ये सच्ची कहानी 'माउण्टेन मैन' और करिश्माई शख्स दशरथ मांझी की है, जो बिहार के गया जिले के एक छोटे से गांव 'गहलौर' के रहने वाले थे. जिन्होंने अपनी पत्नी के खातिर बड़े पहाड़ का सीना छेनी और हथौड़ी के दम पर चीर डाला था. उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी पहाड़ काटने में लगा दी. उन्होंने ना रात देखा और ना दिन, ना बारिश की परवाह की और ना हीं कपकपाती ठंड की, बस जुनून था कि सड़क बनानी है और 22 वर्षों के कठिन तपस्या और बुलंद हौसलों के दम पर बना हीं डाला.
"भगवान के भरोसे मत बैठिए, पता नहीं भगवान हमारे भरोसे बैठे हों"
ऊपर की ये लाईन पर्वत पुरुष दशरथ मांझी ने बोली थी. ये लाईन हीं उनके विराट पौरुष के साथ एक जुनूनी हृदय संकल्पित व्यक्तित्व का परिचायक है. जिसको उन्होंने अपने कठोर 22वर्षों के निरंतर परिश्रम से चरितार्थ तथा पारदर्शित किया है वह भी बिना रूके, बिना थके. बस वे तपस्वी के भांति डटे और टिके रहे, अंत में दशरथ मांझी के जुनून के सामने विशाल पहाड़ भी हार मान गया. अंत में उनके अपार हौसला के सामने पहाड़ भी नतमस्तक हो गया.
उनके व्यक्तित्व के अंदर एक अलग प्रकार का जिद्द था जो उनको ललकारता था कि तुम कमजोर हो, तुम आलसी हो, तुम असमर्थ हो जिसको उन्हें पटखनी देनाी थी, पराजित करना था उसमें भी पूरे शानो-शौकत और शोहरत के साथ. उस गर्व के साथ कि हम कमजोर भी नहीं है और आलसी भी नहीं है बस शुरू कब करना था ये हमको मालूम नहीं था.
अब जब विकट परिस्थिति ने हमको मालूम करवाया, तब हम रूकेंगे नहीं तुमको पराजित करके शिरमौर बनना है, सोये हुए समाज और सरकार को जगाना है. असमर्थवान का आवाज बनना है. बस उस दिन से उनका तपस्या...
ये सच्ची कहानी 'माउण्टेन मैन' और करिश्माई शख्स दशरथ मांझी की है, जो बिहार के गया जिले के एक छोटे से गांव 'गहलौर' के रहने वाले थे. जिन्होंने अपनी पत्नी के खातिर बड़े पहाड़ का सीना छेनी और हथौड़ी के दम पर चीर डाला था. उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी पहाड़ काटने में लगा दी. उन्होंने ना रात देखा और ना दिन, ना बारिश की परवाह की और ना हीं कपकपाती ठंड की, बस जुनून था कि सड़क बनानी है और 22 वर्षों के कठिन तपस्या और बुलंद हौसलों के दम पर बना हीं डाला.
"भगवान के भरोसे मत बैठिए, पता नहीं भगवान हमारे भरोसे बैठे हों"
ऊपर की ये लाईन पर्वत पुरुष दशरथ मांझी ने बोली थी. ये लाईन हीं उनके विराट पौरुष के साथ एक जुनूनी हृदय संकल्पित व्यक्तित्व का परिचायक है. जिसको उन्होंने अपने कठोर 22वर्षों के निरंतर परिश्रम से चरितार्थ तथा पारदर्शित किया है वह भी बिना रूके, बिना थके. बस वे तपस्वी के भांति डटे और टिके रहे, अंत में दशरथ मांझी के जुनून के सामने विशाल पहाड़ भी हार मान गया. अंत में उनके अपार हौसला के सामने पहाड़ भी नतमस्तक हो गया.
उनके व्यक्तित्व के अंदर एक अलग प्रकार का जिद्द था जो उनको ललकारता था कि तुम कमजोर हो, तुम आलसी हो, तुम असमर्थ हो जिसको उन्हें पटखनी देनाी थी, पराजित करना था उसमें भी पूरे शानो-शौकत और शोहरत के साथ. उस गर्व के साथ कि हम कमजोर भी नहीं है और आलसी भी नहीं है बस शुरू कब करना था ये हमको मालूम नहीं था.
अब जब विकट परिस्थिति ने हमको मालूम करवाया, तब हम रूकेंगे नहीं तुमको पराजित करके शिरमौर बनना है, सोये हुए समाज और सरकार को जगाना है. असमर्थवान का आवाज बनना है. बस उस दिन से उनका तपस्या शुरु हो गया और आंख में अपने धर्मपत्नी फगुनिया के लिए आंसू भी थे जो उनको भरोसा भी दे रहे थे कि अब कोई फगुनिया इस पहाड़ से ना हीं गिरेगी. ऊंचे पहाड़ के कारण व रोड न रहने के अभाव में समय पर अस्पताल नहीं पहुंचने के कारण कोई फगुनिया दम नहीं तोड़ेगी क्यूंकि अब ये पहाड़ हीं नहीं रहेगा. इसको तोड़कर हम सड़क बना देंगे. गजब का प्रेम था फगुनिया के लिए, तभी तो 22 वर्ष झोंक दिए. अपने शरीर का रोम-रोम खपा दिए उस प्यार के खातिर. इसलिए दशरथ मांझी असली प्रेम का परिचायक हैं. एक इंटरव्यू में अभिनेता पंकज त्रिपाठी बोलते हैं कि जिंदगी वो हिसाब है जिसे पीछे जाकर ठीक नहीं कर सकते, बेहतर है यहां से ठीक करें, यह हकीकत भी है.
जिद्द आदमी को हर असंभव काम संभव करवा सकता है बस लगन से करते जाइए. संभव काम को संभव तो कोई भी कर सकता है पर जिद्दी व्यक्ति हीं असंभव में संभव नाम का दीया जला सकता है. जिद्द समुद्र के जल की तरह स्थिर तथा गहराई युक्त रहता है, कितने भी तरंग और चक्रवाती तूफान आए पर वह अडिग के भांति टिका रहता है. मगर जिद्द न हो तब वह बाढ़ के पानी के भांति तेज धारा के बहाव में आता है, उथल-पुथल करता है और क्षण भर में लुप्त हो जाता है. यही जिद्द दशरथ मांझी बनाता है तब तो वह अकेले छेनी-हथौड़ी के दम पर हुंकार भरकर 360 फुट लंबी, 30फुट चौड़ी और 25 फुट ऊंचे पहाड़ को चकनाचुर करके सड़क बना डाली.
उनकी मां संघर्ष के दिनों में कहती थीं कि 12 दिनों में तो घूरे के भी दिन फिर जाते हैं. उनका यही मंत्र था कि अपने धुन में लगे रहो. यही मंत्र दशरथ मांझी अपने जीवन में बांध रखे थे कि अपना काम करते रहो, चींजें मिलें, न मिले इसकी परवाह मत करो. हर रात के बाद दिन तो आता हीं है. सूर्य अस्त के बाद उदय तो होता ही है.
दशरथ मांझी ने अपने धर्मपत्नी को खोकर प्रण लिया कि किसी और की बेटी-बहू, मां, बच्चे, बुजुर्ग, इस उंची पहाड़ी पर चढ़कर अपनी जान नहीं गवाएंगे. अपनी फगुनिया को खोने का तड़प तो था हीं साथ ही साथ वर्तमान पीढ़ी के लोगों की भी चिंता थी. उस इलाके के लोगों के रक्षा के लिए उन्होंने निश्चय किया कि पहाड़ तोड़कर रास्ता बनाने का जिम्मा मुझे हीं लेना होगा. सरकार या किसी और व्यक्ति के भरोसे नहीं बैठेंगे. कितना परिश्रम किया होगा, क्या परेशानी आई होगी, कैसे -कैसे कष्ट आए होंगे, कितना प्रताङित हुए होंगें.
मांझी_द_माउण्टेन_मैन फिल्म देखने पर आंसू नहीं रूकते हैं. हम लोग सिर्फ सोंच सकते हैं, आश्चर्य कर सकते हैं..क्यूंकि अब के मनुष्य में महसूस करने की क्षमता भी नहीं रही. बाकी कर तो नहीं हीं सकते हैं क्योंकि आज की पीढ़ी को एक क्यारी खोदने में हड्डी-पसली बाहर आ जाता है. एक क्यारी छोङ दीजिए एक गमला में फूल खुरपी से खोदने में दम फूलने लगता है.
हौसला टाईट तो संभव हीं नहीं है, भले हवा-टाईट जरूर हो जाता है. पहाड़ काटने का तो सोच कर आदमी दम तोड़ दे, उसमें भी अगर छेनी-हथौङी से तब वह .......?? किस लिए 22 वर्ष दूसरे के लिए खपाएं? अरे! हमरे परिवार के साथ जो होना था वह हो गया. बस इंग्लिश में That's all कहके हाय-तौबा मचाते हुए, दुनिया जहान को कोसते रहेंगे.
मित्र भरत जी के साथ में जब हम पूज्यनीय श्रद्धेय दशरथ मांझी के प्रतिमा का दर्शन करने के पश्चात उनके द्वारा पहा़ड़ तोड़कर रास्ता बने हुए जगह का अवलोकन कर रहे थे तब वह बोलते हैं कि जानते हैं कोई भी काम 'संकल्प' से होता है, न कि ताकत और पहलवानी से.
नहीं तो दुनिया में एक-से-एक गामा पहलवान और ताकतवर लोग हुए पर कहां किसी ने पहाड़ तोड़ दिया और आज भी कोई भी बलशाली या सुरमा लोग नहीं तोड़ पाएगा. यहां तक कि इस असंभव और अभूतपूर्व कार्य के बारे में कोई भी व्यक्ति सोच भी नहीं सकता है. आज की पीढ़ी क्यूं ना कितना भी ड्राई फ्रूट्स व 36 ठो व्यंजन पा ले और कितना भी जिम में कसरत कर ले पर जबतक उसमें संकल्प नहीं होगा तब तक इस तरह का चुनौतिपूर्ण कार्य करने की सोच भी नहीं उत्पन्न होगी, वहीं करना तो और दूसरी बात है. संकल्प आदमी को क्षण भर में संभव काम को असंभव करवा देता है.
दुष्यंत कुमार की एक पंक्ति याद आती है कि :-
"एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाजुओं को देख पतवारें ना देख.
राख, कितनी राख है चारों तरफ बिखरी हुई
राख में चिंगारियां हीं देख, अंगारे न देख...
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.