पठान (Pathan) का गाना 'बेशरम रंग' (Besharam Rang) इन दिनों विवादों में हैं. इसी बीच रत्ना पाठक (Ratna pathak) ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए इंटरव्यू में कहा है कि, 'लोगों के पास अपनी थाली में खाना नहीं है, लेकिन वे दूसरों के कपड़े पर गुस्सा कर सकते हैं, हम बहुत ही मूर्खतापूर्ण समय में जी रहे हैं. मैं उस दिन का इंतजार कर रही हूं जब नफरत लोगों को थका देगी...'
यानी रत्ना पाठक ने दीपिका पादुकोण की उस बिकनी का समर्थन किया है, जिसे लोग भगवा रंग का मानकर विरोध कर रहे हैं. ठीक है, रत्ना पाठक के अपने विचार हैं मगर दूसरी तरफ उन्होंने गाने का विरोध करने वाले को भूखा-नंगा बता दिया है.
पहली बात इस गाने का विरोध सिर्फ गरीब नहीं कर रहे हैं, इसमें वे लोग भी शामिल हैं जिनकी थाली में खाना है और वे इतने रईस हैं कि दूसरों को भी खिला सकते हैं. दूसरी बात रत्ना पाठक बताएं कि क्या गरीब लोगों को अपनी संस्कृति का पालन करने का अधिकार नहीं है. अगर वे विरोध करना रोक देंगे तो क्या उनकी थाली में खाना आ जाएगा?
इंसान अमीर हो या गरीब वह अपनी संस्कृति का पालन तो करता ही है. वह भी चाहता है कि उसकी पत्नी और बच्चे संस्कार सीखें. कैसे खाना है, कैसे उठना है, कैसे बैठना है, किसी से किस भाषा में बात करनी है? ये सारी बातें संस्कार का हिस्सा हैं. मुझे यह समझ नहीं आता कि संस्कार का थाली में खाने से क्या संबंध है?
अगर रत्ना पाठक सही हैं तो इस देश का बड़ा तबका ऐसा है जो गरीब है. फिर तो इस देश में फिल्में बनाने पर बैन लगा देना चाहिए. क्योंकि जब लोगों की थाली में खाना नहीं रहेगा तो फिर वे फिल्में देखने कैसे जाएंगे. फिल्मों बनाने वालों और देखने...
पठान (Pathan) का गाना 'बेशरम रंग' (Besharam Rang) इन दिनों विवादों में हैं. इसी बीच रत्ना पाठक (Ratna pathak) ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए इंटरव्यू में कहा है कि, 'लोगों के पास अपनी थाली में खाना नहीं है, लेकिन वे दूसरों के कपड़े पर गुस्सा कर सकते हैं, हम बहुत ही मूर्खतापूर्ण समय में जी रहे हैं. मैं उस दिन का इंतजार कर रही हूं जब नफरत लोगों को थका देगी...'
यानी रत्ना पाठक ने दीपिका पादुकोण की उस बिकनी का समर्थन किया है, जिसे लोग भगवा रंग का मानकर विरोध कर रहे हैं. ठीक है, रत्ना पाठक के अपने विचार हैं मगर दूसरी तरफ उन्होंने गाने का विरोध करने वाले को भूखा-नंगा बता दिया है.
पहली बात इस गाने का विरोध सिर्फ गरीब नहीं कर रहे हैं, इसमें वे लोग भी शामिल हैं जिनकी थाली में खाना है और वे इतने रईस हैं कि दूसरों को भी खिला सकते हैं. दूसरी बात रत्ना पाठक बताएं कि क्या गरीब लोगों को अपनी संस्कृति का पालन करने का अधिकार नहीं है. अगर वे विरोध करना रोक देंगे तो क्या उनकी थाली में खाना आ जाएगा?
इंसान अमीर हो या गरीब वह अपनी संस्कृति का पालन तो करता ही है. वह भी चाहता है कि उसकी पत्नी और बच्चे संस्कार सीखें. कैसे खाना है, कैसे उठना है, कैसे बैठना है, किसी से किस भाषा में बात करनी है? ये सारी बातें संस्कार का हिस्सा हैं. मुझे यह समझ नहीं आता कि संस्कार का थाली में खाने से क्या संबंध है?
अगर रत्ना पाठक सही हैं तो इस देश का बड़ा तबका ऐसा है जो गरीब है. फिर तो इस देश में फिल्में बनाने पर बैन लगा देना चाहिए. क्योंकि जब लोगों की थाली में खाना नहीं रहेगा तो फिर वे फिल्में देखने कैसे जाएंगे. फिल्मों बनाने वालों और देखने वालों को गरीब लोगों की थाली में खाना परोसने का काम ले लेना चाहिए. तभी कल्याण संभव है.
जिन लोगों की थाली में खाना नहीं है उन्हें फिल्म की बात छोड़कर अपने लिए खाने के इंतजाम में जुट जाना चाहिए, क्योंकि रत्ना पाठक का तो यही मानना है कि जिनकी थाली में खाना नहीं है, उन्हें अपने विचार रखने का भी आधिकार नहीं है. इस हिसाब से तो रत्ना पाठक को फिल्मों में काम नहीं करना चाहिए. उन्हें कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे लोगों की थाली में भोजन आ जाए. लोगों के पास खाने को पैसे नहीं है, ऐसे में वे फिल्म देखने कैसे जाएंगे?
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