माँ, नेमत है और यह बात हम में से अधिकतर लोग समझने में बहुत वक़्त ज़ाया कर देते हैं. छुटपन में जिस माँ पर, हर बच्चा छोटी-मोटी ज़रूरत के लिए डिपेंड करता है, वही माँ टीन एज बच्चों को अपनी दुश्मन सी लगने लगती है. एक दौर में जिस माँ के सहारे की हर समय आवश्यकता होती थी, वो बड़े होते-होते अपना गुस्सा उतारने, फ्रस्ट्रेशन निकालने का जरिया बन जाती है. न जाने कब, एक पन्चिंग बैग बन जाती है, माँ.
बच्चे होने से क्या-क्या अधिकार मिल जाते हैं. वे तो ताउम्र माँएं यूँ ही बल्कि उनसे बहुत ज़्यादा हमें बिन माँगे दे देती हैं और हम उनके प्रति अपने कर्तव्य भूल जाते हैं.
लड़कियाँ जब ख़ुद माँ बनती हैं तो समझ जाती हैं कि एक माँ क्या-क्या करती है अपने बच्चों के लिए. वो अपने बच्चे हो जाने पर, अपनी ही कही उस बात पर कि माँ आपने क्या बड़ा किया? आप कुछ नहीं करतीं तो भी हम बड़े हो जाते; कितना हँसती है. अब जानती हैं कि माँ के कितने दिन, कितनी रातें सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने बच्चों की फ़िक्र में गुज़रते हैं. और उन रतजगों, दुआओं, मुस्कुराहटों, आँसुओं, नाराज़गियों की बदौलत ही हम हैं. वो डाँट, वो झगड़े, वो कहा-सुनी ने हमें बनाया है. अमूमन ख़ुद माँ बनने के बाद यह एहसास होता है कि बिल्कुल माँ के अंदाज़ में और लगभग उन्हीं बातों पर अपने बच्चों को हम टोकने लगे हैं. एक उम्र तक आते-आते अपनी माँ से ही हो गए हैं.
बच्चों को, माँ की क़ीमत ज़रा देर से समझ में आती है. माँ हमारी ज़िंदगी का वो शख़्स है जो हमेशा हमारा भला चाहती है. बिना किसी मतलब के हमें ख़ुश देखना चाहती है. उस-सा प्यार कोई नहीं कर सकता और यह बात हमें जितनी जल्दी समझ आ जाए, उतना अच्छा. माँ को रोज़ सेलिब्रेट करिए... किसी दिन का इंतज़ार न करिए. माँ ...माँ होने के लिए दिन-रात , महीना-साल नहीं देखती, तो हम क्यों देखें? माँ के...
माँ, नेमत है और यह बात हम में से अधिकतर लोग समझने में बहुत वक़्त ज़ाया कर देते हैं. छुटपन में जिस माँ पर, हर बच्चा छोटी-मोटी ज़रूरत के लिए डिपेंड करता है, वही माँ टीन एज बच्चों को अपनी दुश्मन सी लगने लगती है. एक दौर में जिस माँ के सहारे की हर समय आवश्यकता होती थी, वो बड़े होते-होते अपना गुस्सा उतारने, फ्रस्ट्रेशन निकालने का जरिया बन जाती है. न जाने कब, एक पन्चिंग बैग बन जाती है, माँ.
बच्चे होने से क्या-क्या अधिकार मिल जाते हैं. वे तो ताउम्र माँएं यूँ ही बल्कि उनसे बहुत ज़्यादा हमें बिन माँगे दे देती हैं और हम उनके प्रति अपने कर्तव्य भूल जाते हैं.
लड़कियाँ जब ख़ुद माँ बनती हैं तो समझ जाती हैं कि एक माँ क्या-क्या करती है अपने बच्चों के लिए. वो अपने बच्चे हो जाने पर, अपनी ही कही उस बात पर कि माँ आपने क्या बड़ा किया? आप कुछ नहीं करतीं तो भी हम बड़े हो जाते; कितना हँसती है. अब जानती हैं कि माँ के कितने दिन, कितनी रातें सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने बच्चों की फ़िक्र में गुज़रते हैं. और उन रतजगों, दुआओं, मुस्कुराहटों, आँसुओं, नाराज़गियों की बदौलत ही हम हैं. वो डाँट, वो झगड़े, वो कहा-सुनी ने हमें बनाया है. अमूमन ख़ुद माँ बनने के बाद यह एहसास होता है कि बिल्कुल माँ के अंदाज़ में और लगभग उन्हीं बातों पर अपने बच्चों को हम टोकने लगे हैं. एक उम्र तक आते-आते अपनी माँ से ही हो गए हैं.
बच्चों को, माँ की क़ीमत ज़रा देर से समझ में आती है. माँ हमारी ज़िंदगी का वो शख़्स है जो हमेशा हमारा भला चाहती है. बिना किसी मतलब के हमें ख़ुश देखना चाहती है. उस-सा प्यार कोई नहीं कर सकता और यह बात हमें जितनी जल्दी समझ आ जाए, उतना अच्छा. माँ को रोज़ सेलिब्रेट करिए... किसी दिन का इंतज़ार न करिए. माँ ...माँ होने के लिए दिन-रात , महीना-साल नहीं देखती, तो हम क्यों देखें? माँ के प्यार का कोई मौसम नहीं होता वो सदाबहार था, है और रहेगा. जिसकी वजह से हमें ज़िन्दगी मिली है उसके साथ इस ज़िन्दगी के कुछ पलों को ज़िंदादिल बना लें. माँ के जीते जी उसकी ज़िन्दगी संवार दें...उसे अपना वक़्त दें और प्यार दें.
हों कितनी हीं मुश्किलें राह में उनकी आसां हो जाती हैं,
माँ की दुआ के साथ जो अपनी मंज़िल पे नज़र रखते हैं.
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मातृत्व महान हो या नहीं पर सहज जरुर होना चाहिए
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.