पढ़ाई के दिनों में दोस्तों के साथ बाहर घूमने गया था वहीं क्लियोपेट्रा की एक मूर्ति मुझे पसंद आई तो तो उसे खरीद कर घर ले आया. उस मूर्ति को मैंने बाहरी कमरे में सजाया. कुछ दिनों बाद मस्जिद के इमाम की हमारे घर दावत हुई. इमाम साहब आये और खाना खाते वक़्त उनका सारा ध्यान उस मूर्ति पर था. मुझे वो जानते थे कि मैं कितने खुले विचारों वाला हूं. मूर्ति को देखकर वो कहना तो बहुत कुछ चाहते थे मगर ज़्यादा कुछ कह न पाए. अंत मे सिर्फ़ मुझ से इतना कहा कि 'घर मे मूर्ति नहीं रखनी चाहिए ताबिश साहब. ये बहुत बड़ा गुनाह है'.
मैंने उनकी बात को सुन कर अनसुना कर दिया. मगर इमाम साहब ने बाहर जा कर अपना काम कर दिया. मोहल्ले के कुछ 'कट्टर' मजहबी लड़कों से मेरे घर मे उस मूर्ति का ज़िक्र कर दिया. एक लड़का जो मेरा दोस्त था किसी बहाने से मेरे घर आया. बाहरी कमरे में बैठा और फिर क्लियोपेट्रा की मूर्ति देखकर मुस्कुराया. मुझे दीन समझाने लगा, गर्मा गरम बहस हुई. अंत मे मुझे धमकी दी उसने कि 'बाहर मिलो तुंम्हारी गर्दन रेत दूंगा मैं'. मगर बात चूंकि मोहल्ले की थी इसलिए मैं भी उस से नहीं डरा. मैं रोज उसके सामने से निकलता और कहता 'आओ रेतो मेरी गर्दन'. धीरे धीरे मामला रफ़ा दफ़ा हो गया. लोग अब कहते तो कुछ न थे मगर हमारा मूर्ति रखना किसी को फूटी आंख नहीं भा रहा था.
कुछ दिनों बाद खानदान में बातें होने लगीं. कुछ औरतें जो 'मसाला मार' के इधर की बात उधर करती थीं, उन्होंने खानदान में ये कहा कि 'ताबिश के घर वाले तो मूर्ति पूजा करने लगे हैं और ये लोग छिप कर मूर्ति को दूध पिलाते हैं'. ये मामला उस समय उड़ाया गया जब 'गणेश जी के दूध' पीने वाला प्रकरण हुआ था. खानदान के लोग बहाने बहाने से हमारे बाहरी कमरे में जाने लगे और बाहर जाकर लोगों को कन्फर्म करने लगे कि हां 'मूर्ति रखी है, इसलिए पूजा होती है'.
ये इतना बवाल खानदान भर...
पढ़ाई के दिनों में दोस्तों के साथ बाहर घूमने गया था वहीं क्लियोपेट्रा की एक मूर्ति मुझे पसंद आई तो तो उसे खरीद कर घर ले आया. उस मूर्ति को मैंने बाहरी कमरे में सजाया. कुछ दिनों बाद मस्जिद के इमाम की हमारे घर दावत हुई. इमाम साहब आये और खाना खाते वक़्त उनका सारा ध्यान उस मूर्ति पर था. मुझे वो जानते थे कि मैं कितने खुले विचारों वाला हूं. मूर्ति को देखकर वो कहना तो बहुत कुछ चाहते थे मगर ज़्यादा कुछ कह न पाए. अंत मे सिर्फ़ मुझ से इतना कहा कि 'घर मे मूर्ति नहीं रखनी चाहिए ताबिश साहब. ये बहुत बड़ा गुनाह है'.
मैंने उनकी बात को सुन कर अनसुना कर दिया. मगर इमाम साहब ने बाहर जा कर अपना काम कर दिया. मोहल्ले के कुछ 'कट्टर' मजहबी लड़कों से मेरे घर मे उस मूर्ति का ज़िक्र कर दिया. एक लड़का जो मेरा दोस्त था किसी बहाने से मेरे घर आया. बाहरी कमरे में बैठा और फिर क्लियोपेट्रा की मूर्ति देखकर मुस्कुराया. मुझे दीन समझाने लगा, गर्मा गरम बहस हुई. अंत मे मुझे धमकी दी उसने कि 'बाहर मिलो तुंम्हारी गर्दन रेत दूंगा मैं'. मगर बात चूंकि मोहल्ले की थी इसलिए मैं भी उस से नहीं डरा. मैं रोज उसके सामने से निकलता और कहता 'आओ रेतो मेरी गर्दन'. धीरे धीरे मामला रफ़ा दफ़ा हो गया. लोग अब कहते तो कुछ न थे मगर हमारा मूर्ति रखना किसी को फूटी आंख नहीं भा रहा था.
कुछ दिनों बाद खानदान में बातें होने लगीं. कुछ औरतें जो 'मसाला मार' के इधर की बात उधर करती थीं, उन्होंने खानदान में ये कहा कि 'ताबिश के घर वाले तो मूर्ति पूजा करने लगे हैं और ये लोग छिप कर मूर्ति को दूध पिलाते हैं'. ये मामला उस समय उड़ाया गया जब 'गणेश जी के दूध' पीने वाला प्रकरण हुआ था. खानदान के लोग बहाने बहाने से हमारे बाहरी कमरे में जाने लगे और बाहर जाकर लोगों को कन्फर्म करने लगे कि हां 'मूर्ति रखी है, इसलिए पूजा होती है'.
ये इतना बवाल खानदान भर में और मुहल्ले भर में सिर्फ़ इसलिए हो रहा था क्योंकि मेरे बाहरी कमरे में क्लियोपेट्रा की बड़ी सी मूर्ति सजी थी. मामला बढ़ता ही जा रहा था और अंत मे मेरी दादी की बहन आईं और उन्होंने खूब उल्टा सीधा कहा. कहा कि तुम लोग एक मूर्ति के लिए सबसे पंगा ले रहे हो. जाने लोग क्या-क्या बात बना रहे हैं. और अंत मे तंग आ कर पापा ने उस मूर्ति को तोड़ दिया. फिर सारे मोमिन खुश हो गए और मोहल्ले और खानदान में फिर से हम लोग 'मुसलमान' माने जाने लगे.
बहुत लोगों को शायद ये कुछ बड़ी घटना न लगे. इस बात का गवाह मेरा पूरा घर है. एक प्लास्टर ऑफ पेरिस की बनी क्लियोपेट्रा की मूर्ति और मोमिनो का इस्लाम. मेरे घर मे एक मूर्ति से सबका ईमान ख़तरे में आ गया था और आखिर मिल जुल के सबने उसे तुड़वा दिया.
सोचिये, बंगाल में जो दंगा हुआ है, पैग़म्बर के अपमान को लेकर वो तो कुछ भी नहीं है. जब एक घर में रखी सिर्फ एक मूर्ति को लोगों ने अपना 'इस्लाम' बना लिया और पीछे पड़ गए थे हम लोगों के. ये आलिम, मौलाना जो भी चाहे करवा लें भीड़ से. इसीलिए ये लोग गुट और अपना-अपना मोहल्ला बनाकर रहते हैं और उस गुट और मोहल्ले पर पूरा कब्ज़ा 'धार्मिक लीडर' का होता है. खासकर मुस्लिम मोहल्ले और उसे भेदना सबके बस की बात नहीं है. इनका 'साम्राज्य' इनके मोहल्लों और भीड़ में बहुत मजबूती से फैला होता है. इसलिए इस पर क्या विरोध करूं मैं? क्या कहूं? ये तो रोज की बात है. इसलिए मैं अब मूल सुधारने की अपील करता हूं सबसे.
ये बिमारी इतनी ज़्यादा गहरी है कि बहुत कम लोगों को इसका अंदाज़ा है. ये क्यों मूर्ति देखकर भड़क जाते हैं? ये 'पैगम्बर' के कार्टून पर बवाल करना उसी मानसिकता का हिस्सा है. कार्टून छोडिये, एक इंग्लिश मूवी में एक एक्टर ने 'मुहम्मद' का अभिनय कर दिया था तो उसका गला काटने का फतवा जाने कितने आलिमों ने जारी कर दिया था. वहां कोई कार्टून नहीं था. उसे भी ये मारने पर उतर आए. कोई भी मूवी ऐसी नहीं बन सकती है जिसमें 'मुहम्मद' को दिखाया जा सके. पूरी दुनिया में किसी की हिम्मत नहीं है जो ऐसा कर सके. ऐसा क्यों है इसको बहुत कम लोग जानते हैं और जो जानते भी हैं वो इसे सुधारने के लिए कभी आगे नहीं आते.
इरान में शिया मुहम्मद साहब, अली इत्यादि की तस्वीरें रखते हैं. यहां भी रखते हैं. इमामबाड़ों में भी ये तस्वीरें देखने को मिल जाती हैं. और ये भी एक बड़ी वजह है जिसलिए 'सऊदी वाले' मुसलमान शियों को मुसलमान नहीं मानते हैं और उनके मारे जाने को 'सही' ठहराते हैं. शियों से दुश्मनी की एक सबसे बड़ी वजह ये भी है.
ये बिमारी बहुत बहुत गहरी है और ये बिमारी बढ़ी ही इसलिए क्योंकि सारी दुनिया ने इसे 'स्वीकार' कर लिया. ये 'आक्रामक' बने रहे और लोग इसे स्वीकार करते रहे. इन्होंने कहा कि हमारे देश में आओ तो सर से चादर लपेट के आओ और लोगों ने मान लिया. इन्होंने कहा कि अपने प्रोडक्ट बनाओ तो उसमे 'हलाल' लिखो. कंपनी ने पैसे के लालच में लिखना शुरू कर दिया. जबकि कंपनियों ने ये नहीं सोचा कि एक प्रोडक्ट को 'हलाल' बना देने पर दूसरा अपने प्रोडक्ट आप 'हराम' साबित हो जाता है. ये अंदर अंदर खुश होते रहे ये देखकर कि तुम तो 'हराम' खाते हो. और इसे 'नफ़रत' से देखते रहे. देश और बड़ी-बड़ी कंपनियां पैसों के लिए, सेक्युलर बनने के लिए, फ़ालतू का भाईचारा दिखाने के लिए इनकी बातें मानती गयीं. और इनकी डिमांड बढ़ती ही गयी. पचास से अधिक देश इन्होंने 'इस्लामिक' बना लिए और हम इन्हें खुशी-खुशी सब करने देते गए. और एक छोटा सा 'इस्राईल' भी इनसे लड़ता है तो उसे हम क्रूर कहते रहे.
अगर आप मुसलमान हैं और आपको मेरी बात बुरी लग रही है तो जान लीजिये कि आप पूरी तरह से अरबी 'दादागिरी' की गिरफ़्त में हैं. ये सब धर्म नहीं है. ये राजनीति है और शुद्ध राजनीति. अरबों का 'इस्लाम', धर्म नहीं है. मस्जिदों में 'इस्राईल' को बद्दुआ देना 'धर्म' नहीं है. ग्यारह साल के बच्चे को 'एक कार्टून' के लिए दोष देना और उस वजह से पचासों लोगों की दुकानें जला देना 'धर्म' नहीं है. ये 'राजनैतिक दादागिरी' है. और आपके धर्म का ढांचा कुछ नहीं अब सिर्फ 'राजनीति' है. बस गड़बड़ ये हुआ कि आपकी इस 'दादागिरी' को लोगों ने अब तक सहा है. तो आपको ये अपने धर्म का हिस्सा लगने लगा है.
इसे मजहब कहते हैं आप? शर्म नहीं आती है आपको खुद को मुसलमान कहते हुए? बांग्लादेश में आपने कितने 'ब्लोगेर' बच्चों को मार दिया, पाकिस्तान में 'ब्लासफेमी' के नाम पर कितनो को मार दिया. और यहां चूंकि आपका बस नहीं चल रहा है तो आप दुकानें जला के काम चला ले रहे हैं.
ये 'धर्म' है कि सारी दुनिया आपसे डरे? ये धर्म है कि वहां लोग चैन से जी न पायें जहां आप बहुसंख्यक हो जाएं? इस ख़ूंखार मानसिकता को 'मज़हब' कहते हुए आपकी ज़बान नहीं जलती है? दादागिरी और मज़हब में फर्क समझिये. जल्दी समझिये क्योंकि दुनिया का भरोसा और सब्र अब टूट रहा है. कार्टून क्या लोग पुतला बना के जलाएंगे 'मुहम्मद' का अगर आप लोगों को समझ न आई तो.
ये भी पढ़ें-
दरअसल समस्या नेताओं के बयान नहीं है उनके अंग काटने पर मिलने वाला इनाम है
आखिर इतना गुस्सा क्यों कि मुसलमान होने की वजह से बच्चे को भीड़ मार डाले?
बरेली में एकजुट हुए हिन्दू - मुसलमान, जो कहा वो सुनकर आपकी आंखें खुल जाएंगी..
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.