'लो भाई! अब केन्या जैसे देशों से भारत मदद लेने लगा.', पिछले दो चार दिनों में सोशल मीडिया पर ऐसी बाते आपने भी पढ़ी और देखी होंगी. मजे की बात यह कि इस मदद को तुरंत इस तरह से प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे कोरोना महामारी ने भारत को इतना लाचार कर दिया है कि अब विश्व के सभी देश भारत को गरीब गुरबा समझकर उसके कटोरे में भीख और सहानुभूति डाल रहे हैं. हद है भाई लोग! यह तो अपने देश भारत में कुछ लोग की आदत है ही कि किसी काम में बिना मीन मेख निकाले उनका खाना नही हज़म होता. हालांकि ऐसे लोग बहुत ज्यादा तो नहीं है लेकिन जितने भी है मौका मुकाम पर अपना गुण सहुर दिखाने से बाज नहीं आते. जैसे किसी की शादी में कुछ कमी न निकले तो जनरेटर की आवाज़ को दोष दे देंगे कि ससुरा कुछ ज्यादा ही भड़भड़ा रहा है. हद तो यह है कि अंतिम संस्कार तक में यह कहने से बाज नहीं आयेंगे कि मरने वाले व्यक्ति के घरवाले पैसा बचा रहे है तभी दो चार किलो लकड़ी कम डाले है नहीं तो मुर्दा अब तक जल जाता.
आलोचना जरूरी है लेकिन इतनी भी जरूरी नही कि आलू चना की तरह हर जगह उसे फिट कर दें. अब महामारी में अफ्रीकी देश केन्या ने 12 टन खाद्य सामाग्री भेज दी तो उसमें भी दिक्कत. सहायता का हाथ बढ़ाने वाला गरीब और भीखमंगा नहीं आप सब आलोचक मानसिक दरिद्रता के शिकार हैं. काहे दिक्कत हो रही है भाई?
अच्छा देश की नाक कट गई कि केन्या जैसा छोटा देश भारत जैसे विशाल और महान लोकतंत्र पर दया दिखा रहा है. मोदी का डंका अब घंटा बनकर बज रहा है. यार पहले तो यह तय कर लो मोदी को चिढ़ाना है कि केन्या को. या बस बोलना है तो बोलना ही है. गुरु शरम करने के लिए वैसे ही बहुत बातें है अपने पास. एकाध चीज़ तो बख्श दो.
उस समय तो शरम नहीं आती जब अपने पड़ोसी...
'लो भाई! अब केन्या जैसे देशों से भारत मदद लेने लगा.', पिछले दो चार दिनों में सोशल मीडिया पर ऐसी बाते आपने भी पढ़ी और देखी होंगी. मजे की बात यह कि इस मदद को तुरंत इस तरह से प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे कोरोना महामारी ने भारत को इतना लाचार कर दिया है कि अब विश्व के सभी देश भारत को गरीब गुरबा समझकर उसके कटोरे में भीख और सहानुभूति डाल रहे हैं. हद है भाई लोग! यह तो अपने देश भारत में कुछ लोग की आदत है ही कि किसी काम में बिना मीन मेख निकाले उनका खाना नही हज़म होता. हालांकि ऐसे लोग बहुत ज्यादा तो नहीं है लेकिन जितने भी है मौका मुकाम पर अपना गुण सहुर दिखाने से बाज नहीं आते. जैसे किसी की शादी में कुछ कमी न निकले तो जनरेटर की आवाज़ को दोष दे देंगे कि ससुरा कुछ ज्यादा ही भड़भड़ा रहा है. हद तो यह है कि अंतिम संस्कार तक में यह कहने से बाज नहीं आयेंगे कि मरने वाले व्यक्ति के घरवाले पैसा बचा रहे है तभी दो चार किलो लकड़ी कम डाले है नहीं तो मुर्दा अब तक जल जाता.
आलोचना जरूरी है लेकिन इतनी भी जरूरी नही कि आलू चना की तरह हर जगह उसे फिट कर दें. अब महामारी में अफ्रीकी देश केन्या ने 12 टन खाद्य सामाग्री भेज दी तो उसमें भी दिक्कत. सहायता का हाथ बढ़ाने वाला गरीब और भीखमंगा नहीं आप सब आलोचक मानसिक दरिद्रता के शिकार हैं. काहे दिक्कत हो रही है भाई?
अच्छा देश की नाक कट गई कि केन्या जैसा छोटा देश भारत जैसे विशाल और महान लोकतंत्र पर दया दिखा रहा है. मोदी का डंका अब घंटा बनकर बज रहा है. यार पहले तो यह तय कर लो मोदी को चिढ़ाना है कि केन्या को. या बस बोलना है तो बोलना ही है. गुरु शरम करने के लिए वैसे ही बहुत बातें है अपने पास. एकाध चीज़ तो बख्श दो.
उस समय तो शरम नहीं आती जब अपने पड़ोसी से चिंदी चिंदी बात से झगड़ते हो और रात में चुप्पे से उसके दरवाज़े पर अपने घर का कूड़ा सरका आते हो. सड़को पर महिलाओं पर फिकरे कसते शोहदों को टोकने भर की हिम्मत तो है नहीं चले हैं शरम करने. अभी गिनाऊं तो सुबह से शाम हो जाए ऐसी बहुत सी बातें हैं जिन पर हम शरमाने के लिए और उन पर लानत भेजने के बजाय खीस निपोर कर कल्टी मार लेते हैं.
फ़िलहाल मुद्दे पर आते हैं. तो मुद्दा यह है कि कोरोना की महामारी से लड़ रहे भारत को इस दौरान कई देशों ने मदद की पेशकश की और इस आपदा से उबरने के लिए तमाम तरह से मदद भेज ही रहे हैं. विश्व की महाशक्तियों अमेरिका, रूस समेत हमारे पड़ोसी देश भूटान ने ऑक्सीजन प्लांट की स्थापना के लिए भारत को मदद देने के हर संभव प्रयास कर रहे हैं.
इसी क्रम में बीते दिनों अफ्रीकी देश केन्या ने भी मूंगफली समेत 12 टन खाद्य सामाग्री भारत के लिए भेजी. बस जब तक अमेरिका रूस से मदद मिल रही रही तब तक तो सही था, केन्या स्नेहवश और अपनी परम्परा के अनुरूप जो भी संभव था भारत की तरफ़ मदद का हाथ बढ़ाया तो भाई लोग लगे गाल बजाने कि यह देखो भारत अब इतना मजबूर है कि केन्या जैसे देश से भी मदद ले रहा है.
एक बात ऐसे लोगों को जान लेना चाहिए कि 2004 से भारत किसी भी आपदा में विदेशी मदद से इंकार करता रहा है. अपनी मजबूत और आत्मनिर्भर वैश्विक छवि बनाने के लिए प्रायः देशों द्वारा ऐसा किया जाना उचित भी होता है. इस महामारी के दूसरे चरण में भी भारत ने विश्व के किसी देश के समक्ष न तो हाथ फैलाया और न ही आगे बढ़कर कोई मदद मांगी.
लेकिन महामारी के अखिल भारतीय स्वरूप और गंभीरता की स्थिति में भारत ने किसी मदद को इंकार भी नहीं किया. यह कमजोरी नहीं है. आपको याद होगा कि पिछले साल अमेरिका के लिए भारत ने भी क्लोरोक्वीनोन दवा भेजी थी. साथ ही लगभग 30 अफ्रीकी देशों की मेडिकल सहायता की थी.
इस समय लगभग लगभग 40 देशों ने जिसमें प्रमुख इस समय अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, रूस, आयरलैंड, बेल्जियम, रोमानिया, लक्जमबर्ग, पुर्तगाल, स्वीडन, ऑस्ट्रेलिया, भूटान, सिंगापुर, सऊदी अरब, हांगकांग, थाइलैंड, फिनलैंड, स्विटजरलैंड, नार्वे, इटली और यूएई मेडिकल सहायता भारत भेज रहे हैं.
भेजना भी चाहिए हम सब को ही एक दूसरे के सुख दुःख में साथ खड़ा होना है. वासुधैव कुटुम्बकम का भारतीय आदर्श भी यही है और ग्लोबल विलेज का भी. हां विलेज से एक बात याद आई कि अब तो गांवों में मौद्रिक प्रसार और दिखावे की आधुनिकता ने कई परंपराओं को खत्म कर दिया है.
नहीं तो! अभी ज्यादा दिन नहीं हुए, दो पीढ़ी पहले तक खुशी या गम के मौके पर समूचा गांव, अपनी हैसियत के अनुरूप संबंधित परिवार की मदद करता था. जिसके पास कुछ नहीं होता था वो भी एक परात (बड़ी थाली) अनाज या अपना श्रम देता था. जिसको पूरा सम्मान दिया जाता था.
तो कहने का तात्पर्य यह है कि दुःख और संकट की इस घड़ी में किसी के द्वारा किसी भी प्रकार की मदद की खिल्ली उड़ाना आपके टुच्चेपन को ही प्रदर्शित करता है केन्या कोई गरीब देश नहीं है भारत और उसकी प्रतिव्यक्ति आय में विशेष अंतर भी नही है.
जनजातियां समस्त अफ्रीकी महाद्वीप पर है केन्या में भी है और वे देश दुनियां से कटे आदिम युग में न रहकर अच्छे खासे शिक्षित है जिन्हें लोगों के दुःख दर्द की चिंता है और साथ ही कम से कम उन्हें यह तो पता है कि दुःख में किसी के साथ खड़ा होना सबसे बड़ा मानवीय धर्म है.
हां एक बात और लोकतंत्र में अपनी बात कहना सरकारों के निकम्मेपन और उसकी कार्यशैली पर प्रश्न करना एक इस देश के नागरिक होने के नाते हम सब का प्राथमिक कर्तव्य है. आलोचना से लोकतंत्र मजबूत होता है लेकिन बेफिजूल की आलोचना और भाषाई शुचिता का अनुपालन न करना कई सार्थक बहसों के लिए बने माहौल को भंग भी करता है और मूल मुद्दे से भटकाव का कारण भी.
सरकारों पर दबाव बनाए रखिए कि और खुद भी ख्याल रखिए कि कोरोना की तीसरी लहर न आए. फ़िलहाल यह समय टुच्ची टुच्ची बात करने का नहीं है. राजनीति यही तो चाहती है कि हम इन्हीं टुच्ची बातों में उलझकर उनसे सवाल न पूछे जो जवाबदेह है या जिनकी जिम्मेदारी बनती है. और हां! टीका भी लगवा लीजिएगा.
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