आधुनिकता ने दो परस्पर विरोधाभासी परिघटनाओं को जन्म दिया है. एक है- 'नेशन-स्टेट', दूसरा है- 'ग्लोबल विलेज'. 'नेशन-स्टेट' यानी राष्ट्र-राज्य एक राजनीतिक अवधारणा है. 'ग्लोबल विलेज' यानी विश्व-ग्राम एक सांस्कृतिक अवधारणा है. 'नेशन-स्टेट' कहता है कि एक सम्प्रभु राष्ट्र होगा, जिसकी सीमाएं निर्धारित होंगी और उसकी सीमा के भीतर रहने वाले उसके नागरिक होंगे. 'ग्लोबल विलेज' कहता है कि सूचना प्रौद्योगिकी ने पूरी दुनिया को एक गांव बना दिया है, जिसमें सभी लोग एक-दूसरे से, ग़ैरभौतिक या आभासी रूप से ही सही, सम्बद्ध हैं.
आधुनिक मनुष्य की कोई भी व्याख्या इन दो विरोधाभासों पर विचार किए बिना नहीं हो सकती. मनुष्यता के इतिहास में राष्ट्रों की सीमाएं कभी भी इतनी अभेद्य नहीं थीं, जितनी कि आज हैं. संरक्षणवाद कभी भी इतना प्रबल नहीं था, जितना कि आज है. एंड एट द सेम टाइम, दुनिया इससे पहले कभी भी एक-दूसरे से इतनी सम्बद्ध नहीं थी कि राष्ट्रों की अवधारणाएं ही अस्पष्ट हो जाएं. किन्हीं भी प्रकार के निर्णयों से पहले एक राजनीतिक संस्था के रूप में राष्ट्र और एक सांस्कृतिक अवधारणा के रूप में मनुष्यता के इस परस्पर को हमें अच्छी तरह समझना होगा.
तो हुआ यह कि नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीज़न ने अपने अंतिम ड्राफ़्ट में असम के 40 लाख लोगों को 'अनागरिक' क़रार दे दिया! इस मुनादी के पीछे सुस्पष्ट राजनीतिक अवधारणाएं हैं, जो यह निश्चित करती हैं कि एक राष्ट्र का अपने 'नागरिक' से क्या सम्बंध होता है. और इसके समक्ष 'प्रवासी' या 'अवैध नागरिक' या 'घुसपैठिये' की अवधारणा क्या होती है.
पुरातन काल में 'नोमेडिक ट्राइब्स' होती थीं, जो पहाड़ों और समंदरों को लांघकर घूमते-घामते कहीं भी चली जाती थीं. ऐसे ही 'आर्य' यूरोप से लेकर भारत तक फैल गए. उनसे भी पहले...
आधुनिकता ने दो परस्पर विरोधाभासी परिघटनाओं को जन्म दिया है. एक है- 'नेशन-स्टेट', दूसरा है- 'ग्लोबल विलेज'. 'नेशन-स्टेट' यानी राष्ट्र-राज्य एक राजनीतिक अवधारणा है. 'ग्लोबल विलेज' यानी विश्व-ग्राम एक सांस्कृतिक अवधारणा है. 'नेशन-स्टेट' कहता है कि एक सम्प्रभु राष्ट्र होगा, जिसकी सीमाएं निर्धारित होंगी और उसकी सीमा के भीतर रहने वाले उसके नागरिक होंगे. 'ग्लोबल विलेज' कहता है कि सूचना प्रौद्योगिकी ने पूरी दुनिया को एक गांव बना दिया है, जिसमें सभी लोग एक-दूसरे से, ग़ैरभौतिक या आभासी रूप से ही सही, सम्बद्ध हैं.
आधुनिक मनुष्य की कोई भी व्याख्या इन दो विरोधाभासों पर विचार किए बिना नहीं हो सकती. मनुष्यता के इतिहास में राष्ट्रों की सीमाएं कभी भी इतनी अभेद्य नहीं थीं, जितनी कि आज हैं. संरक्षणवाद कभी भी इतना प्रबल नहीं था, जितना कि आज है. एंड एट द सेम टाइम, दुनिया इससे पहले कभी भी एक-दूसरे से इतनी सम्बद्ध नहीं थी कि राष्ट्रों की अवधारणाएं ही अस्पष्ट हो जाएं. किन्हीं भी प्रकार के निर्णयों से पहले एक राजनीतिक संस्था के रूप में राष्ट्र और एक सांस्कृतिक अवधारणा के रूप में मनुष्यता के इस परस्पर को हमें अच्छी तरह समझना होगा.
तो हुआ यह कि नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीज़न ने अपने अंतिम ड्राफ़्ट में असम के 40 लाख लोगों को 'अनागरिक' क़रार दे दिया! इस मुनादी के पीछे सुस्पष्ट राजनीतिक अवधारणाएं हैं, जो यह निश्चित करती हैं कि एक राष्ट्र का अपने 'नागरिक' से क्या सम्बंध होता है. और इसके समक्ष 'प्रवासी' या 'अवैध नागरिक' या 'घुसपैठिये' की अवधारणा क्या होती है.
पुरातन काल में 'नोमेडिक ट्राइब्स' होती थीं, जो पहाड़ों और समंदरों को लांघकर घूमते-घामते कहीं भी चली जाती थीं. ऐसे ही 'आर्य' यूरोप से लेकर भारत तक फैल गए. उनसे भी पहले अफ्रीका में रहने वाले 'सदर्न एप' कोई 20 लाख साल पहले उत्तरी अफ्रीका, एशिया और यूरोप की ओर 'माइग्रेट' कर गए थे, जिससे मनुष्यों की विभिन्न प्रजातियों का विकास हुआ. इनमें सबसे महत्वपूर्ण थे यूरोप और पश्चिमी एशिया में रहने वाले 'निएंडर्थल', जो बहुत हद तक 'होमो सेपियंस' से मिलते-जुलते थे.
इतिहास में जितना दूर झांककर देखेंगे, आप पाएंगे कि ना केवल मनुष्य एक जगह से दूसरी जगह यात्रा करता रहता था, बल्कि धरती भी लगातार अपनी जगह से खिसकती रहती थी और ऐसे ही कोई पांच करोड़ साल पहले 'इंडियन प्लेट' और 'यूरेशियन प्लेट' के आपस में टकराने से 'हिमालय' पहाड़ उठकर खड़ा हो गया. वह धरती में पड़ी हुई एक सलवट है.
जैसे जैसे हम आधुनिक इतिहास की तरफ़ बढ़ते हैं, हम पाते हैं कि यायावर मनुष्य एक जगह पर ठहरकर रहने लगा. इसी के साथ राजनीतिक भूगोल, राजनीतिक आर्थिकी, स्थानीय बाज़ार, संस्कृतियां, भौगोलिक विशिष्टताएं और जनगणना जैसी परिघटनाएं जन्मीं.
यूरोप में पिछले काफ़ी समय से प्रवासियों का संकट बहस का विषय रहा है. प्रवासियों के पक्ष में जो तर्क दिया जाता है, उसके मूल में मानवता की दुहाई है. मसलन, यह मानवता का तक़ाज़ा है कि अवैध घुसपैठियों को अपने मुल्क़ में जगह दे दी जाए, क्योंकि अगर वे यहां नहीं रहेंगे तो कहां रहने को जाएंगे?
दुरुस्त बात है. लेकिन अगर तकनीकी अर्थों में देखें तो जो लोग 'अवैध नागरिकों' और 'प्रवासियों' और 'घुसपैठियों' को शरण देने का तर्क देते हैं, वे दूसरे शब्दों में यह कह रहे होते हैं कि 'सम्प्रभु राष्ट्र' और उसके 'नागरिकों' की अवधारणा का महत्व नहीं है, क्योंकि मनुष्य अपने पुरातन स्वभाव के अनुसार एक जगह से दूसरी जगह तक 'मूवमेंट' करता रहेगा और सीमारेखाएं उसे रोक नहीं सकतीं.
तब हमें एक बार अपने दिमाग़ में यह तय कर लेना चाहिए कि हम क्या चाहते हैं? 'सम्प्रभु राष्ट्र'? या 'राष्ट्र-राज्य' की अवधारणा का ही अंत, जिसमें सीमारेखाएं विलीन हो जाएंगी, पासपोर्ट समुद्र में फेंक दिए जाएंगे और पूरी दुनिया एक वैश्विक समुदाय बन जाएगी.
ऑबवियसली, इंटरनेट की भाषा में 'ग्लोबल विलेज' बनना सरल है, क्योंकि वो एक 'वर्चुवल' फ़िनामिना है. लेकिन राजनीतिक सीमारेखाओं का उन्मूलन अब असम्भव है.
सीमारेखाएं होंगी तो संविधान होगा, सम्प्रभुता होगी, नियम-क़ानून होंगे, जनगणना होगी, नागरिकता के पैमाने होंगे, सांस्कृतिक और नस्ली एकता होगी, और जो भी इन मानदंडों के बाहर छूट जाएगा, उसे 'अवैध नागरिक' क़रार दे दिया जाएगा. अब चाहें तो इस पर विलाप कर सकते हैं, किंतु सत्य तो यही है.सीरिया के रिफ़्यूजी कहां रहने को जाएंगे? म्यांमार के रोहिंग्या कहां पर रहेंगे? असम में घुसपैठ कर चुके बांग्लादेश के मुसलमान क्या करें, क्या हवा में विलीन हो जाएं?
एंड एट द सेम टाइम, यूरोप से खदेड़े गए यहूदी अगर अपनी मातूभूमि इज़रायल में नहीं तो कहां पर रहने को जाएं?
नहीं, नहीं, इज़रायल के मसले पर अचानक तर्क उलट जाएगा. अभी यहां स्थानीय आबादी के अधिकारों का महत्व है. फ़लस्तीन के अरब अपने बीच में इन यहूदियों को जगह क्यों दें? गाज़ा पट्टी में सिमटकर क्यों रह जाएं? वहां पर तमाम दलीलें औंधे मुंह गिर पड़ती हैं.
क्योंकि मानवता का तक़ाज़ा तो यह भी है ना कि यहूदी इज़रायल में जाकर रहें और कश्मीरी पंडित कश्मीर में जाकर घर बसाएं, सम्पत्तियां ख़रीदें, और जनसांख्यिकी के मानवीयकरण में अपना योगदान दें. क्यों नहीं?
बेसिकली, द होल इंटेलेक्चुअल परस्यूट ऑफ़ लिबरलिज़्म, बौद्धिक उदारवाद का समूचा मनोमंथन, एक ही बिंदु पर आकर सिमट जाता है और वह है पर्टिक्यूलर कम्युनिटी के हितों का संरक्षण, चाहे उसके लिए दो जगहों पर दो भिन्न भाषाएं ही क्यों ना बोलना पड़ें और दो भिन्न दलीलें ही क्यों ना देना पड़ें.
कौटिल्य ने राज्य की परिभाषा देते हुए 'सप्तांग सिद्धांत' का प्रतिपादन किया है, जिसमें जनसंख्या और भू-भाग दोनों को 'जनपद' की संज्ञा दी है. ये दोनों 'अन्योन्याश्रित' हैं. 'जनपद' यानी जनयुक्त भूमि. दस गांवों का समूह 'संग्रहण', दो सौ गांवों का समूह 'सार्वत्रिक', चार सौ गांवों का समूह 'द्रोणमुख'. एवरीथिंग हैज़ टु बी मेज़र्ड. सब नापा जाएगा, सब गिना जाएगा, और हर परिघटना के औचित्य का मूल्यांकन व्यापक राष्ट्रहित में किया जाएगा. अगर यह अमानवीय है तो ऐसा करते हैं, पाषाण काल में पुन: लौट जाते हैं और नोमेडिक ट्राइब्स बन जाते हैं.
ममता बनर्जी ने हुंकार भरी है- 'अगर इन 40 लाख लोगों की नागरिकता मान्य नहीं की गई तो गृहयुद्ध छिड़ जाएगा और ख़ून की नदियां बह जाएंगी.' क्यों? क्योंकि नागरिकता के अमान्य होने का सीधा मतलब है मताधिकार का छिन जाना और लोकतंत्र के नाट्य में मताधिकार एक ऐसा शस्त्र है, जिससे बड़े जघन्य खेल खेले जा सकते हैं. 'देश में गृहयुद्ध छिड़ जाएगा.' क्यों? क्योंकि ये 40 लाख लोग आपके बंधक वोट बैंक हैं? फिर चाहे जनसांख्यिकीय असंतुलन से भारत देश की पूर्वभुजा विनष्ट ही क्यों न हो जाए? ऐसी राजनीति पर धिक्कार है.
असम के वरिष्ठ बुद्धिजीवी हीरेन गोहाई कहते हैं- '40 लाख लोगों की नागरिकता अमान्य करना भारत को इज़रायल बनाने की साज़िश है. 'दरअसल, उन्हें यह कहना चाहिए कि 40 लाख लोगों की नागरिकता इसलिए अमान्य कर दी गई है, ताकि भारत एक और इज़रायल ना बन जाए, जहां बाहर से आ बसे प्रवासियों ने स्थानीय आबादी को 'आउटनम्बर' कर दिया हो.
प्रिय लिबरलों, आपको 'स्थानीय आबादी' का पक्ष लेना है या 'प्रवासियों' का, यह तय करने का अधिकार आपको सम्बंधित पक्ष का मज़हब जानने के बाद नहीं दिया जा सकता.
क्योंकि 'रिफ़्यूजी' का कोई धर्म नहीं होता है, आतंक का भले ही हो.
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