निर्भया मामले में सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट (Nirbhaya Case Supreme Court Verdict) ने निर्भया के दोषियों में से एक दोषी अक्षय कुमार सिंह की रिव्यू याचिका (Nirbhaya rapist review petition rejected) खारिज कर दी है. इसी के साथ सुप्रीम कोर्ट ने दोषियों को दया याचिका दायर करने के लिए एक हफ्ते का समय भी दिया है, जिसके बाद उन्हें फांसी दिया जाना सुनिश्चित हो जाएगा. अक्षय की रिव्यू याचिका खारिज होने से निर्भया की मां खुश हुई ही थीं कि कोर्ट की ओर से दोषियों को कुछ और मोहलत दे देने पर वह कोर्ट में ही रोने लगीं. वह बोल पड़ीं- 'उनके पास सभी अधिकार हैं, हमारा क्या?'. यहां ये समझने की जरूरत है कि एक मां हर दिन अपनी बेटी के लिए न्याय की उम्मीद में जी रही है, लेकिन हर बार दोषियों को किसी न किसी बहाने से राहत मिल ही जाती है. बहाने भी कानूनी हैं, या यूं कहें कि कानूनी खामियों के चलते दोषियों को सजा मिलने में 7 साल से भी अधिक का समय लग गया. देश में 3-5 दिन में भी रेप करने वाले को फांसी सजा सुनाने की खबरें सामने आती हैं, लेकिन ये खबरें सिर्फ अखबारों और न्यूज चैनल की हेडलाइन तक सीमित होकर रह जाती हैं. आरोपी को सजा मिलने में सालों लग जाते हैं और मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचते-पहुंचते अक्सर ही फांसी की सजा उम्र कैद में बदल जाती है. हां वो बात अलग है कि हर दिन उन अपराधियों पर भारी पड़ता है, लेकिन एक बार रेप पीड़िता के परिवार की भी सोचिए. निर्भया की मां जैसे लोगों का सबसे बड़ा दुख ये है कि उन्होंने तो अपनी बेटी 7 साल पहले ही खो दी, लेकिन फांसी की सजा सुनाए जाने के बावजूद दोषी अब तक जिंदा हैं और मुफ्त की रोटियां तोड़ रहे हैं.
निर्भया मामले में सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट (Nirbhaya Case Supreme Court Verdict) ने निर्भया के दोषियों में से एक दोषी अक्षय कुमार सिंह की रिव्यू याचिका (Nirbhaya rapist review petition rejected) खारिज कर दी है. इसी के साथ सुप्रीम कोर्ट ने दोषियों को दया याचिका दायर करने के लिए एक हफ्ते का समय भी दिया है, जिसके बाद उन्हें फांसी दिया जाना सुनिश्चित हो जाएगा. अक्षय की रिव्यू याचिका खारिज होने से निर्भया की मां खुश हुई ही थीं कि कोर्ट की ओर से दोषियों को कुछ और मोहलत दे देने पर वह कोर्ट में ही रोने लगीं. वह बोल पड़ीं- 'उनके पास सभी अधिकार हैं, हमारा क्या?'. यहां ये समझने की जरूरत है कि एक मां हर दिन अपनी बेटी के लिए न्याय की उम्मीद में जी रही है, लेकिन हर बार दोषियों को किसी न किसी बहाने से राहत मिल ही जाती है. बहाने भी कानूनी हैं, या यूं कहें कि कानूनी खामियों के चलते दोषियों को सजा मिलने में 7 साल से भी अधिक का समय लग गया. देश में 3-5 दिन में भी रेप करने वाले को फांसी सजा सुनाने की खबरें सामने आती हैं, लेकिन ये खबरें सिर्फ अखबारों और न्यूज चैनल की हेडलाइन तक सीमित होकर रह जाती हैं. आरोपी को सजा मिलने में सालों लग जाते हैं और मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचते-पहुंचते अक्सर ही फांसी की सजा उम्र कैद में बदल जाती है. हां वो बात अलग है कि हर दिन उन अपराधियों पर भारी पड़ता है, लेकिन एक बार रेप पीड़िता के परिवार की भी सोचिए. निर्भया की मां जैसे लोगों का सबसे बड़ा दुख ये है कि उन्होंने तो अपनी बेटी 7 साल पहले ही खो दी, लेकिन फांसी की सजा सुनाए जाने के बावजूद दोषी अब तक जिंदा हैं और मुफ्त की रोटियां तोड़ रहे हैं.
सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचते-पहुंचते टल जाती है फांसी
रेप के मामलों में अधिकतर लोग यही कहते हैं कि रेप करने वालों को फांसी होनी चाहिए. ऐसा नहीं है कि फांसी की सजा दी नहीं जाती. खूब दी जाती है. सिर्फ मध्य प्रदेश के आंकड़े बताते हैं कि वहां 2 साल पहले बने सख्त कानून के चलते नाबालिग बच्चियों से दरिंदगी करने वालों को महज 3-5 दिन में भी फांसी की सजा सुनाई गई है. ऐसे करीब 40 दोषी हैं, जिन्हें फांसी की सजा हो चुकी है और वह जेलों में बंद हैं. लेकिन सवाल ये है कि क्या इन्हें फांसी होगी, या सुप्रीम कोर्ट पहुंचते-पहुंचते सजा बदल जाएगी. बता दें कि मध्य प्रदेश में रेप और हत्या के लिए आखिरी बार 1995 में उमाशंकर पांडे को फांसी दी गई थी.
नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी दिल्ली की 2015 की एक स्टडी के मुताबिक 15 सालों में 5 फीसदी से भी कम मामलों में मौत की सजा को हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखा है. यानी ट्रायल कोर्ट तो फांसी की सजा सुना देता है, लेकिन हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक सजा बदल जाती है. नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी दिल्ली की ही एक स्टडी के मुताबिक 2018 में पूरे देश में 162 दोषियों को फांसी की सजा सुनाई गई थी. हाई कोर्ट ने इनमें से सिर्फ 23 को मंजूरी दी. सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में कुल 12 फांसी के मामलों पर सुनवाई की, जिसमें से सिर्फ एक निर्भया मामले में फांसी की सजा बरकरार रखी गई है.
कानून 60 दिन देता है, तो कोर्ट 250 दिन लगा देती है !
आपराधिक दंड संहिता यानी सीआरपीसी की धारा 309(2) के तहत रेप के मामलों में स्पेशल फास्ट ट्रैक कोर्ट (Fast Track court) को ट्रायल को 60 दिनों में पूरा करने का प्रावधान है, लेकिन हकीकत में ऐसा हो नहीं रहा. रेप के मामलों में ट्रायल पूरा करने में 8 महीने तक लग जा रहे हैं. यानी 60 के बजाए करीब 250 दिन. दिलचस्प है कि दिल्ली के कोर्ट पूरे देश में मॉडल कोर्ट की तरह माने जाते हैं, लेकिन ये मॉडल कोर्ट ही कानूनी समय सीमा के अंदर अपना काम खत्म नहीं कर पा रहे हैं. दिल्ली के एक एनजीओ पार्टनर्स फॉर लॉ इन डिपार्टमेंट (PLD) ने केंद्रीय कानून मंत्रालय और यूनाइटेड नेशन्स डेवलपमेंट प्रोग्राम (NDP) के साथ मिलकर एक स्टडी की. 2013 में हाई कोर्ट ने एनजीओ से कहा कि वह दिल्ली के स्पेशल फास्ट ट्रैक कोर्ट में रेप के मामलों की एक स्टडी करे. PLD को ऐसे 16 मामलों में स्टडी का जिम्मा सौंपा गया. ये स्टडी जनवरी 2014 से मार्च 2015 के बीच की गई, जिसमें पाया गया कि समय सीमा का उल्लंघन हुआ है. इसमें सबसे कम 77 दिन और अधिकतम 15 महीनों से भी अधिक का वक्त लगा. औसतन एक केस में 37 सप्ताह (8.5 महीने) यानी करीब 250 दिन तक का समय लगा.
सरकारें बस राजनीति में लगी हैं
केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर एक मौके पर तेजी से न्याय दिलाने वाला टोटका लेकर आई थीं. उन्होंने कहा था कि वह सरकार से गुहार लगाएंगी कि रेप के मामलों में फैसला उतने महीनों में आ जाना चाहिए, जितने साल की महिला या बच्ची के साथ रेप हुआ हो. यानी 5 साल की बच्ची से रेप करने वाले के खिलाफ 5 महीने में सजा सुना दी जानी चाहिए और 20 साल की युवती से रेप करने वाले को 20 महीने में सजा सुना देनी चाहिए. यहां हरसिमरत कौर से एक सवाल पूछा जाना चाहिए कि अगर महिला 45 या 50 साल की हुई तो उसे सिर्फ इसलिए देर में न्याय मिले क्योंकि उसकी उम्र अधिक है? कई रेप के मामलों में बुजुर्ग से भी रेप की खबर सामने आई तो क्या 60-70 साल की बुजुर्ग न्याय मिलने से पहले ही आखिरी सांसें गिनने लगे? ये राजनीतिक बयान सिर्फ लोगों की सहानुभूति और तालियां बटोरने के लिए होते हैं. रेप जैसे संवेदनशील मुद्दों पर फालतू की बयानबाजी नहीं, बल्कि एक सही सुझाव और समाधान की जरूरत है.
निर्भया मामले में ट्रायल कोर्ट ने साल भर से भी कम में (करीब 9 महीने) ही फैसला सुना दिया और सभी दोषियों को फांसी की सजा दे दी. हाईकोर्ट में इस मामले में सजा सुनाने में करीब चार महीने लगाए और फांसी की सजा को बरकरार रखा. लेकिन ये मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचते-पहुंचते इसे 2 साल लग गए. सवाल ये भी उठता है कि इन दो सालों तक कोर्ट ने क्या किया? अप्रैल 2016 में ये मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा, लेकिन उसने भी सजा को बरकरार रखने में साढ़े तीन साल से अधिक का समय लगा दिया. समझ में ये नहीं आता कि सारी छानबीन तो ट्रायल कोर्ट तक हो चुकी थी, हाईकोर्ट ने भी चंद महीनों में फांसी की सजा पर अपना फैसला सुना दिया तो फिर सुप्रीम कोर्ट में इतना समय क्यों लगा? यहीं याद आता है सनी देओल का डायलॉग- 'तारीख पर तारीख मिलती जा रही है, लेकिन इंसाफ नहीं मिला.' यकीनन सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट को इस मामले में सोचने की जरूरत है. जिस तरह फास्ट ट्रैक कोर्ट के लिए समय सीमा निर्धारित की गई है, वैसे ही सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के लिए भी होनी चाहिए. चलिए मान लिया फास्ट ट्रैक कोर्ट की सीमा का उल्लंघन हो रहा है, लेकिन तब भी 2 ना सही, 9 महीने में फैसला तो हो जाता है ना. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में तो सालों तक मामला टलता ही रहता है. कानूनी दांवपेंच खेलकर वकील अपने मुवक्किल को सजा से कई सालों तक बचाते रहते हैं.
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