( टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस, मुंबई के छात्र आसिम अली का DailyO.in में प्रकाशित यह अंग्रेजी लेख हम अपने पाठकों के लिए हिंदी अनुवाद के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं. )
हाल ही में एक खबर हम सभी की आंखों के आगे से चली गई और हमारा ध्यान भी नहीं खींच पाई. देश में कबूतरों की संख्या में बतहाशा वृद्धि दर्ज की गई है. आज हमें चारों ओर कबूतर ही कबूतर दिखाई देते हैं. जमीन से लेकर आसमान तक. घर की बालकनी से लेकर एसी के वेंट तक. छत से लेकर घर की मुंडेर तक. कबूतरों का चहूंओर राज है. आलम ये है कि इन्होंने गौरेया जैसे अपने प्रतिद्वंदियों को उन्मूलन की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया.
लेकिन फिर भी कबूतरों पर शायद ही हमारा ध्यान जाता है. एक तरफ जहां कई पक्षी वातावरण में हो रहे बदलाव से लड़ नहीं पाए. वहीं दूसरी तरफ न सिर्फ कबूतर बचे रहे बल्कि फल-फूले भी. कबूतर के अलावा शायद ही कोई और जानवर होगा जिसने शहरीकरण को इस तेजी से अपनाया होगा. शहरीकरण ने कबूतरों को तीन मुख्य चीजें दी-
पहला- घोंसले बनाने के लिए सुरक्षित और मुफीद जगह.
दूसरा- खाने के लिए भरपूर आहार.
तीसरा- शहरीकरण की वजह से गायब हुए उनके शिकारी.
इस तरह के आरामदायक माहौल और सालभर में 6 बार प्रजनन की क्षमता के साथ कबूतरों ने दिन दूनी और रात चौगुनी वंशवृद्धि की, और आज शहरों के वो हर जगह देखे जा सकते हैं. एक तरफ जहां अन्य पक्षी अपनी कुछ खासियतों के कारण जाने जाते हैं. जैसे मोर अपने सुंदर पंखों के लिए. चील अपनी उड़ान के लिए. कोयल अपनी मीठी आवाज के लिए आदि आदि. तो वहीं कबूतर लोगों तक संदेश पहुंचाने के लिए जाने जाते हैं. हालांकि बदलते समय और टेक्नोलॉजी के उद्भव के साथ कबूतरों की इस उपयोगिता को खत्म कर दिया है. और अब कभी कभार उनके बारे में खबरे पढ़ते हैं कि कभी वो वर्जित वस्तुओं को पहुंचाते पाए गए. कुवैत में कबूतरों के पास से...
( टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस, मुंबई के छात्र आसिम अली का DailyO.in में प्रकाशित यह अंग्रेजी लेख हम अपने पाठकों के लिए हिंदी अनुवाद के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं. )
हाल ही में एक खबर हम सभी की आंखों के आगे से चली गई और हमारा ध्यान भी नहीं खींच पाई. देश में कबूतरों की संख्या में बतहाशा वृद्धि दर्ज की गई है. आज हमें चारों ओर कबूतर ही कबूतर दिखाई देते हैं. जमीन से लेकर आसमान तक. घर की बालकनी से लेकर एसी के वेंट तक. छत से लेकर घर की मुंडेर तक. कबूतरों का चहूंओर राज है. आलम ये है कि इन्होंने गौरेया जैसे अपने प्रतिद्वंदियों को उन्मूलन की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया.
लेकिन फिर भी कबूतरों पर शायद ही हमारा ध्यान जाता है. एक तरफ जहां कई पक्षी वातावरण में हो रहे बदलाव से लड़ नहीं पाए. वहीं दूसरी तरफ न सिर्फ कबूतर बचे रहे बल्कि फल-फूले भी. कबूतर के अलावा शायद ही कोई और जानवर होगा जिसने शहरीकरण को इस तेजी से अपनाया होगा. शहरीकरण ने कबूतरों को तीन मुख्य चीजें दी-
पहला- घोंसले बनाने के लिए सुरक्षित और मुफीद जगह.
दूसरा- खाने के लिए भरपूर आहार.
तीसरा- शहरीकरण की वजह से गायब हुए उनके शिकारी.
इस तरह के आरामदायक माहौल और सालभर में 6 बार प्रजनन की क्षमता के साथ कबूतरों ने दिन दूनी और रात चौगुनी वंशवृद्धि की, और आज शहरों के वो हर जगह देखे जा सकते हैं. एक तरफ जहां अन्य पक्षी अपनी कुछ खासियतों के कारण जाने जाते हैं. जैसे मोर अपने सुंदर पंखों के लिए. चील अपनी उड़ान के लिए. कोयल अपनी मीठी आवाज के लिए आदि आदि. तो वहीं कबूतर लोगों तक संदेश पहुंचाने के लिए जाने जाते हैं. हालांकि बदलते समय और टेक्नोलॉजी के उद्भव के साथ कबूतरों की इस उपयोगिता को खत्म कर दिया है. और अब कभी कभार उनके बारे में खबरे पढ़ते हैं कि कभी वो वर्जित वस्तुओं को पहुंचाते पाए गए. कुवैत में कबूतरों के पास से 200 नशीली गोलियां पकड़ी गईं. या पठानकोट में पकड़े गए कुछ कबूतरों से पता चला कि पाकिस्तान ने इन्हें जासूसों की तरह इस्तेमाल किया.
पक्षी विज्ञानियों का मानना है कि कबूतर सिर्फ संदेश ही नहीं पहुंचाते हैं बल्कि अपने मल और पंखों के जरिए कई तरह के सांस की बिमारियों को भी फैलाते हैं. एक रिपोर्ट के अनुसार- 'कबूतरों के सूखे मल में स्पोर्स होते हैं जो सांस के साथ खींच लेने पर सांस की बीमारी हो सकती है. उनके मल में एसिड होता है जो बिल्डिंगों और पुरातात्विक स्मारकों को नुकसान पहुंचा सकता है. मादा कबूतर एक साल में 48 बच्चों को जन्म दे सकती है और एक कबूतर की औसतन आयु 25 से 28 साल के बीच होती है. एक कबूतर एक साल में औसतन 11.5 किलो जहरीले मल का निर्वासन करता है.'
2001 में तो विश्व के कई देशों ने कबूतरों की गंदगी खिलाफ जंग ही छेड़ दी थी. 2001 में लंदन के त्राफलगार स्कवायर में कबूतरों को दाना डालने पर बैन लगा दिया गया था. वेनिस ने 2008 में सेंट मार्क स्कवायर पर पक्षियों के लिए खाना बेचने वालों पर जुर्माने का प्रावधान कर दिया. कुछ साल पहले कैटेलोनिया ने कबूतरों को ओविस्टॉप नामक दवा खिलानी शुरु कर दी. ओविस्टॉप गर्भनिरोधक दवा है.
हमने कबूतर को खुले मन से स्वीकार किया है. हमारे राष्ट्रीय पक्षी मोर के बाद कबूतर सबसे मशहूर पक्षी है. लेकिन विडम्बना है कि मोर जंगल और अभयारण्य में दिखते हैं तो वहीं कबूतर शहर, देहात हर जगह नजर आते हैं. देश में कबूतरों की बढ़ती संख्या चुनोतियां और दिक्कतें पैदा करती हैं. लेकिन फिर भी उनको खत्म नहीं किया जाना चाहिए. वो देश के कुशलता की पहचान हैं. ये दिखाते हैं कि भी तरह की खासियत नहीं होने के बावजूद अपना वजूद बचाए रखना और समृद्ध हुआ जा सकता है.
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