ओडिशा के रज या रजो त्योहार (odisha raja festival) यह बताने के लिए काफी है कि नारी का अस्तित्व क्या है. यह त्योहार हमें समझाता है कि बेटियां किसी के सिर की बोझ नहीं होतीं, बल्कि वे तो इस संसार की जननी हैं.
रजो फेस्टिवल हर साल 14, 15, 16 जून को धरती मां की माहवारी होने की खुशी में खासकर लड़कियों के लिए मनाया जाता है. इस त्योहार में पीरियड्स को गंदा नहीं माना जाता बल्कि पूजा जाता है.
यह त्योहार तीन दिनों तक चलता है और चौथे दिन भूमि देवी के शुद्धिकरण स्नान के साथ समाप्त होता है. जिस देश में पीरियड पर कोई बात नहीं कर पाता, महिलाएं मासिक धर्म से जुड़ी परेशानी के बारे में किसी को बता नहीं पाती वहां रजो फेस्टिवल अपने आप में एक अनोखा है. यह त्योहार नारी सम्मान का एक उदाहरण है.
इस त्योहार में लड़कियां नए कपड़े से लेकर हर चीज नया ही पहनती हैं. वे अपनी सहेलियों से मिलती-जुलती हैं. उनके साथ मेला जाती हैं और साथ में झूला झूलती हैं. वे स्वादिष्ट पकवान खाती हैं और इन दिनों घर का कोई काम नहीं करती हैं. कुल मिलाकर इस त्योहार में लड़की होने का जश्न मनाया जाता है.
इन दिनों लड़कियां खुलकर अपनी जिंदगी जाती हैं. वे अपने मन को खुशी देने वाला काम करती हैं जिसमें वे घूम-फिर सकती हैं. कुल मिलाकर इन तीन दिनों लड़कियां खूब मौज-मस्ती करती हैं. सोचिए पहले के समय में महिलाओं को कहां...
ओडिशा के रज या रजो त्योहार (odisha raja festival) यह बताने के लिए काफी है कि नारी का अस्तित्व क्या है. यह त्योहार हमें समझाता है कि बेटियां किसी के सिर की बोझ नहीं होतीं, बल्कि वे तो इस संसार की जननी हैं.
रजो फेस्टिवल हर साल 14, 15, 16 जून को धरती मां की माहवारी होने की खुशी में खासकर लड़कियों के लिए मनाया जाता है. इस त्योहार में पीरियड्स को गंदा नहीं माना जाता बल्कि पूजा जाता है.
यह त्योहार तीन दिनों तक चलता है और चौथे दिन भूमि देवी के शुद्धिकरण स्नान के साथ समाप्त होता है. जिस देश में पीरियड पर कोई बात नहीं कर पाता, महिलाएं मासिक धर्म से जुड़ी परेशानी के बारे में किसी को बता नहीं पाती वहां रजो फेस्टिवल अपने आप में एक अनोखा है. यह त्योहार नारी सम्मान का एक उदाहरण है.
इस त्योहार में लड़कियां नए कपड़े से लेकर हर चीज नया ही पहनती हैं. वे अपनी सहेलियों से मिलती-जुलती हैं. उनके साथ मेला जाती हैं और साथ में झूला झूलती हैं. वे स्वादिष्ट पकवान खाती हैं और इन दिनों घर का कोई काम नहीं करती हैं. कुल मिलाकर इस त्योहार में लड़की होने का जश्न मनाया जाता है.
इन दिनों लड़कियां खुलकर अपनी जिंदगी जाती हैं. वे अपने मन को खुशी देने वाला काम करती हैं जिसमें वे घूम-फिर सकती हैं. कुल मिलाकर इन तीन दिनों लड़कियां खूब मौज-मस्ती करती हैं. सोचिए पहले के समय में महिलाओं को कहां बाहर जाने का मौका मिलता था, उन्हें तो अपने काम से ही फुरसत नहीं मिलती थी. ऐसे में यह त्योहार उनके लिए कितनी खुशियां लेकर आता होगा, जब वे अपनी सारी जिम्मेदारियों और चिंताओं से दूर अपने लिए जीती होंगी. वैसे इस त्योहार के पीछे धार्मिक मान्यता है.
रज फेस्टिवल, क्या है मान्यता?
ऐसा माना जाता है कि इन दिनों बारिश से पहले धरती मां को रजस्वला (पीरियड) होते हैं. इसलिए इन दिनों जमीन से जुड़े सारे काम रोक दिए जाते हैं. माने खेती-किसानी नहीं होती है. रजस्वला के बाद धरती मां और अधिक उपजाऊं हो जाती हैं. इसके बाद बारिश होती है और फिर खेतों में बीज डाले जाते हैं. इन दिनों धरती मां की तरह लड़कियों का भी खास ख्याल रखा जाता है और 3 दिनों तक उन्हें भी आराम दिया जाता है.
हमारे देश में धरती मां को हमेशा स्त्री का दर्जा दिया गया है. जिस तरह स्त्री रजस्वला होने के बाद बच्चे को जन्म दे सकती है. उसी तरह धरती मां रजस्वला के बाद अच्छी फसल देती हैं. आने वाले समय में लड़कियां नए जीवन को जन्म देंगी इसलिए उनके इस संसार में होने को सम्मान दिया जाता है. भला इससे नारीत्व का इससे अच्छा उदाहरण क्या हो सकता है. दरअसल, रजो महोत्सव में लोग अच्छी बारिश और खेती के लिए धरती मां की पूजा करते हैं.
कटा बटा कूटा
तीन दिनों के इस त्योहार में हर दिन का खास महत्व होता है. जिसमें पहले दिन को 'पहली रज' कहते हैं. माना जाता है कि यह धरती मां के पीरियड का पहला दिन होता है, इस दिन कुंवारी लड़कियों को अपने पैर भी जमीन पर नहीं रखने होते हैं. दूसरे दिन को मिथुन संक्रांति होती है, तीसरे दिन को बासी रजा कहते हैं. इस दिन महिलाएं पका हुआ भोजन नहीं करतीं और त्योहार समाप्ति वाले दिन को वसुमति स्नान कहते हैं.
इन दिनों कटा बटा कूट मना यानी काटना, कुटना और पीसना मना होता है और सजा-बजा मतलब सजना-संवरना होता है. लड़कियां सूरज के उगने से पहले हल्दी और चंदन से शुद्ध स्नान करती हैं. वे रजो शुरु होने से पहले नाखून, बाल काट लेती हैं ताकि 3 दिनों तक उनके शरीर से मैल न निकले. वे मेहंदी लगाती हैं, आलता लगती हैं, गहनें पहनती हैं. वे हंसती-खेलती हैं और अंबूबाची मेले में जाती हैं. बरगद के पेड़ में कई तरह के झूले लगाए जाते हैं, लड़कियां झूला झूलती हैं और गाना गाती हैं. वे पुची खेल खेलती हैं. घर के लोग उन्हें तोहफा देते हैं, पैसे देते हैं. एक तरह से यह उनका मनोरंजन का साधन होता है और अधिकार भी.
इन दिनों वे सभी कामों से ब्रेक ले लेती हैं. वे अच्छा खाना खाती हैं और रसोई में जाती तक नहीं है. माने तीन दिनों के लिए सारे कामों से मुक्ति...सोचकर ही कितना अच्छा लगता है ना? घर के पुरुष भी इस त्योहार में भाग लेते हैं. वे महिलाओं के लिए स्वादिष्ट पकवान बनाते हैं, जिसमें खासकर पोडापीठा, चाकुली पीठा शामिल होता है. लड़कियां पान खाती हैं और अपनी आजादी का जश्न मनाती हैं.
सोचिए तीन दिन तक पुरुष घर के काम करते हैं, रसोई संभालते हैं, कपड़े धोते हैं तो वे यह भी समझ पाते हैं कि महिला होना आसान नहीं है. वे महिलाओं की हर रोज की तकलीफ को समझ पाते हैं. साफ कहें तो पुरुष रसोई संभालते हैं और महिलाएं आराम करती हैं. नारीवाद इसे ही तो कहते हैं.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.