'ये जो सिस्टम है चौधरी दूर से देखने में सड़ा-गला कचरे का ढ़ेर लगता है लेकिन अंदर घुस के समझोगे न, तो वेल-ऑयल मशीनरी है. हर पुर्ज़े को मालूम है उसे क्या करना है और जिसको नहीं पता होता उस पुर्ज़े को बदल दिया जाता है लेकिन ये सिस्टम कभी नहीं बदलता.'
यूं तो पाताल लोक के ज़्यादातर डॉयलॉग सीधे दिमाग़ से लग कर दिल में उतरते हैं मगर ये डॉयलॉग इस देश और इसके सिस्टम की हक़ीक़त को बयान करने के लिए काफ़ी है. एक ऐसा सिस्टम जहां सिर्फ़ पैसे वालों और सत्ता में बैठे लोगों की चलती है. वो जो चाहें जैसे चाहे सिस्टम को अपने हिसाब से घुमा सकते हैं. जहां ग़रीबों की कोई क़ीमत नहीं है. जो ग़रीब लोग हैं वही पाताल लोक के मूल निवासी हैं. यानि जो कीड़े-मकोड़े की तरह जन्म लेते हैं और रेंगते-रेंगते ज़िंदगी बीता कर किसी गली-नुक्कड़ पर कभी गाड़ी के नीचे आ कर तो कभी किसी बीमारी में इलाज़ न करवा पाने की वजह से बेमौत मर जाते हैं. इन पाताल लोक के निवासियों को समझने के लिए आपको कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं है.
आप जो आजकल न्यूज़ चैनल और अपने सोशल मीडिया के फ़ीड में ग़रीब, प्रवासी मज़दूरों को सड़कों पर नंगे पांव चलते, भूख से बिलबिलाते, आंखों में आए आंसू को छिपा कर कैमरे की तरफ़ देखते तो ट्रकों और बसों में जानवरों की तरह लद कर अपनी गांव की तरफ़ जाते और कभी-कभी बीच रास्ते में दम तोड़ते देख रहें न ये सभी पाताल लोक के निवासी हैं. इनकी ज़रूरत किसी को नहीं है.
ये शहर में आकर आपके लिए मॉल, सिनेमा हॉल, ऊंची-ऊंची सोसायटी बनाते हैं लेकिन इनके लिए इन शहरों के इन आलीशान जगहों में कोई जगह नहीं है. ये तो बदनुमा दाग हैं शहर पर. इनकी ज़रूरत सिर्फ़ वोट के...
'ये जो सिस्टम है चौधरी दूर से देखने में सड़ा-गला कचरे का ढ़ेर लगता है लेकिन अंदर घुस के समझोगे न, तो वेल-ऑयल मशीनरी है. हर पुर्ज़े को मालूम है उसे क्या करना है और जिसको नहीं पता होता उस पुर्ज़े को बदल दिया जाता है लेकिन ये सिस्टम कभी नहीं बदलता.'
यूं तो पाताल लोक के ज़्यादातर डॉयलॉग सीधे दिमाग़ से लग कर दिल में उतरते हैं मगर ये डॉयलॉग इस देश और इसके सिस्टम की हक़ीक़त को बयान करने के लिए काफ़ी है. एक ऐसा सिस्टम जहां सिर्फ़ पैसे वालों और सत्ता में बैठे लोगों की चलती है. वो जो चाहें जैसे चाहे सिस्टम को अपने हिसाब से घुमा सकते हैं. जहां ग़रीबों की कोई क़ीमत नहीं है. जो ग़रीब लोग हैं वही पाताल लोक के मूल निवासी हैं. यानि जो कीड़े-मकोड़े की तरह जन्म लेते हैं और रेंगते-रेंगते ज़िंदगी बीता कर किसी गली-नुक्कड़ पर कभी गाड़ी के नीचे आ कर तो कभी किसी बीमारी में इलाज़ न करवा पाने की वजह से बेमौत मर जाते हैं. इन पाताल लोक के निवासियों को समझने के लिए आपको कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं है.
आप जो आजकल न्यूज़ चैनल और अपने सोशल मीडिया के फ़ीड में ग़रीब, प्रवासी मज़दूरों को सड़कों पर नंगे पांव चलते, भूख से बिलबिलाते, आंखों में आए आंसू को छिपा कर कैमरे की तरफ़ देखते तो ट्रकों और बसों में जानवरों की तरह लद कर अपनी गांव की तरफ़ जाते और कभी-कभी बीच रास्ते में दम तोड़ते देख रहें न ये सभी पाताल लोक के निवासी हैं. इनकी ज़रूरत किसी को नहीं है.
ये शहर में आकर आपके लिए मॉल, सिनेमा हॉल, ऊंची-ऊंची सोसायटी बनाते हैं लेकिन इनके लिए इन शहरों के इन आलीशान जगहों में कोई जगह नहीं है. ये तो बदनुमा दाग हैं शहर पर. इनकी ज़रूरत सिर्फ़ वोट के टाइम में होती है उसके बाद नहीं. सरकार को नहीं फ़र्क़ पड़ता कि ये ज़िंदा हैं भी या नहीं. अगर हैं तो किस हाल में हैं. तो पाताल लोक के मूल निवासी यही हैं.
ख़ैर, मैं मुद्दे से भटक गयी थी. वैसे देखा जाए तो शायद नहीं भटकी थी क्योंकि इस सीरिज़ में भी इसका मुख्य किरदार हाथीराम आउटर यमुना पार थाने में पोस्टेड है जहां ऐसे ही लोग रहते हैं. जिनको अपने-अपने मतलब के लिए समय-समय पर अपने धर्म और जाति वाले अमीर लोग इस्तेमाल करते हैं.
पाताल लोक में भी यही दिखाया गया है. कैसे पुलिस महकमा के सबसे ऊपरी लाइन में बैठे लोग, सीबीआई वाले सब के सब देश की भ्रष्ट राजनीति का हिस्सा हो चुके हैं. और जो ईमानदार लोग हैं उनके लिए अपनी जगह और ईमानदारी बचाए रखना कितना मुश्किल है. इसके साथ ही एक और चीज़ जिसे बेहद तरीक़े से डायरेक्टर ने दिखाया है वो है आज के समाज में अल्पसंख्यक समुदाय की स्थिति.
कैसे नाम के आधार पर उनको शक की निगाह से देखा जाने लगा है. कुछ लोगों की वजह से उनकी ईमानदारी पर सवाल उठने लगें हैं. और हां जैसे-जैसे ये सीरिज़ आगे बढ़ती है इसमें एक और डॉईमेनशन जुड़ता है वो है अनाथ बच्चों की ज़िंदगी की कहानी. कैसे वो वक़्त के हाथो में आ वक़्त से पहले ही बड़े हो कर मर जाते हैं.
15 मई को ऐमज़ॉन प्राइम पर आयी नयी सीरिज़ पाताल लोक आइना है देश का. ये देश के सिस्टम को उघाड़ कर रख दे रही है. स्क्रिप्ट अच्छी है लेकिन अंत आते आते पकड़ ढीली हो जाती है राइटर की. कहानी ठीक है लेकिन एक्सेक्यूशन ऐव्रेज़ है फिर देखा जा सकता है. कुल 9 एपिसोड हैं इसमें. ‘मिर्ज़ापुर’ और ‘सेक्रेड गेम्स’ पसंद करके वाले देख लें.
मुझे तो ‘सक्रेड गेम्स’ भी ओवर-रेटेड लगी थी. उस हिसाब से इसे उतना हाइप नहीं मिल रहा जो ये डिज़र्व भी करती है. पेस स्लो है, कॉन्फ़्लिक्टस बचकाने लगे जो मुझे ‘असुर’ देख कर भी लगा था. हिंदी सीरिज़ के साथ दिक्कत यही है. ये बिल्ड सब कुछ बड़ा करते हैं लेकिन अंत एकदम चौपट टाइप. बाक़ी जयदीप अहलावत ओन दिस सीरिज़ बट नीरज क़ाबी इज़ लव!
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