संविधान से भी ऊपर अपने कानून को सर्वश्रेष्ठ साबित करने में लगे ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने मुस्लिमों में प्रचलित तीन तलाक और चार शादियों के नियम को उचित ठहराते हुए सुप्रीम कोर्ट से इसमें दखल न देते हुए इस प्रावधान को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खत्म करने की मांग की है. बोर्ड का कहना है कि ये पवित्र कुरान और हमारी धार्मिक स्वतंत्रता पर आधारित है. इसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा सामाजिक सुधार के नाम पर नहीं बदला जा सकता.
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने ये दलीलें मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के मामले में लंबित याचिका का जवाब दाखिल करते हुए ताजा हलफनामे में दी है, जिस पर कोर्ट छह सितंबर को सुनवाई करेगा.
दरअसल, मुस्लिम समाज में मौजूद एक कट्टरपंथी धड़े की यह प्रवृत्ति रही है जो अक्सर सामने भी आ जाती है कि उसके लिए संविधान और उसके कायदे-कानूनों आदि से ऊपर उसका मज़हब है. इसीलिए कभी किसी को राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत से दिक्कत महसूस होने लगती है, तो कभी कुछ लोग योग और सूर्य नमस्कार से तौबा करने लगते हैं.
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गौरतलब है कि मुस्लिमों में तीन बार बोल कर तलाक देने की प्रथा (तलाक-ए-बिदत) भारत में बहुत पहले से चली आ रही है. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इसे अपनी धार्मिक स्वतंत्रता और संस्कृति बताता रहा है. इसके कारण कई मुस्लिम महिलाओं के घर टूट रहे हैं और उन्हें उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है.
इस कानून का विरोध करते हुए उत्तराखंड की शायरा बानो, जयपुर की आफरीन और पश्चिम बंगाल के हावड़ा की इशरत जहां ने सुप्रीम कोर्ट में अपने लिए न्याय की गुहार लगाते हुए याचिका दायर की थी. इशरत ने अपनी याचिका में कहा है कि उसके पति ने दुबई से ही फोन पर उसे तलाक दे दिया और चारों बच्चों को जबरन...
संविधान से भी ऊपर अपने कानून को सर्वश्रेष्ठ साबित करने में लगे ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने मुस्लिमों में प्रचलित तीन तलाक और चार शादियों के नियम को उचित ठहराते हुए सुप्रीम कोर्ट से इसमें दखल न देते हुए इस प्रावधान को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खत्म करने की मांग की है. बोर्ड का कहना है कि ये पवित्र कुरान और हमारी धार्मिक स्वतंत्रता पर आधारित है. इसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा सामाजिक सुधार के नाम पर नहीं बदला जा सकता.
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने ये दलीलें मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के मामले में लंबित याचिका का जवाब दाखिल करते हुए ताजा हलफनामे में दी है, जिस पर कोर्ट छह सितंबर को सुनवाई करेगा.
दरअसल, मुस्लिम समाज में मौजूद एक कट्टरपंथी धड़े की यह प्रवृत्ति रही है जो अक्सर सामने भी आ जाती है कि उसके लिए संविधान और उसके कायदे-कानूनों आदि से ऊपर उसका मज़हब है. इसीलिए कभी किसी को राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत से दिक्कत महसूस होने लगती है, तो कभी कुछ लोग योग और सूर्य नमस्कार से तौबा करने लगते हैं.
यह भी पढ़ें- क्या मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अपनी बेतुकी दलीलों के जवाब दे पाएगा?
गौरतलब है कि मुस्लिमों में तीन बार बोल कर तलाक देने की प्रथा (तलाक-ए-बिदत) भारत में बहुत पहले से चली आ रही है. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इसे अपनी धार्मिक स्वतंत्रता और संस्कृति बताता रहा है. इसके कारण कई मुस्लिम महिलाओं के घर टूट रहे हैं और उन्हें उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है.
इस कानून का विरोध करते हुए उत्तराखंड की शायरा बानो, जयपुर की आफरीन और पश्चिम बंगाल के हावड़ा की इशरत जहां ने सुप्रीम कोर्ट में अपने लिए न्याय की गुहार लगाते हुए याचिका दायर की थी. इशरत ने अपनी याचिका में कहा है कि उसके पति ने दुबई से ही फोन पर उसे तलाक दे दिया और चारों बच्चों को जबरन छीन लिया. इशरत का निकाह 2001 में हुआ था. इशरत की याचिका के मुताबिक तीन तलाक गैरकानूनी बताया गया है और साथ ही इसे मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का हनन बताया गया है. मुस्लिम बुद्धिजीवी भी इसे गलत करार दे रहे है.
बेतुकी हैं मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की दलीलें? |
एक साथ तीन तलाक के मुद्दे पर इस्लामी जानकारों में जामिया मिलिया इस्लामिया में इस्लामी अध्ययन विभाग के प्रोफेसर जुनैद हारिस का कहना है कि हमारे देश में तीन तलाक की जो व्यवस्था है और जिसे पर्सनल लॉ बोर्ड ने मान्यता दी है, वो पूरी तरह कुरान और इस्लाम के मुताबिक नहीं है. तलाक की पूरी व्यवस्था को लोगों ने अपनी सहूलियत के मुताबिक बना दिया है. कुरान में स्पष्ट किया गया है कि एक साथ तीन बार तलाक नहीं कहा जा सकता. एक तलाक के बाद दूसरा तलाक बोलने के बीच करीब एक महीने का अंतर होना चाहिए. इसी तरह का अंतर दूसरे और तीसरे तलाक के बीच होना चाहिए. ये व्यवस्था इसलिए की गई है, ताकि आखिरी समय तक सुलह की गुंजाइश बनी रहे. ऐसे में एक साथ तीन तलाक मान्य नहीं हो सकता.
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वहीं, मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए काम करने वाली संगठन 'भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन' (बीएमएमए) ने हाल ही में तीन तलाक की व्यवस्था को खत्म करने की मांग को लेकर देश भर से 50,000 से अधिक महिलाओं के हस्ताक्षर लिए और राष्ट्रीय महिला आयोग से इस मामले में मदद मांगी.
बीएमएमए की संयोजक नूरजहां सफिया नियाज का कहना है, 'मुस्लिम महिलाओं को भी संविधान में अधिकार मिले हुए हैं और अगर कोई व्यवस्था समानता और न्याय के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ है तो उसमें बदलाव होना चाहिए.' इसके साथ ही सह-संस्थापक जाकिया सोमान का कहा कि मुस्लिम लॉ बोर्ड ने जिस कुरान का हवाला देकर सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर किया है, वह केवल और केवल अपनी पुरुष प्रधान मानसिकता वाले कानून को मुस्लिम समाज पर थोपना चाह रहा है. हमारे पवित्र कुरान में ऐसा कुछ भी नहीं लिखा गया है. ये सब झूठ बोल रहे हैं.
एक ओर जहां भारत से भी पिछड़े पाकिस्तान, सूडान, जॉर्डन जैसे इस्लामिक देशों में तीन बार बोल कर तुरंत तलाक देने की प्रथा खत्म कर दी गई है. वहीं विकसित देशों की कतार में खड़े भारत में जबरन अपने बनाए कानूनों को लादा जा रहा है. तरह-तरह की दलीलें पेश की जा रही हैं कि पुरुष शारीरिक रूप से महिला से ज्यादा ताकतवर होता है. शरीयत में पुरुष को तलाक का हक दिया गया है, क्योंकि पुरुष के पास फैसला लेने की अधिक क्षमता होती है. वे अपनी भावनाओं को ज्यादा काबू कर सकते हैं और जल्दबाजी में फैसला नहीं करते...आदि.
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मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने जो दलीलें दी हैं, वो पूरी तरह से अमान्य हैं. यह किसी तरह स्वीकार्य नहीं हो सकता कि पुरुष महिलाओं से हर तरह से आगे हैं, जिसकी वजह से उन्हें तलाक का अधिकार प्राप्त है. जिस देश में महिला चांद पर पहुंच गई, ओलंपिक में अपने देश का झंडा फहरा कर आ गई हो, वहां की महिला कमजोर और फैसले लेने में कभी भी कमतर नहीं हो सकती.
मुस्लिम लॉ बोर्ड इस गलतफहमी को अपने दिमाग से निकालें और साथ ही ये याद रखे कि वो एक लोकतांत्रिक देश का हिस्सा है, जिसका एक संविधान है और ये देश उसी हिसाब से चलता है. इसलिए, उसे और उसे मानने वालों को भी उस संविधान के कायदों के हिसाब से ही चलना होगा.
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