'स्वत्छ सवच्छ भारत, सवस्थ भारत' फेसबुक से लेकर ट्विटर तक सम्पूर्ण सोशल मीडिया जगत इन 4 शब्दों से पटा पड़ा है. ये चार शब्द अगर किसी 4 के बच्चे के होते तो कोई बात नहीं थी. लोगों के लिए बड़ी बात ये है कि ये चार शब्द किसी ऐरे गैरे के नहीं बल्कि मीनाक्षी लेखी के हैं. हां वही लेखी जो भारतीय जनता पार्टी की बेहद पढ़ी लिखी और तेजतर्रार सांसद हैं. जिन्हें आए दिन हम टीवी में डिबेट करते हुए देखते हैं, विपक्ष के सामने जिनके तर्क हमें वाह, उम्दा, बहुत खूब जैसे अलग - अलग विशेषण इस्तेमाल करने पर मजबूर कर देते हैं.
आज जब हम इन चार शब्दों को देख रहे हैं तो जो बात हमें परेशान कर रही है वो ये कि आखिर लेखी ऐसा कैसे लिख सकती हैं. इतनी पढ़ी लिखी होने के बाद आखिर वो ऐसी गलती कैसे कर सकती हैं. खैर, लेखी ने ये शब्द कहां लिखे, क्यों लिखे, किस लिए लिखे इस खबर से तमाम समाचारपत्र और वेबसाइटें भरी पड़ी हैं हम इस बारे में बात बिल्कुल नहीं करेंगे.
हमारी चिंता का विषय कुछ और है. हमारी चिंता लेखी द्वारा लिखी हिन्दी नहीं है बल्कि हिन्दी की दयनीय स्थिति है. फिक्र हमें लेखी की हिन्दी पर तब बिल्कुल नहीं करनी चाहिए जब हम खुद हिन्दी का प्रयोग और उसका संरक्षण करने में असमर्थ हैं. हो सकता है ये पंक्तियां आपको सोचने पर मजबूर करें कि हम लेखी की अनदेखी को आपके मत्थे क्यों चढ़ा रहे हैं. तो साहब, बात बड़ी सिंपल यानी साधारण सी है.
'स्वत्छ सवच्छ भारत, सवस्थ भारत' फेसबुक से लेकर ट्विटर तक सम्पूर्ण सोशल मीडिया जगत इन 4 शब्दों से पटा पड़ा है. ये चार शब्द अगर किसी 4 के बच्चे के होते तो कोई बात नहीं थी. लोगों के लिए बड़ी बात ये है कि ये चार शब्द किसी ऐरे गैरे के नहीं बल्कि मीनाक्षी लेखी के हैं. हां वही लेखी जो भारतीय जनता पार्टी की बेहद पढ़ी लिखी और तेजतर्रार सांसद हैं. जिन्हें आए दिन हम टीवी में डिबेट करते हुए देखते हैं, विपक्ष के सामने जिनके तर्क हमें वाह, उम्दा, बहुत खूब जैसे अलग - अलग विशेषण इस्तेमाल करने पर मजबूर कर देते हैं.
आज जब हम इन चार शब्दों को देख रहे हैं तो जो बात हमें परेशान कर रही है वो ये कि आखिर लेखी ऐसा कैसे लिख सकती हैं. इतनी पढ़ी लिखी होने के बाद आखिर वो ऐसी गलती कैसे कर सकती हैं. खैर, लेखी ने ये शब्द कहां लिखे, क्यों लिखे, किस लिए लिखे इस खबर से तमाम समाचारपत्र और वेबसाइटें भरी पड़ी हैं हम इस बारे में बात बिल्कुल नहीं करेंगे.
हमारी चिंता का विषय कुछ और है. हमारी चिंता लेखी द्वारा लिखी हिन्दी नहीं है बल्कि हिन्दी की दयनीय स्थिति है. फिक्र हमें लेखी की हिन्दी पर तब बिल्कुल नहीं करनी चाहिए जब हम खुद हिन्दी का प्रयोग और उसका संरक्षण करने में असमर्थ हैं. हो सकता है ये पंक्तियां आपको सोचने पर मजबूर करें कि हम लेखी की अनदेखी को आपके मत्थे क्यों चढ़ा रहे हैं. तो साहब, बात बड़ी सिंपल यानी साधारण सी है.
हिन्दी भाषा और उसके संरक्षण के नाम पर, भेड़ चाल में चलते हुए और सोशल मीडिया के कमोड पर चढ़कर आप मीनाक्षी के पीछे पड़ गए हैं. हो सकता है ये आपको क्षणिक सुख दे और आप खुश हो जाएं मगर इसके इतर आकर और अपने कॉलर में झांक कर सोचिये सच्चाई से आप खुद-ब-खुद अवगत हो जाएंगे. मिनाक्षी भी इंसान हैं, गलतियां इंसानों से ही होती हैं अब ऐसे में आप उनकी गलती पकड़कर और अपनी गलतियां नजरअंदाज कर उनका मजाक बनाना शुरू कर दें तो निस्संद्देह ही ये एक चिंता का विषय है.
वो समाज जो खुद हिन्दी नहीं पढ़ना चाहता, जिसे हिन्दी बोरिंग और पिछड़ों की भाषा लगती है वो जब 'हिन्दी' के प्रति सीजनल जज्बाती' हो जाये तो ये बात किसी को भी परेशान करने के लिए काफी है. हम आपसे ये बिल्कुल भी नहीं कह रहे कि आप अन्य भाषाओं को भूल कर हिन्दी के गले लग जाइए हम बस आपसे ये कह रहे हैं कि बेहतर होता कि आप दूसरों को उपदेश देने के बजाय हिन्दी के लिए खुद कुछ सकारात्मक पहल करते.
वर्तमान परिपेक्ष में ये कहना अतिश्योक्ति ना होगी कि यदि आप अच्छी हिन्दी जानते हैं मगर ना आने के चलते अंग्रेजी या दूसरी फॉरन लैंग्वेज नहीं बोल पाते, पढ़ पाते या लिख पाते तो कब ये सभ्य समाज आपका हुक्का पानी बंद कर दे ये बात खुद मां सरस्वती को भी नहीं पता. वर्तमान समय में स्थिति बड़ी गंभीर है और वो दिन दूर नहीं जब हम भारतीय, लैंग्वेज क्राइसिस का शिकार हो जाएंगे, लैंग्वेज क्राइसिस यानी वो समय जब अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषाएँ हमारे अन्दर कूट कूट के भरी होंगी मगर अपने आस पास की, अपने परिवेश की भाषा से हम कोसों दूर रहेंगे.
आप इस बात को कुछ यूं भी समझ सकते हैं कि आज के दौर में ब्राहमण संस्कृत नहीं जानता, मुसलमान उर्दू से दूरी बना रहे हैं. पश्चिम बंगाल के सुदूर बिश्नुपुर के नयी पौध के बच्चे बंगाली नहीं जानते, कर्नाटक के बैंगलोर और मैसूर में बसा उड़िया परिवार अपनी भाषा से बिल्कुल अछूता है, दिल्ली में रह रहे मलयाली परिवार के बच्चे को मलयालम पढ़ना नहीं आता इत्यादि.
हिंदी बल्कि कोई भी अन्य भारतीय भाषा संकट के दौर से गुज़र रही है. याद रखिये हमारी भाषाएं हमारे इतिहास को दर्शाती हैं और ये बात आप खुद जानते ही होंगे कि एक कौम एक समुदाय के लिए उसका इतिहास भूलना कितना घातक हो सकता है. हम आपसे कदापि ये नहीं कहते कि आप अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिश, जर्मन, जैसी ग्लोबल भाषाओं को छोड़कर धोती कुरते, जानेऊ में हिंदी को, कुरते पैजामें और गोल जालीदार टोपी में उर्दू को अपना जीवन समर्पित कर दें.
न ही हम इसके पक्ष में हैं कि आप अपने मित्रों, ग्रुप में या फिर बुद्धिजीवियों के बीच अपना सिग्नेचर हिन्दी भाषा में करते हुए उन्हें इस बात का एहसास दिलाएं कि आप हिन्दी या किसी भी अन्य प्रमुख भारतीय भाषा के पंडित हैं, जिसने कलयुग में सिर्फ इसलिए अवतार लिया है कि वो सौ पचास प्रेमचंद और रेणु पैदा कर दे.
हिंदी समेत तमाम भारतीय भाषाएं केवल भाषाएं नहीं हैं ये अलग अलग विचारधाराएं हैं जिसने हमें तमाम विविधताओं के बावजूद एक सूत्र में बांध रखा है और सही से हमारे अन्दर 'वसुधैव कुटुम्बकम' की भावना का संचार किया है.
तो उपरोक्त बातों के मद्देनजर हम आपसे केवल इतना ही कहेंगे कि आप बिल्कुल लोगों की गलतियां निकालें और उन्हें एहसास दिलाएं कि 'आप गलत हैं' लेकिन तब जब आपने खुद इसके लिए कुछ किया हो. अगर इस दिशा में आपको शुरुआत करनी है तो फिर ये नेक काम आज से ही करिए.
लगवाइए हिन्दी में कमजोर अपने बच्चों का ट्यूशन, दीजिये हिन्दी वाले मास्टर साहब को उतनी फीस जितनी आप फिजिक्स और केमिस्ट्री वाले सर को देते हैं, पढ़ने दीजिये अपने बच्चे को हिन्दी, दिलाइये उसे ये एहसास कि हिन्दी पढ़ने का मतलब सौ में से 33 नंबर लाना और केवल पास होना नहीं है.
यदि आप ये सब कर ले गए तो ठीक वरना अभी इसी वक्त जाइए ट्विटर पर, रुख करिए मीनाक्षी लेखी के फेसबुक पेज का और उनसे इसी वक्त आंखों में शर्मिंदगी लिए दोनों हाथ जोड़कर माफी मांग लीजिये. क्या पता एक अच्छे नेता का परिचय देते हुए मीनाक्षी और एक अच्छी भाषा का परिचय देते हुए हिन्दी दोनों ही आपको माफ कर ही दें.
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