देश में शिक्षा की बदहाली को लेकर अच्छे-खासे पढ़े-लिखे लोगों से लेकर सामान्य लोग भी अक्सर मैकॉले को दोष देते दिख जाते हैं. हाँ, वही मैकॉले जिन्हें एक बड़ा वर्ग शिक्षा सुधारो और भारत के वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के जनक के रूप में भी जानता है. इस मसले पर मेरा मानना कुछ और है. मैकॉले से ज्यादा अपने व्यवस्था को खुद हमने चौपट किया है, क्योंकि उनके बाद भी और लगभग इस सदी के शुरुआत तक हमारी व्यवस्था अच्छी भली चली पर जैसे-जैसे हम परिणामों की और उन्मुख होते चले गए कहीं न कहीं हमने शिक्षा का गला घोंट दिया. मैं अपने उदाहरण से ही समझाता हूँ. सीबीएसई दसवीं में मेरा रिजल्ट 10 सीजीपीए था. तब मैं अपने तमाम रिश्तेदारों और जानने वालो में एक बहुत अच्छा विद्यार्थी माना जाता था. बारहवीं में मेरे मात्र 73% नम्बर आए. अब उन्ही रिश्तेदारो के लिए मैं एक नंबर का नकारा विद्यार्थी हो गया था. उन्हें मुझसे कम से कम 90 प्रतिशत मार्क्स की उम्मीद थी. फिर स्थिति थोड़ी सी बदली और मेरा चयन बीएचयू एंट्रेंस में हो गया. उनमे से एक तबके के लिए मैं फिर से बहुत होनहार विद्यार्थी हो गया था. उन्हें ये नहीं पता था कि मैंने एडमिशन किस कोर्स में लिया था. काश वो जानते होते कि मैंने आर्ट्स और राजनीतिक विज्ञान लिया था! तब शायद उन्हें ये भ्रम न होता कि मैं एक अच्छा विद्यार्थी हूँ.
शिक्षा आजकल इस कदर परिणामों पर निर्भर हो गई है कि एक बुरे प्रदर्शन के बाद हम अपने बच्चों का जीना दूभर कर देते हैं. इसमें सबसे खतरनाक भूमिका हमारे देश के सबसे बड़े बोर्ड सीबीएसई ने निभाई है. उसने स्कूली शिक्षा को एक भद्दा मज़ाक बना कर रख दिया है. बच्चों को पहली क्लास से ही मार्क्स के बदले ग्रेड दिया जाता है और ये ग्रेड इतने अपारदर्शी होते हैं कि 50-60 प्रतिशत भी आराम से 8-9 सीजीपीए दिखाए जा सकते हैं. जिन्हें एक आम अभिभावक 80-90 प्रतिशत समझ बैठता है. ऐसे में उन्हें लगता है कि उनका बच्चा काफी अच्छा प्रदर्शन कर रहा है और यहीं से शुरू होती है बच्चों के बर्बादी की कहानी. उसका मार्गदर्शन यहीं रुक जाता है. सबको तो बस...
देश में शिक्षा की बदहाली को लेकर अच्छे-खासे पढ़े-लिखे लोगों से लेकर सामान्य लोग भी अक्सर मैकॉले को दोष देते दिख जाते हैं. हाँ, वही मैकॉले जिन्हें एक बड़ा वर्ग शिक्षा सुधारो और भारत के वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के जनक के रूप में भी जानता है. इस मसले पर मेरा मानना कुछ और है. मैकॉले से ज्यादा अपने व्यवस्था को खुद हमने चौपट किया है, क्योंकि उनके बाद भी और लगभग इस सदी के शुरुआत तक हमारी व्यवस्था अच्छी भली चली पर जैसे-जैसे हम परिणामों की और उन्मुख होते चले गए कहीं न कहीं हमने शिक्षा का गला घोंट दिया. मैं अपने उदाहरण से ही समझाता हूँ. सीबीएसई दसवीं में मेरा रिजल्ट 10 सीजीपीए था. तब मैं अपने तमाम रिश्तेदारों और जानने वालो में एक बहुत अच्छा विद्यार्थी माना जाता था. बारहवीं में मेरे मात्र 73% नम्बर आए. अब उन्ही रिश्तेदारो के लिए मैं एक नंबर का नकारा विद्यार्थी हो गया था. उन्हें मुझसे कम से कम 90 प्रतिशत मार्क्स की उम्मीद थी. फिर स्थिति थोड़ी सी बदली और मेरा चयन बीएचयू एंट्रेंस में हो गया. उनमे से एक तबके के लिए मैं फिर से बहुत होनहार विद्यार्थी हो गया था. उन्हें ये नहीं पता था कि मैंने एडमिशन किस कोर्स में लिया था. काश वो जानते होते कि मैंने आर्ट्स और राजनीतिक विज्ञान लिया था! तब शायद उन्हें ये भ्रम न होता कि मैं एक अच्छा विद्यार्थी हूँ.
शिक्षा आजकल इस कदर परिणामों पर निर्भर हो गई है कि एक बुरे प्रदर्शन के बाद हम अपने बच्चों का जीना दूभर कर देते हैं. इसमें सबसे खतरनाक भूमिका हमारे देश के सबसे बड़े बोर्ड सीबीएसई ने निभाई है. उसने स्कूली शिक्षा को एक भद्दा मज़ाक बना कर रख दिया है. बच्चों को पहली क्लास से ही मार्क्स के बदले ग्रेड दिया जाता है और ये ग्रेड इतने अपारदर्शी होते हैं कि 50-60 प्रतिशत भी आराम से 8-9 सीजीपीए दिखाए जा सकते हैं. जिन्हें एक आम अभिभावक 80-90 प्रतिशत समझ बैठता है. ऐसे में उन्हें लगता है कि उनका बच्चा काफी अच्छा प्रदर्शन कर रहा है और यहीं से शुरू होती है बच्चों के बर्बादी की कहानी. उसका मार्गदर्शन यहीं रुक जाता है. सबको तो बस यही पता होता है कि बच्चे के ग्रेड्स अच्छे हैं और वो काफी होनहार है. सीबीएसई दसवी के रिजल्ट क्लास 9 और 10 के परिणामों को मिलाकर बनते हैं जिसमे 70% भूमिका स्कूलों की होती है और 30% बोर्ड की, स्कूल बेस्ड परीक्षा में स्कूल ही आपके पूरे 100% नम्बर का फैसला करता है. अब ऐसी स्थिति में फाइनल परीक्षा में 60% नम्बर लाने वाला बच्चा भी 9 सीजीपीए के ऊपर पहुँच जाता है. हम उसे 90 प्रतिशत समझ बैठते हैं!
बिहार बोर्ड परीक्षा के नतीजो के बाद सुधार जरूरी |
अचानक से बच्चे से हमारी अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं और यहीं से अभिभावक उनपर अपनी इच्छाएं थोपना शुरू करते हैं. देश के अन्य बोर्डों की स्थिति भी कमोबेस यही है. यूपी बोर्ड में रेवड़ियों के तरह नंबर मिलते हैं और सामान्य जोड़ घटाव न जानने वाला भी डिस्टिंक्शन पा जाता है. बिहार बोर्ड में भी पिछले साल तक 30% से अधिक बच्चे फर्स्ट डिवीज़न पा जाते थे. मध्य प्रदेश में आलम ये है कि आप साल भर के कोर्स का सर्टिफिकेट दो महीने में जुगाड़ कर सकते हैं. दूसरे स्टेट बोर्ड्स की भी ऐसी ही कहानी है. दक्षिण के कुछ राज़्यों में स्थिति थोड़ी बेहतर है. ऐसे स्थिति के कई दुष्परिणाम हैं. पहला तो ये कि हम बच्चे की वास्तविक क्षमताओं को कभी जान ही नहीं पाते हैं, जो हमें पता चलता है वो उनके क्षमता से कहीं अधिक होता है. सीबीएसई दसवीं में हर साल डेढ़ लाख से अधिक छात्र 10 सीजीपीए पाते हैं. क्या सब एक जैसे होते हैं? क्या सब बहुत होनहार विद्यार्थी ही होते हैं?
इन हालात मे अधिकतर विद्यार्थी वो करने और पढ़ने को मजबूर हो जाते हैं जो वो कभी करना ही नहीं चाहते. आए दिन हो रहे छात्रों के आत्महत्याओं के पीछे क्या कारण है? असफल छात्रों और बढ़ते कोचिंग संस्थानों के पीछे क्या कारण है? क्या आपने कभी गौर किया है!
दसवी के बाद इनमें से अधिकतर छात्र जबरदस्ती इंजीनियरिंग या मेडिकल की तैयारी करने के लिए मजबूर कर दिए जाते हैं या हो जाते हैं. कइयों के अंदर के वास्तविक व्यक्ति और छात्र को भी हम तभी मार देते हैं. मुझे किसी ने मजबूर नहीं किया था पर मैंने भी तब विज्ञान लेना ही उचित समझा था. मैं ये किसी से कह नहीं पाया था कि मेरी रूचि सोशल साइंस में है, मैथ्स या साइंस में नहीं. खैर ये बात मैं पहले दिन समझ गया था और मैंने अपने घर के लोगो को बता दिया था. सबने मुझे मेरे अपने हिसाब से करने की पूरी छूट दी और मेरे ऊपर कोई दवाब नहीं था. अपेक्षा अनुरूप बारहवीं में मेरे परिणाम अच्छे नहीं रहे पर यहाँ भी मुझे सबका साथ मिला. पर क्या सभी छात्रों के साथ ऐसा हो पाता है? क्या सभी अभिभावक ऐसे होते हैं? शायद नहीं!
जब बच्चे परफॉर्म नहीं कर पाते तो वो या तो किसी प्राइवेट इंजीनियरिंग-मेडिकल कॉलेज में जाकर लगभग अपना जीवन बर्बाद कर लेते है या अलग-अलग तरह के मानसिक,सामाजिक और शारीरिक समस्याओ के शिकार हो जाते है. कई मज़बूरी में अपने वास्तविक रूचि की और लौटते हैं. पर उनकी वास्तविक इच्छा भी अब उनकी मज़बूरी हो चुकी होती है और अधिकतर मामलो में वो अपने संस्थान पर भी बोझ बन जाते हैं. सीबीएसई दसवीं के बाद अचानक ग्यारहवीं से ग्रेड के बदले नम्बर देता है. छात्रो को उनके वास्तविक स्थिति का अंदाजा यहीं होता है. पर क्या तब तक बहुत देर नहीं हो चुकी होती है!
स्टेट बोर्ड तो 12वीं में भी नंबर बांटना और छात्रों को अँधेरे में रखना नहीं छोड़ते. पता नहीं उन्हें इससे क्या मिलता है. शायद ये उनकी अपनी असफलता छुपाने का एक माध्यम हो!
आईसीएसई की इस मामले में प्रशंसा करनी होगी. उसने आज भी अपने आप को इस अंधी दौड़ से बचाए रखा है और उसने शिक्षा के गुणवत्ता से भी समझौता नहीं किया है. इसकी झलक उसके छात्रो में दिख जाती है. आईसीएसई बोर्ड के 70 परसेंट लाने वाले छात्र भी सीबीएसई या स्टेट बोर्ड के 90% लाने वालो के तुलना में कहीं समझदार, जागरूक और ज्ञानी होते हैं. मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने नई सरकार बनने के बाद कांग्रेस के अशोक चौधरी को शिक्षा विभाग का जिम्मा दिया. चौधरी कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष होते हुए भी कोई बहुत महत्वपूर्ण या मजबूत नेता नहीं थे. लेकिन शिक्षा मंत्री के रूप में उनके शुरुआती दिनों में लिए गए कुछ फैसलों के रिपोर्ट्स ने मुझे उनका कायल बना दिया. उनके नेतृत्व में शिक्षा सुधारो की उम्मीद भी की जा सकती है और बिहार बोर्ड के परिणामों ने शायद इसकी दस्तक दे दी है. कई लोग बिहार बोर्ड के इन परिणामों को पिछले साल हुई किरकिरी से जोड़कर देख रहें हैं. इसमें कोई दो राय नही कि वो घटना एक बड़ा कारण है पर सरकार के इच्छाशक्ति को भी इसका श्रेय जाता है. बिहार विद्यालय परीक्षा समिति ने 28 और 29 मई को क्रमशः इंटर कला और मैट्रिक के परिणामों की घोषणा की. इंटर मंग लगभग 56 और मैट्रिक में मात्र 46 प्रतिशत छात्र ही सफल हो पाए. दोनों ही परीक्षाओ में फर्स्ट डिवीज़न पाने वाले छात्रो का आंकड़ा लगभग 11 प्रतिशत के आसपास था. जबकि पिछले साल तक ये आंकड़ा 30 के आस पास होता था. सरकार और शिक्षा विभाग ने पहले कदाचार मुक्त परीक्षा कराने में सफलता पाई फिर उसके बाद ये परिणाम सुकूनदायक हैं.
मेरी बाते आपको आश्चर्यजनक लग सकती हैं पर अगर सरकार आने वाले सालों में यही रवैया कायम रखे तो ये परिणाम शिक्षा सुधारों के क्षेत्र में मील के पत्थर का काम करेंगे. इन परिणामों ने छात्र, शिक्षक, अभिभावक, समाज और सरकार सबको सबक दिया है. सरकार को शिक्षा व्यवस्था में सुधार की पहल करनी चाहिए और जो चरमराई हुई व्यवस्था राज्य में है उसे दुरुस्त करनी चाहिए. शिक्षकों को भी अपना काम ईमानदारी से करना चाहिए और इन परिणामों से सीखना चाहिए कि उनके योगदान के बिना छात्र शायद ही सफल हो पाएं! उन्हें इसे नौकरी की मज़बूरी से इतर और हटकर समझना होगा. छात्रों को भी समझना होगा कि बिना पढाई और मेहनत किये ये परिणाम और ग्रेड्स उनके किसी काम के नहीं होंगे. अभिभावको की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है. उम्मीद है कि ये नतीजे उन्हें निराश करने के बजाय सोचने पर विवश करेंगे और तब शायद वो अपने भूमिका को ठीक से समझ पाए. मेरी समझ से ये परिणाम दूसरे सभी बोर्ड्स के लिए नजीर की तरह होने चाहिए. उन्हें इससे सीखना चाहिए और इस दिशा में अमल करनी चाहिए. देशहित, छात्रहित और शिक्षा व्यवस्था के हित के लिए ये बहुत जरुरी है. इन परिणामों से देश को भी ये समझना चाहिए कि बिहार में सिर्फ जंगलराज ही नहीं है. वहां कुछ अच्छा भी हो रहा है! और इसके लिए राज्य सरकार की प्रशंसा की जानी चाहिए.
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