नेपाल की 'छाउपड़ी' प्रथा के बारे में जिसे भी पता चला वो महिलाओं पर हो रही इस क्रूरता को सुनकर हैरान रह गया. माहवारी के समय महिलाओं के साथ ऐसा अमानवीय व्यवहार दुनिया में शायद ही किसी और जगह होता हो.
नेपाल के बेहद ठंडा इलाका सिमिकोट हमेशा बर्फ से ढका रहता है. यहां भी पीरियड्स में महिलाओं को अपवित्र माना जाता है, लेकिन इस कदर कि इन दिनों में उनका बहिष्कार ही कर दिया जाता है, उन्हें घर में रहने ही नहीं दिया जाता. लोगों का कहना है कि वो ऐसा नहीं करेंगे तो तो उनके देवी-देवता नाराज हो जाएंगे.
उस एक सप्ताह यहां की महिलाएं बाहर ठंड में ही बिताती हैं. घर के बाहर गोठ में रहती हैं, जो जानवरों के रहने की जगह होती है. ये जगह बच्चियों और महिलाओं की सुरक्षा के लिए भी सही नहीं होतीं. कई बार बलात्कार की शिकार भी हो जाती हैं.
ये क्रूर नियम सिर्फ माहवारी वाली महिलाओं के लिए नहीं बल्कि मां बनने वाली महिलाओं पर भी लागू होता है. गोठ में ही बच्चा भी जना जाता है और मां और बच्चे को एक महीना इन्हीं गोठ में रहना होता है, क्योंकि उस दौरान मां अपवित्र कहलाई जाती है. हर साल करीब 2-3 माताएं इस दौरान दम तोड़ देती हैं.
नेपाल की 'छाउपड़ी' प्रथा के बारे में जिसे भी पता चला वो महिलाओं पर हो रही इस क्रूरता को सुनकर हैरान रह गया. माहवारी के समय महिलाओं के साथ ऐसा अमानवीय व्यवहार दुनिया में शायद ही किसी और जगह होता हो.
नेपाल के बेहद ठंडा इलाका सिमिकोट हमेशा बर्फ से ढका रहता है. यहां भी पीरियड्स में महिलाओं को अपवित्र माना जाता है, लेकिन इस कदर कि इन दिनों में उनका बहिष्कार ही कर दिया जाता है, उन्हें घर में रहने ही नहीं दिया जाता. लोगों का कहना है कि वो ऐसा नहीं करेंगे तो तो उनके देवी-देवता नाराज हो जाएंगे.
उस एक सप्ताह यहां की महिलाएं बाहर ठंड में ही बिताती हैं. घर के बाहर गोठ में रहती हैं, जो जानवरों के रहने की जगह होती है. ये जगह बच्चियों और महिलाओं की सुरक्षा के लिए भी सही नहीं होतीं. कई बार बलात्कार की शिकार भी हो जाती हैं.
ये क्रूर नियम सिर्फ माहवारी वाली महिलाओं के लिए नहीं बल्कि मां बनने वाली महिलाओं पर भी लागू होता है. गोठ में ही बच्चा भी जना जाता है और मां और बच्चे को एक महीना इन्हीं गोठ में रहना होता है, क्योंकि उस दौरान मां अपवित्र कहलाई जाती है. हर साल करीब 2-3 माताएं इस दौरान दम तोड़ देती हैं.
नेपाल में नर्क भोग रही इन महिलाओं के बारे में जानकर सिहरन होती है, इसे विस्तार से यहां पढ़ा जा सकता है. 'माहवारी के दौरान इन महिलाओं का इंतजार करता है एक भयानक नर्क!'
देखिए वीडियो और समझिए-
इस रिवाज की आड़ में हो रहे अपराध और मौत की घटनाओं को देखते हुए नेपाल सरकार ने 2005 में इस प्रथा पर रोक लगा दी थी पर फिर भी लोग इस प्रथा को बदस्तूर मनाते रहे.
पर इस कुप्रथा का अंत अब बेहद करीब है
पिछले ही दिनों इसी प्रथा के चलते दो बच्चियों की मौत हो गई, एक को बाहर सांप ने काट लिया और दूसरी का दम गोठ में घुट गया. और इसके बाद अब नेपाल की सरकार ने एक क्रांतिकारी फैसला लेते हुए एक कानून बनाया है जिसके तहत ये छाउपड़ी प्रथा को अब आपराध माना जाएगा. अगर प्रथा के नाम पर माहवारी के दौरान महिलाओं के साथ किसी को भी इस तरह का व्यवहार करते पाया गया तो उसे 3 महीने की जेल की सजा और 3000 नेपाली रुपए जुर्माने के तौर पर देने होंगे. महिलाएं अप खुद पर हो रहे इस अमानवीय व्यवहार के लिए पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा सकती हैं...
पर बात जब हमारी संस्कृति में बसी प्रथाओं-रिवाजों और कानून की हो तो रिवाजों का पलड़ा हमेशा कानून से भारी रहता है. सरकार द्वारा लगाई रोक पर तो लोगों ने पहले भी ध्यान नहीं दिया था. लेकिन हां, सख्त कानून बनाकर शायद इस कुप्रथा पर लगाम लगाई जा सके.
पर सवाल तो अब भी उठेंगे
कानून बनने के बाद भी सबसे बड़ा सवाल ये कि क्या घर की महिलाएं, बच्चियां घर के ही लोगों के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवाने जाएंगी? और अगर वो चली भी गईं, तो क्या ये संभव नहीं कि 3000 रुपए देकर भी वो महिलाओं को उन्हीं कोठरियों में सोने को मजबूर करें? लोगों के कट्टरपन का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि, अपनी बच्चियों को इस प्रथा के चलते खो चुके परिजनों का अब भी यही कहना है कि वो इस परंपरा को ऐसे ही निभाते रहेंगे. तो लोगों की आस्था इन कानूनों से कहीं ज्यादा बढ़कर है. और ये आने वाला समय खुद बता देगा.
हालांकि माहवारी को लेकर नियम कायदे गिनाने में हमारा भारत भी पीछे नहीं है, कहीं कम- कहीं ज्यादा तो कहीं बहुत ही ज्यादा दकियानूसी विचारों को आज भी हमारा देश ढो रहा है. लेकिन नेपाल जैसा कानून अभी तक यहां नहीं लाया गया है, जबकि नेपाल से लगे भारत में भी पहाड़ी इलाकों में इसी तरह की कुप्रथा आज भी चल रही है. पर वो वहां की संस्कृति में रिवाजों की तरह बसी हुई है जिसपर न तो कोई आवाज उठाता है और न विरोध ही करता है.
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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.