भारत का एक जिला ऐसा भी है जिसकी स्थापना इसी वैलेंटाइन डे पर हुई थी. इसकी एक दिलचस्प कहानी है. इस कहानी का संत वैलेंटाइन से कोई सीधा संबंध नहीं है, लेकिन एक मानवतावादी और एक प्रेमी से जरूर उसका संबंध है- क्या पता संत वैलेंटाइन का कोई आर्शीवाद रहा हो.
हम बात कर रहे हैं बिहार के पूर्णिया जिले की. पूर्णिया भारत के सबसे पुराने जिलों में से एक है, इसकी स्थापना 14 फरवरी 1770 को हुई थी और इसके पहले सुपरवाइजर-कलेक्टर थे गेरार्ड डुकरैल. डुकरैल साहब जब कलेक्टर बनकर आए तो यहां घने जंगल थे, पानी खराब था, इलाका अ-स्वास्थ्यकर था और आबादी कम थी. पूर्णिया में उस समय अभी के अररिया, किशनगंज, अधिकांश कटिहार और दार्जिलिंग तक के इलाके शामिल थे! उसी समय बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा (सन 1773-74) जिसमें सूबे की एक तिहाई आबादी मर गई और पूर्णिया की करीब आधी. लोगों ने जान बचाने के लिए पहले जानवर बेचे, फिर जमीन बेची और आखिर में अपने बीवी-बच्चों तक को बेच दिया! डुकरैल ने बड़ी योग्यता से उस हालात में प्रशासन का ढांचा तैयार किया. उसी समय पास के किसी गांव से एक स्त्री को सती बनाने की खबर आई. डुकरैल घोड़े पर सवार हुआ और उसने उस स्त्री की जान बचाई.
वह स्त्री किसी जमींदार कि बहू थी जिसे एक बार डुकरैल ने अपने प्रशासनिक दौरे-के सिलसिले में कभी देखा था. दरअसल उस गांव के किसानों ने जमींदार से लगान माफ करने की प्रार्थना की थी. अकाल का समय था, किसान बिलख रहे थे. डुकरैल का उन्हीं दिनों उस गांव में जमींदार के आवास पर रात्रि विश्राम हुआ जहां किसानों ने अपनी व्यथा उसे सुनाई. डुकरैल ने बहुत हद तक लगान माफ कर दिया. वहीं उसने दरवाजे की ओट से ताकती एक जोड़ी सूनी, पथराई आंखें देखी थीं. उस समय डुकरैल को उसे पहचान नहीं पाया कि वो कौन है.
दो दिन बाद सौरा नदी के तट पर एक भीड़ एक स्त्री को घेरकर जा रही थी,...
भारत का एक जिला ऐसा भी है जिसकी स्थापना इसी वैलेंटाइन डे पर हुई थी. इसकी एक दिलचस्प कहानी है. इस कहानी का संत वैलेंटाइन से कोई सीधा संबंध नहीं है, लेकिन एक मानवतावादी और एक प्रेमी से जरूर उसका संबंध है- क्या पता संत वैलेंटाइन का कोई आर्शीवाद रहा हो.
हम बात कर रहे हैं बिहार के पूर्णिया जिले की. पूर्णिया भारत के सबसे पुराने जिलों में से एक है, इसकी स्थापना 14 फरवरी 1770 को हुई थी और इसके पहले सुपरवाइजर-कलेक्टर थे गेरार्ड डुकरैल. डुकरैल साहब जब कलेक्टर बनकर आए तो यहां घने जंगल थे, पानी खराब था, इलाका अ-स्वास्थ्यकर था और आबादी कम थी. पूर्णिया में उस समय अभी के अररिया, किशनगंज, अधिकांश कटिहार और दार्जिलिंग तक के इलाके शामिल थे! उसी समय बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा (सन 1773-74) जिसमें सूबे की एक तिहाई आबादी मर गई और पूर्णिया की करीब आधी. लोगों ने जान बचाने के लिए पहले जानवर बेचे, फिर जमीन बेची और आखिर में अपने बीवी-बच्चों तक को बेच दिया! डुकरैल ने बड़ी योग्यता से उस हालात में प्रशासन का ढांचा तैयार किया. उसी समय पास के किसी गांव से एक स्त्री को सती बनाने की खबर आई. डुकरैल घोड़े पर सवार हुआ और उसने उस स्त्री की जान बचाई.
वह स्त्री किसी जमींदार कि बहू थी जिसे एक बार डुकरैल ने अपने प्रशासनिक दौरे-के सिलसिले में कभी देखा था. दरअसल उस गांव के किसानों ने जमींदार से लगान माफ करने की प्रार्थना की थी. अकाल का समय था, किसान बिलख रहे थे. डुकरैल का उन्हीं दिनों उस गांव में जमींदार के आवास पर रात्रि विश्राम हुआ जहां किसानों ने अपनी व्यथा उसे सुनाई. डुकरैल ने बहुत हद तक लगान माफ कर दिया. वहीं उसने दरवाजे की ओट से ताकती एक जोड़ी सूनी, पथराई आंखें देखी थीं. उस समय डुकरैल को उसे पहचान नहीं पाया कि वो कौन है.
दो दिन बाद सौरा नदी के तट पर एक भीड़ एक स्त्री को घेरकर जा रही थी, नारे लग रहे थे और ढोल-नगाड़े बज रहे थे. स्त्री बिलख रही थी और जान बचाने की भीख मांग रही थी. डुकरैल को पता चला कि वह भीड़ स्त्री को सती बनाने ले जा रही है. वह नदी में कूदकर उस पार पहुंचा और अपने पिस्तौल से फायर कर भीड़ को तितर-बितर कर दिया. लोगों ने थोड़ा प्रतिरोध किया लेकिन ये वो दौर था जब हिंदुस्तान में अंग्रेजी इकबाल कायम होने लगा था और एक गोरा और वो भी गोरा अफसर सैकड़ों हिंदुस्तानियों के मन में भय पैदा करने के लिए काफी था.
डुकरैल कंवारा था, इंग्लैंड में उसकी विधवा मां उसके लिए किसी लॉर्ड की बेटी का रिश्ता ढ़ूंढ रही थी-लेकिन चूंकि वो सामान्य घर का था इसिलिए उसे एक तरह से सुदूर हिंदुस्तान के मलेरिया ग्रस्त इलाके में पोस्टिंग पर भेज दिया गया था. डुकरैल ने उस सती बनाई जा रही जमींदार की विधवा बहू से शादी कर ली और दोनों कई बच्चों के मां-बाप बने. रिटायर होने के बाद डुकरैल उसे लेकर लंदन चला गया-जिसकी कहानी कई सालों बाद तालिब अली नाम के एक भारतीय यात्री ने लिखी. ये घटना उस समय की है जब सती प्रथा के खिलाफ कानून नहीं बना था और विलियम बेंटिक व राजा राममोहन राय का शायद जन्म भी नहीं हुआ था. लेकिन लोगबाग डुकरैल को भूल गए.
पूर्णिया निवासी और ऑक्सफोर्ड में पढ़ा चुके इतिहासकार डॉ रामेश्वर प्रसाद, जिन्होंने पूर्णिया की स्थापना पर शोध किया था, ने बिहार सरकार से आग्रह किया कि पूर्णिया में डुकरैल के नाम पर कम से कम सड़क का नाम होना चाहिए-लेकिन बिहार सरकार ने इसे रद्दी की टोकरी में डाल दिया. डुकरैल के जीवन पर एक खूबसूरत कहानी बिहार सरकार में भू राजस्व विभाग में अफसर सुबोध कुमार सिंह ने 'परती-पलार' नामकी एक पत्रिका में (जनवरी-जून 2013 अंक) में लिखी थी, जिसका शीर्षक है- "यह पत्र मां को एक साल बाद मिलेगा".
डुकरैल के नाम पर अररिया जिले में एक गांव है जो अपभ्रंश होकर डकरैल बन गया है. ये वही गांव है जहां उस दुर्भिक्ष के समय बतौर कलेक्टर डुकरैल ने कर माफ कर दिया था और जिस के जमींदार की बहू उसकी पत्नी बनी थी. वैलेंटाइन डे के दिन ही डुकरैल पूर्णिया का कलेक्टर बनकर आया था और उसने वाकई वो काम किया जिससे संत वेलेंटाइन की आत्मा बहुत खुश हुई होगी! हैप्पी वैलेंटाइन डे! लौंग लिव डुकरैल!
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