फ़साद की जड़. सुनी होगी न ये कहावत? इसमें जर जो है वो सोना है, वही सोना जिसे आपमें से 99% लोग एक करोड़ फ्री मिलने पर भी ख़रीदना नहीं चाहते. ये पर्शियन कहावत थी जिसमें जर सोना था, जोरू की बजाए ज़न था, ज़न का अर्थ है नारी. जर ज़न और ज़मीन. सोना, औरत और धरती. अब मज़ा देखिए, पर्शियन में जो तीन चीज़े फ़साद की जड़ बताई जाती है वही पुराणों के हिसाब से देवी रूप हैं और पूजनीय हैं. सोना माता लक्ष्मी की कृपा से मिलता है, वो ख़ुद लक्ष्मी रूप है. हमारी धरती हमारी माता का दर्जा रखती है और औरत, यानी नारी तो ख़ुद ही देवी का रूप कहलाती है. घर बसता ही तब है जब घर में औरत प्रवेश करती है. इन दो विचारों में जमीन आसमान का फ़र्क दिखता है कि नहीं? एक लम्बे अरसे से देश में कॉकटेल बनी होने की वजह से पता ही नहीं चलता कि ये हिन्दी कहावत नहीं है.
कल पहला नवरात्रा था, बहुत लोगों ने व्रत रखा. बहुतों को अचानक सेनेटरी पैड याद आया और माता के कदम और खून लगे पैड की तुलना की गयी. बहुत सी लड़कियों ने ये ऐलान किया कि जब हमें पीरियड्स के दौरान मंदिर में नहीं जाने दिया जाता, रसोई में घुसने की मनाही है, कंजकों में नहीं बैठ सकते तो हमें नहीं मनानी दुर्गाअष्टमी. उम्र की पहली चवन्नी में (25 तक) सवाल पूछने चाहिए, ख़ूब पूछने चाहिए.
सवाल करने का मतलब है कि दिमाग स्वस्थ है, अच्छी कंडीशन में बढ़ रहा है. बस अपने सवालों को लेकर हड़ना नहीं चाहिए, जवाबों पर भी गौर फ़रमाना चाहिए. कई बार ‘क्यों?’ का जवाब हमारे पास ही होता है. आप क्रिसचैनिटी को देखें, इस्लाम को जानें या और बाकी धर्मों को समझने की कोशिश करें तो पायेंगे कि सनातनियों में औरतों को सिर्फ छूट नहीं सम्मान दिया गया है. छूट का मतलब तो ये हुआ कि किसी मालिक ने गुलाम पर एहसान...
फ़साद की जड़. सुनी होगी न ये कहावत? इसमें जर जो है वो सोना है, वही सोना जिसे आपमें से 99% लोग एक करोड़ फ्री मिलने पर भी ख़रीदना नहीं चाहते. ये पर्शियन कहावत थी जिसमें जर सोना था, जोरू की बजाए ज़न था, ज़न का अर्थ है नारी. जर ज़न और ज़मीन. सोना, औरत और धरती. अब मज़ा देखिए, पर्शियन में जो तीन चीज़े फ़साद की जड़ बताई जाती है वही पुराणों के हिसाब से देवी रूप हैं और पूजनीय हैं. सोना माता लक्ष्मी की कृपा से मिलता है, वो ख़ुद लक्ष्मी रूप है. हमारी धरती हमारी माता का दर्जा रखती है और औरत, यानी नारी तो ख़ुद ही देवी का रूप कहलाती है. घर बसता ही तब है जब घर में औरत प्रवेश करती है. इन दो विचारों में जमीन आसमान का फ़र्क दिखता है कि नहीं? एक लम्बे अरसे से देश में कॉकटेल बनी होने की वजह से पता ही नहीं चलता कि ये हिन्दी कहावत नहीं है.
कल पहला नवरात्रा था, बहुत लोगों ने व्रत रखा. बहुतों को अचानक सेनेटरी पैड याद आया और माता के कदम और खून लगे पैड की तुलना की गयी. बहुत सी लड़कियों ने ये ऐलान किया कि जब हमें पीरियड्स के दौरान मंदिर में नहीं जाने दिया जाता, रसोई में घुसने की मनाही है, कंजकों में नहीं बैठ सकते तो हमें नहीं मनानी दुर्गाअष्टमी. उम्र की पहली चवन्नी में (25 तक) सवाल पूछने चाहिए, ख़ूब पूछने चाहिए.
सवाल करने का मतलब है कि दिमाग स्वस्थ है, अच्छी कंडीशन में बढ़ रहा है. बस अपने सवालों को लेकर हड़ना नहीं चाहिए, जवाबों पर भी गौर फ़रमाना चाहिए. कई बार ‘क्यों?’ का जवाब हमारे पास ही होता है. आप क्रिसचैनिटी को देखें, इस्लाम को जानें या और बाकी धर्मों को समझने की कोशिश करें तो पायेंगे कि सनातनियों में औरतों को सिर्फ छूट नहीं सम्मान दिया गया है. छूट का मतलब तो ये हुआ कि किसी मालिक ने गुलाम पर एहसान किया हो, पर ऐसा नहीं है.
सनातन में औरत की भागीदारी बराबर है और बहुत सी जगह औरत की खातिर ही बड़े-बड़े युद्ध हुए हैं. मैंने ऊपर लिखा है कि जर-ज़न-ज़मीन झगड़े की वजह नहीं सम्मान का विषय हैं और इनकी वजह से झगड़ा नहीं होता, बल्कि इनकी प्रतिष्ठा पर कोई आंच आए तो युद्ध कम्पलसरी हो जाता है. टॉपिक पर वापस आते हुए सोचता हूं कि क्यों महीने के पांच दिन रसोई से दूर रखा, पूजा न करने दी या अछूतों सा व्यहवार किया?
जवाब में यही समझ आता है कि महीने के 25 दिन खटती-मरती औरत के लिए तो कोई संडे नहीं होता. घर के काम जो करता है वो समझ सकता है कि ये ऑफिस के काम से ज़्यादा मुश्किल टास्क है. क्या पता इसी बहाने आराम मिल जाता हो, ये वजह रही हो क्योंकि उन दिनों बॉडी और मूड नॉर्मल नहीं रहते इसलिए कम लोगों से बोलना और ज़्यादा ध्यान लगाना शारीरिक और मानसिक सेहत के लिए भी बेहतर रहता हो.
आज आप देखें तो आपको सौ किस्म के विज्ञापन के साथ सेनेटरी पैड्स मिलेंगे जो ultra wide अल्ट्रा ये और जाने क्या-क्या होने का दावा करते हैं पर जिस वक़्त ये नियम बने, तब तो ऐसी कोई सुविधा नहीं थी न? तब लहू गिरने का अंदेशा भी रहता होगा जिस करके एक चित्त कहीं बैठने की सलह दी जाती होगी।
माहवारी के बाद बच्चों को कंजक में नहीं बैठने देते तो इसका मतलब ये तो नहीं कि वो कन्या नहीं रही. कन्या न होती तो ब्याह पर कन्यादान क्यों कहलाता? इसका मतलब ये ज़रूर हो सकता है कि जो ऑपरचुनिटी अब तक उसके पास थी, अब उसकी छोटी बहन को ट्रान्सफर हो गयी.अगली पीढ़ी का नंबर आ गया ताकि कंजकें जीमना और अष्टमी मनाना पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ता रहे.
हो सकता है कुछ वजह भिन्न रही हो पर अच्छी बात ये है कि अब ऐसा कोई हार्ड एंड फ़ास्ट रूल नहीं मनाया जाता है. बहुत सी महिलायें जो अकेले घर संभालती हैं वो सारे काम करती ही हैं, ज़्यादातर घरों में इन दिनों छुआछूत-अछूत के बारे में सोचा तक नहीं जाता. अपनी इच्छा से, अपनी स्वेक्षा से आप फ्लेक्सिबल हो सकते हैं, कोई पंडित आपकी बाह मरोड़ने नहीं आता.
टीवी-अख़बार की एक आधी ख़बर को दरकिनार करिए, इन्हें सियासी मुद्दा समझिए. ओवरआल आप पायेंगे कि सनातन धर्म जो एक जीवन शैली है; उसमें तबसे लेकर अब तक कितना बदलाव आया है और साथ ही कितने नियम बदले है. फिर भी आपत्ति होती है, होनी चाहिए. मगर हर जगह नेगेटिविटी फैलाने की आवश्यकता बिलकुल नहीं है. कोई त्यौहार मनाना, न मनाना आपका निजी मसला है, ये जुमे की नमाज़ नहीं है कि आप नहीं पढ़ोगे तो कोई ‘लाहौल-विला-कूवत’ कर देगा.
यहां आप मना करोगे तो आपकी मम्मी कह देंगी कि चल तेरी जगह मैं व्रत रख लेती हूं. घर में किसी ने तो व्रत रखा, यही बहुत है. ऐसी फ्लेक्सिबिलिटी मिलती है. मेरे बाबा की तबियत ख़राब रहने लगी थी तब उनकी बजाए पापा ने मंगलवार व्रत रखना शुरु किया था. फिर भी आपको नहीं जमता, मत करिए. बस दूसरों को उकसाइए मत, बहाना न दीजिए.
आप नहीं जानते कि आज की डेट में हिन्दुस्तानी माँ-बाप कितने जतन करते हैं अपने बच्चों से पूजा कराने के लिए, उन्हें आरती सिखाने के लिए. हम अली-मौला-अली-दम-हक़ तो टीवी देख के सीख लेते हैं, हनुमान चालीसा हमें मां-बाप सिखाने की कोशिशें कर रहे हैं, ज़रा सी नेगेटिविटी 15-20 साल के बच्चे को कहां से कहां धकेल देती है.
अभी ये बातें आपको फ़िज़ूल लग रही होंगी, टीनएज होती भी क्रांतिकारी ही है पर पर्सनल एक्सपीरियंस बता रहा हूं , एक वक़्त बाद आप ख़ुद बिलिवर होने लगेंगे और फिर अर्ली थर्टीज़ में जब आपके हाथ में भगवत गीता आयेगी और आप पढ़ेंगे, समझेंगे तो ये जानेंगे कि बीते तीस साल का सारा मंजर इसमें लिखा तो है, सब तो है इसमें, सारे जवाब अवेलेबल तो हैं, हम कहां भटक रहे थे सवालों के साथ?
पर अभी ये भटकन ज़रूरी है, ये सवाल भी ज़रूरी हैं और ये अविश्वास भी, अविश्वास जितना प्रबल होगा उतनी ही विश्वासी होने की आशा बनी रहेगी. बस कुछ बुरा है तो वो है नकारात्मकता, इससे बचिए. उन लोगों से बचिए जो हर एक ख़बर में कुछ बुरा निकाल लेते हैं, उनसे बचिए जो आपकी, आपके धर्म की, समाज की या आपके परिवार की कमियां ही गिनाते रहते हैं, ये समाज की घुन हैं, इनसे बचिए और सवालों की तलाश जारी रखिए.
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