क्या सूर्यकांत त्रिपाठी निराला सिर्फ छायावाद के प्रणेता कवि भर थे? उनकी 46वीं पुण्यतिथि पर ज्यादातर लोगों ने उनको इसी रूप में याद किया. निराला ने हिंदी कविता को एक नया प्रतिमान दिया लेकिन उससे ज्यादा मानवता को मजबूत बनाया. उनकी कविता ही नहीं, उनकी जिंदगी भी पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ एक सशक्त हस्ताक्षर बनकर उभरी. वो पंडित जवाहरलाल नेहरू के समकालीन थे और उस दौर में नेहरू जैसे प्रभावशाली प्रधानमंत्री की नीतियों पर सवाल उठाने की 'हिमाकत' बड़े बड़े लोग नहीं कर पाते थे. बल्कि तमाम कवियों को नेहरू में देवत्व की आभा दिखती थी. इसमें बुराई भी नहीं क्योंकि नेहरू का व्यक्तित्व वाकई महान और सत्य-निष्ठा से भरा हुआ था.
नेहरू को गुलाब से बहुत लगाव था. उनकी शेरवानी में गुलाब लगा रहता था. गुलाब जीवन में सौंदर्य का प्रतीक है लेकिन जब समाज गरीबी, विपन्नता, बेबसी की चक्की में पिस रहा हो, तब गुलाब से पहले गेहूं की जरूरत पड़ती है. निराला की कविताएं उसी गेहूं के लिए संघर्ष का दूसरा नाम है. जिनको समाज अपना हिस्सा नहीं मानता, जिनके लिए समाज में हाशिए पर भी जगह नहीं होती, उन भिखारियों के लिए निराला की पीड़ा उनकी कविता 'भिक्षुक' में उभरती है. पेट और पीठ का एकाकार हो जाना...
क्या सूर्यकांत त्रिपाठी निराला सिर्फ छायावाद के प्रणेता कवि भर थे? उनकी 46वीं पुण्यतिथि पर ज्यादातर लोगों ने उनको इसी रूप में याद किया. निराला ने हिंदी कविता को एक नया प्रतिमान दिया लेकिन उससे ज्यादा मानवता को मजबूत बनाया. उनकी कविता ही नहीं, उनकी जिंदगी भी पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ एक सशक्त हस्ताक्षर बनकर उभरी. वो पंडित जवाहरलाल नेहरू के समकालीन थे और उस दौर में नेहरू जैसे प्रभावशाली प्रधानमंत्री की नीतियों पर सवाल उठाने की 'हिमाकत' बड़े बड़े लोग नहीं कर पाते थे. बल्कि तमाम कवियों को नेहरू में देवत्व की आभा दिखती थी. इसमें बुराई भी नहीं क्योंकि नेहरू का व्यक्तित्व वाकई महान और सत्य-निष्ठा से भरा हुआ था.
नेहरू को गुलाब से बहुत लगाव था. उनकी शेरवानी में गुलाब लगा रहता था. गुलाब जीवन में सौंदर्य का प्रतीक है लेकिन जब समाज गरीबी, विपन्नता, बेबसी की चक्की में पिस रहा हो, तब गुलाब से पहले गेहूं की जरूरत पड़ती है. निराला की कविताएं उसी गेहूं के लिए संघर्ष का दूसरा नाम है. जिनको समाज अपना हिस्सा नहीं मानता, जिनके लिए समाज में हाशिए पर भी जगह नहीं होती, उन भिखारियों के लिए निराला की पीड़ा उनकी कविता 'भिक्षुक' में उभरती है. पेट और पीठ का एकाकार हो जाना मानव जीवन की भूख और बेबसी की पराकाष्ठा कैसे हो सकती है, इसको निराला की कविता में आप इस कदर महसूस कर सकते हैं कि आपकी हड्डियों में मानों सैकड़ों बिच्छू एक साथ डंक मार रहे हों.
निराला ने महिला अधिकारों की कोई दुहाई नहीं दी. लेकिन इलाहाबाद की सड़कों पर चलते हुए महिलाओं की दुर्दशा को बगैर किसी लागलपेट के जैसे अपनी कविता में पेश किया, वो अद्भुत है. 'वह तोड़ती पत्थर...देखा उसको मैंने इलाहाबाद के पथ पर.' ये सिर्फ एक कविता नहीं है बल्कि हमारी मरी हुई संवेदना के राजपथ पर अपनी वेदना के गीत सुनाती आधी आबादी की मर्मांतक आवाज है. हम सुनना चाहें तो भी, ना सुनना चाहें तो भी ये हमारे दिलोदिमाग पर दस्तक देती रहेगी.
निराला ने हिंदी साहित्य को जितना मजबूत किया, उससे ज्यादा हिंदी समाज को बल्कि कहें कि पूरे मानव समाज को सार्थक बनाने का प्रयास किया. अपने लिए उनके पास कुछ भी नहीं था। वो हिंदी के बड़े कवि और साहित्यकार थे लेकिन लॉयल्टी का पैसा भी उनके पास नहीं रहता था. एक बार महादेवी वर्मा ने उनसे कहा कि आपका सारा रूपया पैसा मैं रखूंगी ताकि कुछ तो बच सके जो आपके लिए भविष्य में काम आएगा.
निराला के लिए महादेवी छोटी बहन थीं. राजनीति वाली छोटी बहन नहीं. निराला अपना सारा पैसा महादेवी को दे देते थे लेकिन जब भी कोई निराला के सामने हाथ पसारता, वो महादेवी के पास जाते और मांगकर ले आते थे. महादेवी वर्मा को समझ में आ गया कि उनका भाई साहित्यकार और कवि से कहीं ज्यादा बड़ा इंसान है, जिसके लिए इंसान का दर्द उसकी भौतिक जरूरतों से कहीं ज्यादा बड़ा है.
उस सबसे बड़े इंसान की जिंदगी की एक ही पूंजी थी, एक ही धन था और वो उनकी बेटी सरोज. लेकिन सरोज की मृत्यु ने इस महाकवि को बिल्कुल अनाथ और अकेला कर दिया. बेटी की यादों में उन्होंने 'सरोज स्मृति' लिखी, जो सिर्फ एक बेटी की दास्तां नहीं बल्कि अपने पिता की गरीबी, लाचारी और दुरावस्था की चौखट पर दम तोड़ती हर बेटी की कहानी है.
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