बाबा रामदेव द्वारा लांच की गई पतंजलि कोरोनिल दवा को लेकर की गई इस टिप्पणी को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म फेसबुक ने आपत्तिजनक मानते हुए कुछ देर के लिए ब्लॉक कर दिया था:
तालाबंदी के बाद से अब तक का जीवन बाबाजी की गिलोय वटी खाकर गुज़रा. रोज़ दो गोली ख़ाली पेट सुबह-शाम. गिलोय वटी के साथ-साथ नियमित तुलसी घनवटी और नीम घनवटी का सेवन भी चलता रहा. घर के बाहर तुलसी का बिरवा है. मीठी नीम भी है. जब भी शरीर में ज्वर लगे, दूध में हलदी मिलाकर पी जाने की आदत रही. दूध ना हो तो एक चम्मच हलदी फांककर ऊपर से गर्म पानी पी लिया और सो रहे. घर के बाहर वृन्दा विराजित होने का लाभ यह रहा कि जब लगा, तब गुड़, अदरक, हल्दी और तुलसी का काढ़ा बनाकर पी लिया. फिर मालूम हुआ, एक दिव्य काढ़ा बाबाजी ने भी बनाया है, जिसमें दालचीनी, लवंग, जावित्री, जायफल, काली मिर्च, मुलेठी, वन तुलसी, ब्राह्मी, शंखपुष्पी, पिप्पली इत्यादि पड़ती है. तो वह भी ले आए. च्यवनप्राश तो है ही सदाबहार. भोजन के उपरान्त मिष्ठान की तृष्णा रहती है तो उसे इधर बाबाजी के च्यवनप्राश से ही मिटाया. च्यवनप्राश में आंवला-तत्व का बड़ा सौंदर्य है.
घर की गली के बाहर सड़क पर ही लगा हुआ पतंजलि का स्टोर है. पतंजलि से हमको वैसा कोई वैर नहीं है कि नाम सुनते ही नाक सिकोड़ें. पतंजलि सुनकर हम भड़कते नहीं हैं. जैस संसार में बहुतेरे रूप हैं, वैसे ही यह भी रूप है. उससे अतिशय आसक्ति भी नहीं है. सुना था कि गिलोय को आयुर्वेद में अमृतवल्ली कहा गया है. यह आरोग्य बढ़ाती है. किरीट-विषाणु (कोरोनावायरस) की तीन-चार माह की सोहबत में चिकित्सा-विज्ञान सम्बंधी बहुत ज्ञान मिला, किंतु ज्ञान का सार...
बाबा रामदेव द्वारा लांच की गई पतंजलि कोरोनिल दवा को लेकर की गई इस टिप्पणी को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म फेसबुक ने आपत्तिजनक मानते हुए कुछ देर के लिए ब्लॉक कर दिया था:
तालाबंदी के बाद से अब तक का जीवन बाबाजी की गिलोय वटी खाकर गुज़रा. रोज़ दो गोली ख़ाली पेट सुबह-शाम. गिलोय वटी के साथ-साथ नियमित तुलसी घनवटी और नीम घनवटी का सेवन भी चलता रहा. घर के बाहर तुलसी का बिरवा है. मीठी नीम भी है. जब भी शरीर में ज्वर लगे, दूध में हलदी मिलाकर पी जाने की आदत रही. दूध ना हो तो एक चम्मच हलदी फांककर ऊपर से गर्म पानी पी लिया और सो रहे. घर के बाहर वृन्दा विराजित होने का लाभ यह रहा कि जब लगा, तब गुड़, अदरक, हल्दी और तुलसी का काढ़ा बनाकर पी लिया. फिर मालूम हुआ, एक दिव्य काढ़ा बाबाजी ने भी बनाया है, जिसमें दालचीनी, लवंग, जावित्री, जायफल, काली मिर्च, मुलेठी, वन तुलसी, ब्राह्मी, शंखपुष्पी, पिप्पली इत्यादि पड़ती है. तो वह भी ले आए. च्यवनप्राश तो है ही सदाबहार. भोजन के उपरान्त मिष्ठान की तृष्णा रहती है तो उसे इधर बाबाजी के च्यवनप्राश से ही मिटाया. च्यवनप्राश में आंवला-तत्व का बड़ा सौंदर्य है.
घर की गली के बाहर सड़क पर ही लगा हुआ पतंजलि का स्टोर है. पतंजलि से हमको वैसा कोई वैर नहीं है कि नाम सुनते ही नाक सिकोड़ें. पतंजलि सुनकर हम भड़कते नहीं हैं. जैस संसार में बहुतेरे रूप हैं, वैसे ही यह भी रूप है. उससे अतिशय आसक्ति भी नहीं है. सुना था कि गिलोय को आयुर्वेद में अमृतवल्ली कहा गया है. यह आरोग्य बढ़ाती है. किरीट-विषाणु (कोरोनावायरस) की तीन-चार माह की सोहबत में चिकित्सा-विज्ञान सम्बंधी बहुत ज्ञान मिला, किंतु ज्ञान का सार यही था कि एक सीमा के बाद सबकुछ आपकी प्रतिरोधक क्षमता पर ही निर्भर करता है.
तो जो वस्तु प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाए, वह आज अमृततुल्य है. हमने मदिरा ना पीकर अपने यकृत और धूम्रशलाका ना फूंककर अपने फुफ्फुसों को सुरक्षित रखा था. ऊष्ण जल के सेवन से वृक्क भी चंगे ही मालूम होते थे. अन्नाहारी-फलाहारी भोजन हृदयमण्डल के लिए सुरुचिकर था. फिर भी प्रतिरोध जितना पुष्ट हो, उतना ही शुभ- यही सोचकर गिलोय वटी के नियमित सेवन का निर्णय लिया.
पतंजलि स्टोर आते-जाते रहे तो देखा, वहां राशन वग़ैरा भी मिलता है. तो पतंजलि का तेल-साबुन ले आए. बड़ी-पापड़ ले आए. जौ का दलिया ले लिया. दाल-भात के साथ ही टोमैटो कैचप भी ले लिया. इसमें कोई हानि है, ऐसा सोचा नहीं. यानी किसी और कारोबारी को हानि हो तो हो, हमें तो हानि नहीं है. इससे हम बाबाजी के भक्त हो गए, वैसा भी नहीं है. सभी के घर हर महीने राशन आता है. भांति-भांति के तेल-साबुन आते हैं. अलग से दवाइयां आती हैं. आज की तारीख़ में डॉक्टर का प्रिस्क्रिप्शन वेदवाक्य है. उसने जो लिख दिया, वही सब ले आते हैं.
एक अस्पताल की दवाई केवल उसी के मेडिकल काउंटर पर मिलती है, जांचों के भी अपने-अपने ठिकाने होते हैं, इस पर कोई आपत्ति नहीं लेता. हमने तो आज तक किसी को यह कहते नहीं सुना कि यह तेल बनाने वाली कम्पनी का सीईओ मुझको पसंद नहीं, यह साबुन बनाने वाली फ़र्म की विचारधारा ठीक नहीं है, इस दवाई फ़ार्मा का स्वामी कुशाग्र व्यापारी है. किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. जिसको जो रुचता है, उस उत्पाद का उपभोग करता है.
जंचता है तो बात आगे बढ़ती है, नहीं तो अगले माह की सूची से उसका नाम कट जाता है. वैसा ही दवाइयों को लेकर है. दवाई से लाभ हुआ तो ठीक है, वरना दवाई बदल दी जाती है. दवाई बनाने वाले से किसी का वैर नहीं होता. उसको तो कोई जानता भी नहीं कि वो कौन भलामानुष है.बशर्ते दवाई बनाने वाला का नाम बाबा रामदेव हो. उसके बाद फिर पूरी कहानी ही बदल जाती है.
बाबाजी की कोरोनिल की बड़ी चर्चा है. दवाई आयुर्वेदिक है और उसका साइड इफ़ेक्ट नहीं होगा, इसलिए इसकी भरपूर बिक्री निश्चित है. लोग आज़माकर देखेंगे. उनको कोई रोक नहीं सकेगा. कहा जा रहा है कि दवाई का क्लिनिकल ट्रायल मानदंडों पर नहीं हुआ. पतंजलि ने दावा किया कि दवाई सौ फ़ीसदी परिणाम देती है, किंतु परीक्षण कितना व्यापक था, इस पर प्रश्न हैं. पर यह भी सच है कि कोरोनोवायरस पर संसार में भांति-भांति के प्रयोग हुए हैं और बहुतेरे दावे इसको लेकर किए गए हैं.
यह नॉवल कोरोनावायरस है, यानी ये नया और अभूतपूर्व है. इसकी प्रकृति को लेकर कोई निश्चित नहीं, इसलिए इसको लेकर बनाई गई समझ बदलती रहती है. आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने ऐसी कोई प्रविधि प्रमाणित नहीं की है, जो इसके इलाज में सौ फ़ीसद कारगर हो और वैक्सीन इसकी अभी तक बनी नहीं है. किंतु बाबाजी बड़बोले हैं, ये उनके भक्त भी बख़ूबी जानते हैं.
उनकी बातों में सदैव ही गम्भीरता हो, यह भी आवश्यक नहीं. वो मजमा लगाने से परहेज़ नहीं करते, चतुरसुजान हैं और व्यापार करना ख़ूब समझते हैं- यह सब भी किसी को प्रतिकूल भले लगे, अपराध तो नहीं ही है.
गिलोय घनवटी के नियमित सेवन से मुझको कोई लाभ हुआ हो, इसका प्रामाणिक वृत्तांत मैं नहीं कर सकूंगा. वह तो मेरा शरीर ही जानता है. किंतु मुझे इसके सेवन से कोई हानि भी नहीं है, तो ले रहा हूं. कोरोनिल भी ऐसे ही ली जाएगी. ये दवा सौ फ़ीसद कारगर है- यह दावा भले अतिरेकपूर्ण मालूम होता हो, किंतु जनता तो मूर्ख नहीं है. लाभ होने पर ही इसको सच मानेगी. लाभ नहीं हुआ तो कोई बाबाजी पर मुक़दमा नहीं दायर कर देगा. संसार में हर दुकानदार यही दावा करता है कि हमारे यहां सर्वोत्तम सामग्री मिलती है, कोई किसी से विवाद नहीं करता कि आपने सर्वोत्तम का निर्णय कैसे कर लिया.
भारत-देश है, यहां इतना सब चलता है. बाबाजी ने कह दिया है कि कोरोनिल इम्युनिटी बढ़ाने के लिए नहीं, उपचार के लिए है. किंतु अगर इससे इम्युनिटी में भी लाभ होता है तो भी इसके सेवन से कोई हर्ज नहीं करेगा. दवाई का मूल्य न्यूनतम है. महामारी से लड़ रही दुनिया के पास वैसे भी आज खोने के लिए क्या है?
फिर यह कोई पहली दवाई या उपचार तो है नहीं, जो रामबाण कहलाकर मैदान में उतरी है. रेमिडिसीवर गेमचेंजर कहलाई थी. उसके मैन्युफ़ेक्चरर्स के प्रति तो किसी ने वैसी घृणा नहीं जतलाई, जैसी बाबाजी के प्रति फूटी पड़ रही है. इज़रायल ने वैक्सीन बनाने का दावा किया, किसी ने जाकर पूछा नहीं कि भई फिर उसमें आगे क्या हुआ? भारत में प्लाज़्मा थैरेपी को लेकर बहुत बातें हुई थीं, उसे भी आज़माकर देखा गया.
होम्योपैथिक वालों ने थूजा, इग्नेशिया, आर्सेनिक अल्ब और न्यूमोकोकिनम के कॉम्बिनेशन को जादुई बताया, लेकिन किसी ने यह परामर्श देने वाले का गला नहीं पकड़ा. अमरीका हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन पर ही मर मिटा. मलेरिया की दवाई अमृतवटी हो गई. प्रेसिडेंट ट्रम्प ने कहा, मैं ख़ुद हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन लेता हूं. आगे जोड़ दिया, दवाई से कोई साइड इफ़ेक्ट नहीं होता है तो लेने में बुराई क्या है.
हमारे पास खोने के लिए क्या है? किंतु ट्रम्प ने इस दवाई का नाम लिया और मोदी ने ट्रम्प को ये दवाई सप्लाई की, इतने भर से यह अछूत हो गई. यारों ने कहा, मर जाएंगे पर हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन नहीं खाएंगे. मत खाइए. लेकिन जिसको खाना है, वह तो खाएगा. फ़ार्मास्यूटिकल माफ़िया कितना ताक़तवर है, इसका अंदाज़ा आज हमको नहीं है. हथियार इंडस्ट्री से कमज़ोर नहीं है दवाई इंडस्ट्री. क्या आपको पता है, लैन्सेट जैसी दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित मेडिकल-पत्रिका में एक लेख छपा था, जिसमें कहा गया था कि हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन के सेवन से कोरोना में कोई लाभ नहीं होता.
पूरी दुनिया के डॉक्टर इस पत्रिका में कही गई बातों को मानदण्ड मानते हैं तो उन्होंने यह पढ़कर अपने रोगियों को हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन देना बंद कर दी. बाद में मालूम हुआ, वह लेख फ़र्ज़ी था. उसको लिखने वाले साइंस फ़िक्शन और सॉफ़्ट पोर्न के लेखक पाए गए. लेख छापने से पहले उसकी जांच भी नहीं की गई थी. जो फ़ार्मा इंडस्ट्री लैन्सेट में फ़र्ज़ी आर्टिकल छपवाकर एचसीक्यू दवाई पर रोक लगवा सकती है, वो कोरोनिल का क्या हाल करेगी, सोच लीजिए.
फिर बात केवल फ़ार्मा इंडस्ट्री की ही नहीं, कोरोनिल के साथ तो दूसरे कोण भी जुड़े हैं. ये दवाई बाबाजी ने बनाई है. बखेड़ा दवाई पर नहीं बाबाजी पर है. बाबाजी भगवा पहनते हैं. भारत के बुद्धिमान यह रंग देखकर भड़कते हैं. जो सांड के लिए लाल है, वो भांड के लिए भगवा है. बाबाजी योग और आयुर्वेद की बात करते हैं. योग और आयुर्वेद तो फ़ासिज़्म हैं. कल्चरल नेशनलिज़्म है. यह एक और बुराई. तिस पर कोढ़ में खाज यह कि बाबाजी को सरकार का प्रश्रय प्राप्त है.
सरकार तो भस्मासुर है, उसने जिसके सिर पर हाथ रख दिया, वो बौद्धिक वैधता की सृष्टि से भस्मीभूत हो गया. इतनी सारी बुराइयां जिस चीज़ में हों, उसका विरोध तो अब मेरे देश के बुद्धिमान करेंगे ही. किंतु महामारी से त्रस्त दुनिया जहां अंधेरे में लट्ठ चला रही है, भागते भूत की लंगोट पकड़ रही है और डूबते हुए तिनका ढूंढ रही है, वैसे ही वह कोरोनिल भी गटक लेगी.
जो ये दवाई लेगा, वो मन ही मन यह जानेगा कि इससे सब ठीक हो जाएगा, ये तय नहीं है. फिर भी वो आज़माकर ज़रूर देखेगा. अब चाहे कोई रोए या गाए. मेरी गली के बाहर सड़क से लगा पतंजलि का स्टोर है. जैसे ही आयुष मंत्रालय की हरी झण्डी मिली, और जैसे ही स्टॉक स्टोर पर पहुंचा, मैं तो जाकर ले आऊंगा.
बाबाजी की गोली से मुझको कोई परहेज़ नहीं है. बाबाजी पैसा कमा लेंगे, यह सोचकर भी मेरा ख़ून जलता नहीं. कोई ना कोई तो कमाएगा ही. बाबाजी भगवाधारी हैं, इससे मुझको अड़चन नहीं होती है. बाबाजी दाढ़ी रखते हैं तो क्या हुआ? कार्ल मार्क्स भी दाढ़ी रखता था, फ़िदेल कास्त्रो की भी दाढ़ी थी, आतंकवाद की भी दाढ़ी होती है. कुल-मिलाकर मुझको कोरोनिल से कोई ख़ास समस्या नहीं है. आपकी आप जानें.
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