साल 2020. अपने में कोरोना काल (Coronavirus) के हज़ारों किस्से समेटे एक मनहूस साल. मनहूस इसलिए क्योंकि जब भविष्य में कभी इतिहास लिखा जाएगा, लिखी जाएंगी इस दौर की वो दास्तानें जो वीभत्स हैं. जिनमें आंसू और दुःख के सिवा और कुछ नहीं है. ये दास्तानें कुछ ऐसी होंगी जिन्हें सोचने भर से दर्द होगा. हां, वो दर्द जो उन मजबूत कलेजों को भी मोम बना दे जो अपने को सख्त कहते हैं. जिनका कहना है कि बुरे दिन हैं, एक दिन बीत जाएंगे... बातों की एक ख़ासियत है. बातें कहने और सुनने में बड़ी आसान होती हैं. ये जितनी आसानी से कह दी जाती हैं काश के इन्हें सुन लेना भी उतना ही आसान होता. अपनी बातें मोहम्मद इक़बाल खान ने भी कह दी है. मगर इन बातों में इतना दर्द है, इतनी मजबूरियां हैं कि शायद ही कोई इक़बाल की बातों को ख़ारिज कर सके. इक़बाल ने एक साइकिल (Cycle) चुराई और अब उसका माफ़ी नामा (Letter) इंटरनेट पर सुर्खियां बटोर रहा है. इस माफीनामे में जो तमाम बातें हैं उनमें न सिर्फ चंद लाइनों को लिखकर इक़बाल ने अपनी तकलीफ बताई है बल्कि हमारे देश की सरकार से सवाल भी किया है जिसे पूरी तरह से अनसुना कर दिया गया.
बातें कई हैं मगर उससे पहले हमारे लिए इक़बाल को समझना जरूरी है. सवाल हो रहा होगा कि कौन है इक़बाल? तो बता दें कि लाखों प्रवासी मजदूरों की तरह इक़बाल भी एक प्रवासी मजदूर है. जो है तो मूलतः उत्तर प्रदेश के बरेली का है लेकिन रोजी रोटी की तलाश जिसे राजस्थान के भरतपुर आई थी. इक़बाल भरतपुर रह रहा था.
कोरोना वायरस के चलते लॉक डाउन हुआ तो लाखों मजदूरों की तरह इसके आगे भी दो वक्त की रोटी का संकट था. इसे भी अपने घर लौटना था मगर इसके सामने चुनौतियां दोहरी थीं ये अकेला नहीं था इसके...
साल 2020. अपने में कोरोना काल (Coronavirus) के हज़ारों किस्से समेटे एक मनहूस साल. मनहूस इसलिए क्योंकि जब भविष्य में कभी इतिहास लिखा जाएगा, लिखी जाएंगी इस दौर की वो दास्तानें जो वीभत्स हैं. जिनमें आंसू और दुःख के सिवा और कुछ नहीं है. ये दास्तानें कुछ ऐसी होंगी जिन्हें सोचने भर से दर्द होगा. हां, वो दर्द जो उन मजबूत कलेजों को भी मोम बना दे जो अपने को सख्त कहते हैं. जिनका कहना है कि बुरे दिन हैं, एक दिन बीत जाएंगे... बातों की एक ख़ासियत है. बातें कहने और सुनने में बड़ी आसान होती हैं. ये जितनी आसानी से कह दी जाती हैं काश के इन्हें सुन लेना भी उतना ही आसान होता. अपनी बातें मोहम्मद इक़बाल खान ने भी कह दी है. मगर इन बातों में इतना दर्द है, इतनी मजबूरियां हैं कि शायद ही कोई इक़बाल की बातों को ख़ारिज कर सके. इक़बाल ने एक साइकिल (Cycle) चुराई और अब उसका माफ़ी नामा (Letter) इंटरनेट पर सुर्खियां बटोर रहा है. इस माफीनामे में जो तमाम बातें हैं उनमें न सिर्फ चंद लाइनों को लिखकर इक़बाल ने अपनी तकलीफ बताई है बल्कि हमारे देश की सरकार से सवाल भी किया है जिसे पूरी तरह से अनसुना कर दिया गया.
बातें कई हैं मगर उससे पहले हमारे लिए इक़बाल को समझना जरूरी है. सवाल हो रहा होगा कि कौन है इक़बाल? तो बता दें कि लाखों प्रवासी मजदूरों की तरह इक़बाल भी एक प्रवासी मजदूर है. जो है तो मूलतः उत्तर प्रदेश के बरेली का है लेकिन रोजी रोटी की तलाश जिसे राजस्थान के भरतपुर आई थी. इक़बाल भरतपुर रह रहा था.
कोरोना वायरस के चलते लॉक डाउन हुआ तो लाखों मजदूरों की तरह इसके आगे भी दो वक्त की रोटी का संकट था. इसे भी अपने घर लौटना था मगर इसके सामने चुनौतियां दोहरी थीं ये अकेला नहीं था इसके साथ एक बेटा था और सोने पर सुहागा ये कि इक़बाल का बेटा विकलांग है.
इक़बाल को पता था कि उसके शरीर में इतनी ताकत है कि मीलों चलकर वो अपने घर पहुंच जाएगा. लेकिन बेटा? विकलांग बेटा कैसे इतना चलेगा? इसी उधेड़ बुन में इक़बाल ने अपने मालिक की गौर मौजूदगी में उसकी साइकिल ले ली और मालिक को ये चोरी या मौका का फायदा उठाना न लगे इसके लिए उसे एक पत्र लिख दिया.
पत्र में इक़बाल ने बताया कि वो जो कुछ कर रहा है अपने बेटे को सही सलामत घर ले जाने के लिए कर रहा है. अपनी चिट्ठी में इक़बाल ने बताया है कि उसका बेटा विकलांग है और उसके लिए इतना चलना लगभग असंभव है.
पत्र में भले ही इक़बाल ने अपने मालिक से साइकिल चुराने के एवज में माफी मांगी हो. मगर सही मायनों में माफी का हकदार इक़बाल और उसके जैसे सैंकड़ों मजदूर हैं. हां बिल्कुल सही सुना आपने. इन मजदूरों को हमारी, देश की सरकार और पीएम मोदी की बातों पर रत्ति बराबर भी भरोसा नहीं है. यदि इन्हें हम सभी पर भरोसा होता तो ये कुछ भी करते मगर पलायन करके अपने घर न जा रहे होते.
हम रोज़ पलायन की इन तस्वीरों या ये कहें कि कोरोना के इस दौर में अपने अपने घर लौटते इन मजदूरों को देख रहे हैं. ये मुश्किल दौर है जो जल्द ही बीतेगा मगर जब कल हालात काबू में आने के बाद हम तसल्ली से बैठेंगे तो इक़बाल की ये चिट्ठी हमसे ज़रूर सवाल करेगी और तब हम शायद हम चाह कर भी उन सवालों के जवाब न दे पाएं.
एक विकलांग बेटे के पिता इक़बाल से लेकर गर्भवती मजदूर महिलाओं तक आज इस मुश्किल दौर में जो भी मजदूर भोजन की चिंता में पलायन करने पर मजबूर हैं उनसे अगर बात करें तो मिलेगा कि इनकी फिक्र बेवजह नहीं है. भले ही सरकार ने इनके नाम पर बड़े बड़े पैकेज की घोषणा कर दी हो मगर हक़ीक़त यही है कि वो भरोसा टूट चुका है जो इन्होंने हमपर और देश की सरकार पर कभी किया था.
बहरहाल बात इक़बाल और उसके द्वारा लिखी चिट्ठी की हुई है. तो ये चिट्ठी हमसे सवाल कर चुकी है. अब ये हमारी ईमानदारी के है कि हम इसका जवाब देते हैं या फिर कोरोना काल की तमाम बातों की तरह इसे भी खारिज कर देते हैं. जवाब हमें देना है और उसे देते हुए हमारे अंदर इतनी गैरत होनी चाहिए कि हम सच बोलें और सच के सिवा कुछ और न बोलें.
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