मुंबई में भारी बारिश से ज्यादातर सड़कों पर लबालब पानी भरा है. राजधानी दिल्ली में 2 घंटे बारिश हो जाए तो चारों तरफ ट्रैफिक व्यवस्था पस्त और सड़कों पर समंदर जैसी तस्वीर दिखाई देने लगती है. क्या हैदराबाद, क्या चेन्नई और क्या बेंगलुरु. कुदरत के कुछ छींटे इन शहरों को सैलाब में बदल देते हैं. ऐसा तब होता है जब ग्लोबल वार्मिंग के असर से मानसून की एक दिशा भी नहीं है और ज्यादातर बारिश में कमी ही देखी जा रही है. छोटे शहरों, कस्बों या गांवों की तरफ देखें तो जब तक सैलाब ना आए या अति जलवृष्टि से नदियां अपना रास्ता ना बदल दें तब तक उन इलाकों में बाढ़ की स्थिति नहीं दिखाई देती. लेकिन शहरों में 1 घंटे की बरसात ही जल प्रलय के लिए काफी है. कहीं ना कहीं ये तस्वीर मानव निर्मित आपदा का ही नतीजा है. खासकर मुंबई में जहां समंदर है और शहरों से निकला पानी बड़ी आसानी से समंदर में समा सकता है.
पिछले कई दशकों से देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में धड़ल्ले से और निरंतर कंस्ट्रक्शन चल रहा है. एसआरए के नाम पर झुग्गी-झोपड़ियों वाले इलाके में भी बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी हो गई हैं. सालों पहले मुंबई में जिन जगहों को आपने कभी खाली देखा होगा, वहां पर आज गगनचुंबी इमारतें बनकर तैयार हैं. कई पर्यावरणविदों ने सरकार को चेतावनी भी दी. बावजूद उसके मुंबई के खाड़ी इलाकों में मैंग्रोव्स काटकर पहले सपाट मैदान बनाए गए और अब वहां इमारतें बनाई जा रही हैं.
मेट्रो शहरों में पर्यावरण भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया. देशभर से आने वाली भीड़ की खपत के लिए जल स्रोतों की निकासी गड्ढे, तालाब, नालों को पाटकर लोगों के रहने के लिए मकान बना दिए गए. अब बरसात होगी तो पानी की निकासी के लिए जो मानव निर्मित सीवर बनाए गए हैं उनकी क्षमता इतनी नहीं बची है कि बरसात का पानी नालों के जरिए समंदर तक पहुंचा पाए. इतना समझने के लिए किसी फिजिक्स और गणित का...
मुंबई में भारी बारिश से ज्यादातर सड़कों पर लबालब पानी भरा है. राजधानी दिल्ली में 2 घंटे बारिश हो जाए तो चारों तरफ ट्रैफिक व्यवस्था पस्त और सड़कों पर समंदर जैसी तस्वीर दिखाई देने लगती है. क्या हैदराबाद, क्या चेन्नई और क्या बेंगलुरु. कुदरत के कुछ छींटे इन शहरों को सैलाब में बदल देते हैं. ऐसा तब होता है जब ग्लोबल वार्मिंग के असर से मानसून की एक दिशा भी नहीं है और ज्यादातर बारिश में कमी ही देखी जा रही है. छोटे शहरों, कस्बों या गांवों की तरफ देखें तो जब तक सैलाब ना आए या अति जलवृष्टि से नदियां अपना रास्ता ना बदल दें तब तक उन इलाकों में बाढ़ की स्थिति नहीं दिखाई देती. लेकिन शहरों में 1 घंटे की बरसात ही जल प्रलय के लिए काफी है. कहीं ना कहीं ये तस्वीर मानव निर्मित आपदा का ही नतीजा है. खासकर मुंबई में जहां समंदर है और शहरों से निकला पानी बड़ी आसानी से समंदर में समा सकता है.
पिछले कई दशकों से देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में धड़ल्ले से और निरंतर कंस्ट्रक्शन चल रहा है. एसआरए के नाम पर झुग्गी-झोपड़ियों वाले इलाके में भी बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी हो गई हैं. सालों पहले मुंबई में जिन जगहों को आपने कभी खाली देखा होगा, वहां पर आज गगनचुंबी इमारतें बनकर तैयार हैं. कई पर्यावरणविदों ने सरकार को चेतावनी भी दी. बावजूद उसके मुंबई के खाड़ी इलाकों में मैंग्रोव्स काटकर पहले सपाट मैदान बनाए गए और अब वहां इमारतें बनाई जा रही हैं.
मेट्रो शहरों में पर्यावरण भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया. देशभर से आने वाली भीड़ की खपत के लिए जल स्रोतों की निकासी गड्ढे, तालाब, नालों को पाटकर लोगों के रहने के लिए मकान बना दिए गए. अब बरसात होगी तो पानी की निकासी के लिए जो मानव निर्मित सीवर बनाए गए हैं उनकी क्षमता इतनी नहीं बची है कि बरसात का पानी नालों के जरिए समंदर तक पहुंचा पाए. इतना समझने के लिए किसी फिजिक्स और गणित का विशेषज्ञ होने की आवश्यकता नहीं है. 26 जुलाई की प्रलय मुंबई वालों को आज भी याद है और हर बरसात में उन्हें की तस्वीर डराने लगती है.
राजधानी दिल्ली की तस्वीर मुंबई से कुछ ज्यादा अलग नहीं है. नई दिल्ली और VIP इलाकों को छोड़ दें तो ज्यादातर दिल्ली में जलजमाव हो जाता है. नई दिल्ली इलाका सीधे-सीधे केंद्र सरकार के अधीन आता है और यहां प्रधानमंत्री से लेकर राष्ट्रपति समेत दुनिया भर के डिप्लोमेट रहते हैं. सड़कें चौड़ी हैं और पानी की निकासी के लिए व्यवस्था भी अच्छी है. साथ ही इस इलाके में अवैध निर्माण काम लगभग ना के बराबर है. बड़े लोग रहते हैं इसलिए यह इलाका मानसून झेल जाता है, लेकिन बरसात अगर जरा ज्यादा हो जाए तो VIP इलाकों में भी जलजमाव होने लगता है. नई दिल्ली को छोड़कर दिल्ली की बाकी आबादी और बाकी इलाके राज्य सरकार के फ्लड विभाग, PWD और सबसे ज्यादा दिल्ली के तीनों नगर निगमों पर निर्भर होते हैं. दिल्ली में अवैध निर्माण ने लगभग सभी शहरों के रिकॉर्ड तोड़ दिए होंगे.
नगर निगम में भ्रष्टाचार का हाल यह है कि कमजोर से कमजोर भीड़-भाड़ वाले इलाकों में, जहां पैर रखने की भी जगह ना हो, वहां एक ईंट पर लोगों ने ताजमहल बना लिए हैं. जरा तेज तूफान आ जाए और भारी बारिश हो जाए तो यह मकान ताश के पत्तों की तरह ढहने लगते हैं और जिंदगी काल के गाल में समा जाती है. राजधानी दिल्ली की ज्यादातर सड़कें नगर निगम के अधीन हैं, लेकिन बारिश में इन सड़कों पर आप नाव लेकर चलने की इच्छा मन में आने से खुद को रोक नहीं पाते. दिल्ली सरकार के पीडब्ल्यूडी के पास भी 1000 वर्ग किलोमीटर से ज्यादा की सड़कें हैं, लेकिन यह सड़कें बारिश होते ही नदियों में बदल जाती हैं. विशेषज्ञ मानते हैं कि यहां भी कारण अवैध निर्माण और योजना की कमी है. कई दशकों से दूसरे राज्यों से दिल्ली में लगातार पलायन हो रहा है. पहले झुग्गियां-झोपड़ियां बनती रही और फिर वहां पक्के मकान बनते रहे. सरकारी दस्तावेज बताते हैं कि दिल्ली में हजारों की दुनिया बसी है जो अपने आप में अवैध है और जिन्हें वैध करने की मांग चली आ रही है. इन अवैध कॉलोनियों में ना तो सीवर है, ना पीने के लिए पाइप लाइन, लेकिन यह कॉलोनियां बस गई हैं और यहां से कूड़ा-कचरा, गंदा पानी सब निकलता है.
तो आखिर यह सब मलबा जाए तो जाए कहां? कहने के लिए दिल्ली में तीन डंपिंग यार्ड हैं जो अब कूड़े का पहाड़ बन चुके हैं. गंदे पानी के चलते यमुना नदी किसी नाले की तरह नजर आती है. सालों से न दिल्ली सरकार ने और ना नगर निगम ने अवैध कॉलोनियों के बसने पर रोक लगाई, ना ही अवैध निर्माण पर रोक लगाई. भ्रष्टाचार ने दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों को ताश के पत्तों जैसे घर की तरह बना दिया है जो कभी भी ढह सकते हैं. न पानी की निकासी के लिए जगह है, न योजनाबद्ध तरीके से मानव निर्मित कचरे की निकासी की व्यवस्था. ऐसे में बरसात अपने साथ सब कुछ बहा ले जाने की जिद में गंदगी लेकर इन्हीं शहरों की पथरीली दीवारों में फंस कर रह जाती है और हमें डुबाने लगती है. अब इनसे बचने का ना कोई रास्ता नजर आता है और ना कोई रास्ता निकाला जा रहा है. हर साल बरसात होगी, हर साल सैलाब आएगा और हर साल शहर समंदर में तब्दील होते जाएंगे.
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