मुक्ति मिल सकेगी जो आज भी तथ्यात्मक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परिपूर्ण शोध की राह में रोड़े अटकाने वाले विशेष वैचारिक समूह की देन है? ऐसी क्या मजबूरी है कि इतिहास और पुरातत्व के क्षेत्र में औपनिवेशक तौर तरीकों और अनुवादों के सहारे लिखी गईं पुस्तकों और गढ़े गए सिद्धांतों को हम आज भी ढोए जा रहे हैं? आज आधुनिक विज्ञान ने अच्छी खासी प्रगति की है क्या यह आवश्यक नही कि तमाम वैज्ञानिक विधाओं और तकनीकों को इतिहास की उन गुत्थियों को सुलझाने में प्रयुक्त किया जाए जिनके लिए अलग अलग अनुमान व्यक्त किए जाते रहे हैं?
ऐसे में इतिहास केवल एक दंतकथा बनकर रह जाता है न कि एक उत्कृष्ट शोधपरक अध्ययन. मध्यकालीन भारत में सांस्कृतिक अतिक्रमण की अनेक घटनाएं हुई हैं इसके पक्ष विपक्ष में कई तर्क और तथ्य प्रस्तुत किए जाते रहे हैं और आगे भी किए जाते रहेंगे. वर्तमान में बहुत कम उपलब्ध पुरातात्विक साक्ष्यों के कारण रामायण और महाभारत को काल्पनिक मान लिया गया है लेकिन कुछ बिंदु ऐसे भी हैं जो भारतीय इतिहास को सहस्त्राब्दियों पीछे तक सिद्ध करने में सहायक हो सकते हैं:
पुराणों इत्यादि के अलग अलग संस्करणों में कई स्थलों और व्यक्तियों के विषय में अलग अलग विवरण मिलता है जिस कारण इनकी सही पहचान नही हो सकी है और न ही हमारे...
डिस्कवरी/डिस्कवरी साइंस चैनल्स पर Ancient nexplained Files, Expedition nknown और nearthed जैसे कार्यक्रमों में एक विशेष पुरातात्विक विषय पर विशेषज्ञों द्वारा विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों की विशिष्ट तकनीकों के सहारे अपनी अपनी बात रखना अत्यधिक रोचक लगता है साथ ही एक टीस भी उठती है कि क्या भारत में ऐतिहासिक और पुरातात्विक शोध को उस मानसिकता से कभी मुक्ति मिल सकेगी जो आज भी तथ्यात्मक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परिपूर्ण शोध की राह में रोड़े अटकाने वाले विशेष वैचारिक समूह की देन है? ऐसी क्या मजबूरी है कि इतिहास और पुरातत्व के क्षेत्र में औपनिवेशक तौर तरीकों और अनुवादों के सहारे लिखी गईं पुस्तकों और गढ़े गए सिद्धांतों को हम आज भी ढोए जा रहे हैं? आज आधुनिक विज्ञान ने अच्छी खासी प्रगति की है क्या यह आवश्यक नही कि तमाम वैज्ञानिक विधाओं और तकनीकों को इतिहास की उन गुत्थियों को सुलझाने में प्रयुक्त किया जाए जिनके लिए अलग अलग अनुमान व्यक्त किए जाते रहे हैं?
ऐसे में इतिहास केवल एक दंतकथा बनकर रह जाता है न कि एक उत्कृष्ट शोधपरक अध्ययन. मध्यकालीन भारत में सांस्कृतिक अतिक्रमण की अनेक घटनाएं हुई हैं इसके पक्ष विपक्ष में कई तर्क और तथ्य प्रस्तुत किए जाते रहे हैं और आगे भी किए जाते रहेंगे. वर्तमान में बहुत कम उपलब्ध पुरातात्विक साक्ष्यों के कारण रामायण और महाभारत को काल्पनिक मान लिया गया है लेकिन कुछ बिंदु ऐसे भी हैं जो भारतीय इतिहास को सहस्त्राब्दियों पीछे तक सिद्ध करने में सहायक हो सकते हैं:
पुराणों इत्यादि के अलग अलग संस्करणों में कई स्थलों और व्यक्तियों के विषय में अलग अलग विवरण मिलता है जिस कारण इनकी सही पहचान नही हो सकी है और न ही हमारे धर्माचार्यों ने इस विषय पर कोई सार्थक निष्कर्ष निकालने के ठोस प्रयास किए हैं, प्रभु हनुमान जी की जन्मस्थली के विषय में अलग अलग मत और इस पर विवाद एक बड़ा उदाहरण है.
क्या पौराणिक ग्रंथों में वर्णित सभी स्थलों का पुरातात्विक सर्वेक्षण हो गया है या जिनका भी किया गया है उनको पूरी तरह से एक्सप्लोर किया गया है?
मात्र पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर किसी घटना को प्रामाणिक सिद्ध नही किया जा सकता, अत्याधुनिक आयु निर्धारण पद्धतियों की भी अपनी तकनीकी सीमाएं हैं उदाहरण के लिए किसी पत्थर के टुकड़े की आयु का अनुमान तो लगाया जा सकता है परन्तु उस पर हुई नक्काशी के वैज्ञानिक अध्ययन से सही समय का अनुमान लगाना अब तक पूर्ण रूप से संभव नही हो सका है.
क्या ऐसा कभी संभव हो सकेगा कि ऐसे तमाम ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व के स्थलों और संरचनाओं में निहित भारतीय स्थापत्य कला की खगोलीय, ज्यामितीय, अभिविन्यासीय, जल व भू आकृति विज्ञान इत्यादि संबंधी विशिष्टताओं और पौराणिक आख्यानों के विभिन्न प्रौद्योगिकी विधाओं के साझा प्रयोग से उत्कृष्ट स्तर के अध्ययन और विश्लेषण पर आधारित शोध पत्र प्रतिष्ठित जर्नल्स में प्रकाशित कर भारतीय इतिहास शोध में नई ऊर्जा का संचार किया जा सके?
आवश्यक है कि हर गांव, कस्बे और नगर के छात्र में स्कूली स्तर से ही आसपास की पुरातात्विक धरोहरों के प्रति जिज्ञासा और व्यवहारिक समझ पैदा हो. अब समय है इतिहास और पुरातत्व क्षेत्र से जुड़े पाठ्यक्रमों में उच्च कोटि के व्यवहारिक और अत्याधुनिक वैज्ञानिक तत्वों के समावेश से इनमें नयापन लाया जाए ताकि बदलते परिदृश्य में भारतीय इतिहास अध्ययन व शोध बदलते भारत की सोच का प्रतिनिधित्व करे ताकि भारतीय इतिहास लेखन और शोध पुराने तौर तरीकों से उपजी विसंगतियों, विरोधाभासों और विवादों की जकड़न से मुक्त हो सके.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.