आप विदेशों में जाएं तो रंग भेद की समस्या देखने को मिलती है. लेकिन अपना देश सांस्कृतिक तौर पर ही नहीं, भेदों में भी समृद्ध है. अमीर-ग़रीब, गोरे-काले के मसले से ऊपर हिंदू-मुस्लिम के धार्मिक मसले आते हैं. और फिर जातिगत लफ़ड़े में पड़ेंगे तो ‘आइला इससे भी आगे कुछ होता है क्या? वाले भ्रम में पड़ जाएंगे! पर धर्म भले ही अलग हो, एक दूसरे के अहित में भी हम टांग अड़ाने से बाज़ नहीं आते. पंजाब हरियाणा की उच्च अदालत से आया एक फ़ैसला 'मेरी कोई फीलिंग्स नहीं है क्या? त्वाडा कुत्ता टॉमी साडा कुत्ता कुत्ता?' जैसी फीलिंग्स ले कर आया है. मुस्लिम आदमी चाहे तो बिना तलाक़ के दूसरी, तीसरी या चौथी शादी कर सकता है. लेकिन मुस्लिम औरत को दूसरी शादी के लिए तलाक़ लेना ज़रूरी है. पर्सनल लॉ के तहत मुस्लिम मर्दों को बहुविवाह का अधिकार मिलता है, क्या औरतों को भी मिलेगा? ये सोच कर किसी ने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया, तो अदालत ने जैसे उसे औक़ात दिखा दी - क्यों तुम्हारे पंख लगे हैं क्या ? तुम कैसे बिना तलाक़ के दूसरी शादी कर लोगी? वैसे पंख तो मुस्लिम मर्दों के भी नहीं होते, फिर उन्हें ये विशेषाधिकार क्यों है? मौलाना - मौलवी तय नहीं कर रहे, तो देश की कोई अदालत ही कर दे!
औरत जब घर और दफ़्तर दोनों संभाल सकती है तो बिना तलाक़ के दो घर भी संभाल ही लेगी ना! और अगर आपको नैतिक तौर पर ये ग़लत लगता है तो आदमी का यही करना, नैतिक तौर पर सही कैसे हो जाता है? मुझे ये तलाकशुदा-विधवा औरतों को पनाह दे कर उनका भला करने वाला तर्क बड़ा बचकाना लगता है, क्यों कि ऐसा भला औरत भी तो कर सकती है किसी गरीब-ज़रूरतमंद के साथ दूसरा घर बसा कर.
अदालत का एक और बड़ा फ़ैसला तो उन रूढ़िवादी मोहल्लों...
आप विदेशों में जाएं तो रंग भेद की समस्या देखने को मिलती है. लेकिन अपना देश सांस्कृतिक तौर पर ही नहीं, भेदों में भी समृद्ध है. अमीर-ग़रीब, गोरे-काले के मसले से ऊपर हिंदू-मुस्लिम के धार्मिक मसले आते हैं. और फिर जातिगत लफ़ड़े में पड़ेंगे तो ‘आइला इससे भी आगे कुछ होता है क्या? वाले भ्रम में पड़ जाएंगे! पर धर्म भले ही अलग हो, एक दूसरे के अहित में भी हम टांग अड़ाने से बाज़ नहीं आते. पंजाब हरियाणा की उच्च अदालत से आया एक फ़ैसला 'मेरी कोई फीलिंग्स नहीं है क्या? त्वाडा कुत्ता टॉमी साडा कुत्ता कुत्ता?' जैसी फीलिंग्स ले कर आया है. मुस्लिम आदमी चाहे तो बिना तलाक़ के दूसरी, तीसरी या चौथी शादी कर सकता है. लेकिन मुस्लिम औरत को दूसरी शादी के लिए तलाक़ लेना ज़रूरी है. पर्सनल लॉ के तहत मुस्लिम मर्दों को बहुविवाह का अधिकार मिलता है, क्या औरतों को भी मिलेगा? ये सोच कर किसी ने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया, तो अदालत ने जैसे उसे औक़ात दिखा दी - क्यों तुम्हारे पंख लगे हैं क्या ? तुम कैसे बिना तलाक़ के दूसरी शादी कर लोगी? वैसे पंख तो मुस्लिम मर्दों के भी नहीं होते, फिर उन्हें ये विशेषाधिकार क्यों है? मौलाना - मौलवी तय नहीं कर रहे, तो देश की कोई अदालत ही कर दे!
औरत जब घर और दफ़्तर दोनों संभाल सकती है तो बिना तलाक़ के दो घर भी संभाल ही लेगी ना! और अगर आपको नैतिक तौर पर ये ग़लत लगता है तो आदमी का यही करना, नैतिक तौर पर सही कैसे हो जाता है? मुझे ये तलाकशुदा-विधवा औरतों को पनाह दे कर उनका भला करने वाला तर्क बड़ा बचकाना लगता है, क्यों कि ऐसा भला औरत भी तो कर सकती है किसी गरीब-ज़रूरतमंद के साथ दूसरा घर बसा कर.
अदालत का एक और बड़ा फ़ैसला तो उन रूढ़िवादी मोहल्लों की याद दिलाता है, जहां पड़ोस की औरतें नज़र रखा करती थीं या आवारा लड़के ताड़ा करते थे कि कब किसकी लड़की जवान हो गई. पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट का कहना है कि वो मुस्लिम लड़की जो 18 वर्ष से भले ही कम हो लेकिन यौवन प्राप्त कर चुकी है, वो शादी करने के लिए स्वतंत्र है. बात तो उसी स्वतंत्रता की है माईलॉर्ड! क्या वो लड़की स्वतंत्र है? या मुस्लिम समाज स्वतंत्र है उस पर इस बात को थोपने के लिए?
नवंबर 2020 में पाकिस्तान से एक वीडियो आया था. सिंध में एक औरत अपनी तेरह साल की बच्ची से मिलने को तड़प रही थी. सिर्फ तेरह साल की एक ईसाई लड़की का, 44 साल के अली अज़हर ने अपहरण कर लिया था और जबरन शादी कर ली. लेकिन कोर्ट तक ने उसे किडनैपर के साथ भेज दिया. उस वीडियो को देखेंगे तो दिल पसीज भी जाएगा और दहल भी जाएगा कि कैसे कोई आपकी बच्ची के जवान होने के पैमाने सेट करके बैठा है.
कहने को तो आधी आबादी है, लेकिन अधिकारों के नाम पर इस आधी आबादी की आधी आबादी शून्य है और उस पर ताज्जुब ये कि गिनी चुनी आवाज़ो के सिवाय कभी कोई चीख सुनाई नहीं देती दम घुटने की. क्यों एक ही देश में बच्चियों के बचपन को इस तरह अलग अलग कैटेगरी में बांटा जा रहा है धर्म के पैमाने पर?
लड़कियां और लड़कियों की माएं भी, हर उस शख़्स के शब्दों को नीयत से तोल लेती हैं जो कहता है कि 'अरे बच्ची तो बड़ी हो गई'. यहां तो साफ़ साफ़ लिखा है ही यौवन के सबूत क्या हैं? कमाल है, सूफ़ी होकर भी सोचें तो आदमी सारी उम्र परिपक्वता तलाशता रहता है और आपने तो अंगों के आधार पर छांटकर मुस्लिम लड़की को परिपक्व भी मान लिया और शादी करने लायक भी. फिर बुरा क्यों लग जाता है जब कोई पूरी कौम पर औरतों को बस बच्चा पैदा करने की फ़ैक्ट्री समझने का आरोप लगा देता है. क्योंकि अल्टिमेटली तो आप शरीर को ‘प्रोडक्शन कैपेसिटी’ के आधार पर ही जज कर रहे हैं ना.
परिपक्वता तो महज़ जुमला है और ये जो स्वतंत्रता की बात हो रही है न, वो औरत को नहीं है. दरअसल वो यौवन के आते ही स्वतंत्र हो जाती है समाज का शिकार बनने के लिए भी.
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