विकास के अलग अलग अर्थ लगाए जा सकते हैं. कहीं चमचमाती रौशनी में नहाये हुए शहर जहां सभी तरह की सुखसुविधाएं मौजूद हों, वह विकास कहलाता है, तो कहीं लोगों को मूलभूत आवश्यकता की चीजें उपलब्ध हो जाएं तो भी उसे विकास कहा जा सकता है. वैसे तो आजादी के 75 साल बाद अपने देश के हर नागरिक को सभी मूलभूत चीजें जैसे बिजली, पानी, सड़क, हस्पताल, घर और दो वक़्त की रोटी इत्यादि उपलब्ध होनी ही चाहिए लेकिन अभी भी कुछ कसर बाकी है.लेकिन विकास के चलते जो ग्रामीण परिवेश शहरीकरण की भेंट चढ़ता जा रहा है, उस पर भी गौर करने की जरुरत है.
सबसे ज्यादा दिक्कत जो हो रही है वह है प्रकृति के साथ छेड़छाड़, लोग अंधाधुंध जंगल, पेड़ इत्यादि को काटते जा रहे हैं और उस जगह कंक्रीट के जंगल ऊगा रहे हैं. अब ऐसे में हरियाली विलुप्त हो रही है और प्रदूषण जोर शोर से बढ़ रहा है. अभी हाल ही में हम कोविड काल में ऑक्सीजन की महत्ता को कायदे से समझ गए थे लेकिन जैसे ही चीजें सामान्य हो रही हैं, वैसे वैसे हम ऑक्सीजन, हरियाली इत्यादि भूलते जा रहे हैं.
ऐसे में जरुरत इस बात की भी है कि विकास जरूर हो लेकिन जंगल या हरियाली की कीमत पर नहीं. अभी हाल ही मैं झाबुआ जिले में किसी कार्यवास गया था और जैसे ही हम बड़नगर से आगे बढ़े, चारो तरफ जंगल, पेड़ पौधे, चिड़ियों की चहचहाहट और आंखों को सुकून देने वाली हरियाली नजर आने लगी.
सड़क पर इक्का दुक्का वहां ही नजर आ रहे थे लेकिन जो चीज सबसे ज्यादा सुकून दे रही थी, वह थी उस इलाके में बसे गांव और वहां रहने वाले सुकून पसंद लोग. बैलगाड़ी पर जाते हुए परिवार, जानवरों को खिलाने के लिए सर पर हरियाली का गट्ठर ले जाते हुए लोग, सड़क के किनारे बने झोपड़ों के बाहर घूमती बकरियां और उछलते कूदते मुर्गे...
विकास के अलग अलग अर्थ लगाए जा सकते हैं. कहीं चमचमाती रौशनी में नहाये हुए शहर जहां सभी तरह की सुखसुविधाएं मौजूद हों, वह विकास कहलाता है, तो कहीं लोगों को मूलभूत आवश्यकता की चीजें उपलब्ध हो जाएं तो भी उसे विकास कहा जा सकता है. वैसे तो आजादी के 75 साल बाद अपने देश के हर नागरिक को सभी मूलभूत चीजें जैसे बिजली, पानी, सड़क, हस्पताल, घर और दो वक़्त की रोटी इत्यादि उपलब्ध होनी ही चाहिए लेकिन अभी भी कुछ कसर बाकी है.लेकिन विकास के चलते जो ग्रामीण परिवेश शहरीकरण की भेंट चढ़ता जा रहा है, उस पर भी गौर करने की जरुरत है.
सबसे ज्यादा दिक्कत जो हो रही है वह है प्रकृति के साथ छेड़छाड़, लोग अंधाधुंध जंगल, पेड़ इत्यादि को काटते जा रहे हैं और उस जगह कंक्रीट के जंगल ऊगा रहे हैं. अब ऐसे में हरियाली विलुप्त हो रही है और प्रदूषण जोर शोर से बढ़ रहा है. अभी हाल ही में हम कोविड काल में ऑक्सीजन की महत्ता को कायदे से समझ गए थे लेकिन जैसे ही चीजें सामान्य हो रही हैं, वैसे वैसे हम ऑक्सीजन, हरियाली इत्यादि भूलते जा रहे हैं.
ऐसे में जरुरत इस बात की भी है कि विकास जरूर हो लेकिन जंगल या हरियाली की कीमत पर नहीं. अभी हाल ही मैं झाबुआ जिले में किसी कार्यवास गया था और जैसे ही हम बड़नगर से आगे बढ़े, चारो तरफ जंगल, पेड़ पौधे, चिड़ियों की चहचहाहट और आंखों को सुकून देने वाली हरियाली नजर आने लगी.
सड़क पर इक्का दुक्का वहां ही नजर आ रहे थे लेकिन जो चीज सबसे ज्यादा सुकून दे रही थी, वह थी उस इलाके में बसे गांव और वहां रहने वाले सुकून पसंद लोग. बैलगाड़ी पर जाते हुए परिवार, जानवरों को खिलाने के लिए सर पर हरियाली का गट्ठर ले जाते हुए लोग, सड़क के किनारे बने झोपड़ों के बाहर घूमती बकरियां और उछलते कूदते मुर्गे मुर्गियां, बच्चे भी उसी में सड़क किनारे खेल रहे थे.
किसी किसी घर के सामने मोटरसाइकिल कड़ी थी वर्ना अधिकांश घरों के सामने साइकिल ही दिखाई देती थी. कुल मिलाकर ऐसा अद्भुत दृश्य जो आजकल की पीढ़ी को सिर्फ फिल्मों में ही देखने को मिलता है. झाबुआ और धार दो जिले आस पास हैं और दोनों ही विकास के इस पैमाने पर थोड़े पिछड़े हुए हैं.
लेकिन अगर जिंदगी के लिहाज से देखें तो ये दोनों जिले तमाम कठिनाईयों के बावजूद अपनी पहचान बनाये हुए हैं. बस यहां जरुरत है तो स्कूल की, हस्पताल की, बिजली की और सड़क की लेकिन उस विकास की कीमत इनके जंगल या हरियाली न चुकाएं.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.