हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं जिसमें पुरुषों का बोलबाला और वर्चस्व है. एक ऐसा पितृसत्तात्मक समाज जहां धर्म चाहे कोई भी हो. मगर सारे अहम फैसले पुरुष लेता है. वर्तमान समय में घर-मुहल्ले से लेकर सम्पूर्ण सोशल मीडिया तक, हम लगातार नारीवाद और उससे जुड़ी बात कर रहे हैं. आज भले ही हम लोगों द्वारा फेमिनिज्म को लेकर बड़े-बड़े सेमिनारों और संगोष्ठियों का आयोजन किया जा रहा है. भले ही हम अलग-अलग कैम्पेनों के माध्यम से नारियों और उनके अधिकारों की वकालत कर रहे हैं, मगर हकीकत हमारी अपीलों से जरा इतर है.
हिंदुस्तान में महिलाओं की, खासतौर से मुस्लिम महिलाओं की, हालत क्या है ये बात किसी से भी छुपी नहीं है. चाहे सामाजिक रूप से हो या फिर धर्म के नाम पर, भारतीय मुस्लिम महिलाओं की स्थिति बद से बदतर है. इनके बीच चरमपंथियों और धर्म के ठेकेदारों का ये कहना कि मुस्लिम महिलाएं घर में ही रहें तो ठीक है. साथ ही कट्टरपंथियों द्वारा अक्सर ये भी सुना गया है कि बेड़ियों से जकड़ी ये महिलाएं यदि बाहर आती हैं और पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती हैं तो इससे समाज और रिश्तों का बैलेंस बिगड़ेगा.
हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं जिसमें पुरुषों का बोलबाला और वर्चस्व है. एक ऐसा पितृसत्तात्मक समाज जहां धर्म चाहे कोई भी हो. मगर सारे अहम फैसले पुरुष लेता है. वर्तमान समय में घर-मुहल्ले से लेकर सम्पूर्ण सोशल मीडिया तक, हम लगातार नारीवाद और उससे जुड़ी बात कर रहे हैं. आज भले ही हम लोगों द्वारा फेमिनिज्म को लेकर बड़े-बड़े सेमिनारों और संगोष्ठियों का आयोजन किया जा रहा है. भले ही हम अलग-अलग कैम्पेनों के माध्यम से नारियों और उनके अधिकारों की वकालत कर रहे हैं, मगर हकीकत हमारी अपीलों से जरा इतर है.
हिंदुस्तान में महिलाओं की, खासतौर से मुस्लिम महिलाओं की, हालत क्या है ये बात किसी से भी छुपी नहीं है. चाहे सामाजिक रूप से हो या फिर धर्म के नाम पर, भारतीय मुस्लिम महिलाओं की स्थिति बद से बदतर है. इनके बीच चरमपंथियों और धर्म के ठेकेदारों का ये कहना कि मुस्लिम महिलाएं घर में ही रहें तो ठीक है. साथ ही कट्टरपंथियों द्वारा अक्सर ये भी सुना गया है कि बेड़ियों से जकड़ी ये महिलाएं यदि बाहर आती हैं और पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती हैं तो इससे समाज और रिश्तों का बैलेंस बिगड़ेगा.
खबर है कि, भारतीय मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों पर काम करने वाली संस्था 'भारतीय मुस्लिम महिला आदोलन'. भारतीय मुस्लिम महिलाओं को काज़ी या इमाम बनाने के लिए उन्हें ट्रेनिंग दे रही है. आपको बताते चलें कि ज़किया सोनम जिन्होंने 'भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन' की स्थापना की है, उन्होंने ही पूर्व में दारुल उलूम निस्वां को भी स्थापित किया था. इन महिलाओं को भी दारुल उलूम निस्वां की ही सरपरस्ती में तैयार किया जा रहा है. फिल्हाल इस संस्था का उद्देश्य सम्पूर्ण भारत में 15 महिला काजियों को स्थापित करना है.
बहरहाल, ये वाकई एक अच्छी पहल है. एक ऐसी पहल जो सच में सराहनीय है. इससे न सिर्फ मौजूदा वक़्त में बदहाली की जिंदगी जी रही मस्लिम महिलाओं को बल मिलेगा बल्कि ये चरमपंथी रवैये और कट्टरपंथी स्वाभाव के मूल को भी नष्ट करने में रामबाण साबित होगी.
गौरतलब है कि अभी बीते दिनों जर्मनी में भी हम कुछ ऐसा नजारा देख चुके हैं जहां एक लिबरल मस्जिद का निर्माण कर एक महिला को उसका इमाम बनाया गया है. इसके पीछे की वजह पर अपने तर्क प्रस्तुत करते हुए उस मस्जिद की इमाम ने इस बात पर बल डाला कि इस्लाम में जो अधिकार एक पुरुष के हैं, वही एक महिला के भी हैं. ऐसे में यदि किसी महिला को मस्जिद के इमाम के अहम पद की जिम्मेदारी मिलती है तो समुदाय के अंतर्गत हर वर्ग को इसकी सराहना करनी चाहिए.
अंत में इतना ही कि, यदि वाकई उस कट्टरपंथी समाज को, जो लगातार महिला हितों पर बात करता है. ये महसूस होता है कि केवल वही मुस्लिम महिलाओं और हितों पर बात कर सकते हैं तो उन्हें अब अपने दिन गिनने शुरू कर देने चाहिए. कह सकते हैं कि अब उनका दिन लद चुका है. ऐसा इसलिए क्योंकि अब तक उनकी सोच ने समुदाय की महिलाओं को दबा के रखा था और उनका जीना मुहाल किया था. लेकिन अब वो वक़्त आ चुका है जब समुदाय की महिलाओं ने खुद, उस बंदिश और अपने पर जकड़ी हुई बेड़ियों को तोड़, महिला सशक्तिकरण जैसे संवेदनशील मुद्दे को एक सही दिशा दी है और बल दिया है.
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