एक महिला एडवोकेट ने लिव इन संबंधों के रजिस्ट्रेशन के लिए नियम और दिशा निर्देश बनाने के लिए केंद्र सरकार को निर्देशित करने की जनहित याचिका डालकर शीर्ष न्यायालय को सांसत में डाल दिया है. क्योंकि माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कई बाद लिव-इन पार्टनर्स के लिए सुरक्षा उपलब्ध कराई है; कई ऐसे फैसले पारित किए हैं, जिन्होंने लिव-इन पार्टनर्स, चाहे वह महिला हों, पुरुष हों या यहां तक कि ऐसे रिश्ते से पैदा हुए बच्चे भी, के लिए भी सुरक्षा के दिशा निर्देश जारी किये हैं.
ऐतराज शीर्ष अदालत द्वारा लिव इन रिलेशनशिप में रहने वालों को प्रोटेक्ट किये जाने पर नहीं है, बल्कि जब फैसलों से इस प्रकार के रिश्तों की नैतिक स्वीकार्यता पर बल देते हुए पक्षधरता झलकती है, सवाल उठते हैं कि क्या इसी वजह से ही तो लिव इन संबंधी अपराधों में भारी वृद्धि नहीं हुई है, जिसमें हत्या और बलात्कार जैसे जघन्य अपराध भी शामिल हैं? याचिका में, हाल के उन मामलों का हवाला देते हुए जहां महिलाओं को कथित रूप से उनके लिव इन पार्टनर ने मार दिया जिसमें श्रद्धा वाकर मामला भी शामिल है, पिटीशनर महिला अधिवक्ता ने केस फॉर के लिए आर्ग्युमेंट दिया है कि लिव-इन रिलेशनशिप के रजिस्ट्रेशन से दोनों पार्टनर्स को एक-दूसरे के बारे में और सरकार को भी उनकी वैवाहिक स्थिति, उनके आपराधिक इतिहास और अन्य प्रासंगिक विवरणों के बारे में सटीक जानकारी उपलब्ध होगी. पेटिशन इस ओर भी ध्यान आकर्षित करती है कि बलात्कार और हत्या जैसे अपराधों में वृद्धि के अलावा, महिलाओं द्वारा दायर किए जा रहे झूठे बलात्कार के मामलों में भी भारी वृद्धि हुई है, जिसमें महिलाएं लिव-इन रिलेशनशिप में रहने का दावा करती हैं, जहां अदालतों के लिए सबूतों से यह पता लगाना हमेशा मुश्किल होता है कि लिव-इन रिलेशनशिप में रहने का तथ्य सबूतों को नकारता है या समर्थन करता है.
सुप्रीम कोर्ट पहुंची लिव-इन रिश्तों की पेंचीदगी.
अभी तक लिव इन के मुत्तालिक हुए विभिन्न फैसलों का सार निकालें तो लिव-इन रिलेशनशिप को वैधता अनुच्छेद 19 (भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार) और अनुच्छेद 21(भारत के संविधान के जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार) के आधार पर दी गई है.
"जीवन का अधिकार किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता पर हर तरह से जीवन का आनंद लेने पर जोर देता है जब तक कि मौजूदा कानूनों द्वारा इसे प्रतिबंधित नहीं किया जाता है. यह एक स्वतंत्र समाज है और कोई भी जहां चाहे वहां रह सकता है. लिव-इन रिलेशनशिप के संदर्भ में, अनुच्छेद 21 के तहत जीवन का अधिकार इस अर्थ में लागू होता है कि एक व्यक्ति को अपनी रुचि के व्यक्ति के साथ शादी के साथ या उसके बिना रहने का अधिकार है."
1978 के सुप्रीम कोर्ट के बहुचर्चित बद्री प्रसाद के मामले में दिए गए फैसले के अनुसार भारत में लिव इन रिलेशनशिप कानूनी है, BT subject to caveats like age of marriage, consent and soundness of mind.
दरअसल समस्या इन्हीं कैविएट मसलन उम्र, सहमति/असहमति और स्थिर दिमाग की अवहेलनाओं से पैदा होती हैं. फिर लिव इन रिलेशनशिप को लेकर आज तक जो भी राहत जब भी शीर्ष न्यायालय ने दी हैं, कानूनी वैवाहिक संबंधों से ही सादृश्य लिया है, मसलन एविडेंस एक्ट की धारा 114 के हवाले से कहा गया कि अगर पुरुष और महिला सालों तक पति-पत्नी की तरह साथ रहते हैं, तो मान लिया जाता है कि दोनों में शादी हुई होगी और इस आधार पर उनके बच्चों का पैतृक संपत्ति पर भी हक़ होगा. सो यदि विवाहित दंपत्ति के लिए कानूनी प्रावधान हैं मसलन पंजीकरण, तलाक, भरण पोषण आदि तो लिव इन रिलेशनशिप के लिए भी क्यों ना कुछ बेसिक कानूनी बंदिशें स्पेल आउट हों. आख़िर विवाह इतना प्रासंगिक है तो लिव इन को भी प्रासंगिक क्यों ना बनाया जाए ?
निःसंदेह लिव इन रिलेशन से जुड़ी फ्रीडम का सम्मान रखते हुए फ्री एग्जिट दिया जा सकता है बशर्ते आपसी रजामंदी दोनों की है तो. कहने का तात्पर्य यही है कि अलग होने के लिए तलाक जैसी प्रक्रिया की बाध्यता इस रिलेशन में ना रखी जाए.
कुल मिलाकर याचिका ने महत्वपूर्ण सवाल खड़े किये हैं. जनहित में ना सिर्फ कानून बने बल्कि देश में लिव-इन रिलेशनशिप में शामिल लोगों का डाटाबेस भी बने. और ऐसा केवल लिव-इन पार्टनरशिप के पंजीकरण को अनिवार्य बनाकर ही किया जा सकता है.
चूंकि याचिका मंजूर करना शीर्ष न्यायालय के विवेकाधिकार के अधीन है, देखना दिलचस्प होगा क्या हश्र होता है ? क्या याचिका युक्तियुक्त ठहरती है इस बात पर कि केंद्र सरकार की लिव-इन पार्टनरशिप को पंजीकृत करने में विफलता संविधान के अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है?
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.