हालांकि आज भी पंखा (Fans) जैसी मूलभूत चीज भी करोड़ों घर में नहीं है. वहां कूलर की जीवनी लिखना सामंतवादी और बर्जुआई सोच ही मानी जाएगी. लेकिन दिन ब दिन स्थिति में सुधार हो रहा है और पंखा और कूलर (Coolers) पर आज सर्वहारा समाज भी अच्छा खासा हक़ रखता है. अरे ये न सोचिएगा कि देश के आर्थिक विकास ने गरीबों की जेब नोटों से भर दी है और गरीब माना जाने वाला तबका भी गर्मी के दिनों में पंखे और कूलर का सुख ले रहा है. दरअसल ग्लोबल वार्मिंग जैसी चीज ने सूरज महराज को इतना रुष्ट कर दिया है कि अब वो 40 - 45 डिग्री की गर्मी ऐसे ही हंसी खुशी में बांट देते है. बेचारा गरीब अब टीन की छत वाले घर में इतनी गर्मी को कैसे रखे तो घर के अंदर जीने के लिए उधार कर्जा मांग कर किसी तरह ये लक्जरियस आइटम जुगाड लेता है. बेचारा कम से कम घर में ही जी ले. बाहर तो वैसे ही बेचारा मर रहा है. तो भैया ये कूलर की जीवनी किसी गरीब की नहीं बल्कि मध्यमवर्गीय (Middle Class) घर के कूलर की जीवनी है. (अरे इसे हॉयर मिडिल वाला नहीं बस लोवर मिडिल क्लास वाला मध्यवर्ग समझियेगा). महानगरों की मैं नहीं बता सकता लेकिन छोटे शहरों में नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों में फ्रिज, टीवी और कूलर का आगमन हुआ. कुछ भ्रष्टाचार की काली कमाई, कुछ दहेज में झटक कर, कुछ उदारीकरण के कारण लल्ला के बैंगलोर वेंगलोर में नौकरी के कारण, कुछ बाज़ार की बढ़ती ताकत से बढ़ी तनख़ाह के कारण आया.
हमारे घर में तो बढ़ी तनख़ाह के कारण ही आया. पिताजी रेलवे में थे. तो जब तनख़ाह बढ़ी तो हम सब को उसी अनुपात में गर्मी भी अखरने लगी. पिताजी के कूलर के दुष्प्रभाव के बारे में आरंभिक प्रवचनों के बाद हम बच्चों की ज़िद जीतने लगी. उसके बाद जैसा मध्यवर्गीय...
हालांकि आज भी पंखा (Fans) जैसी मूलभूत चीज भी करोड़ों घर में नहीं है. वहां कूलर की जीवनी लिखना सामंतवादी और बर्जुआई सोच ही मानी जाएगी. लेकिन दिन ब दिन स्थिति में सुधार हो रहा है और पंखा और कूलर (Coolers) पर आज सर्वहारा समाज भी अच्छा खासा हक़ रखता है. अरे ये न सोचिएगा कि देश के आर्थिक विकास ने गरीबों की जेब नोटों से भर दी है और गरीब माना जाने वाला तबका भी गर्मी के दिनों में पंखे और कूलर का सुख ले रहा है. दरअसल ग्लोबल वार्मिंग जैसी चीज ने सूरज महराज को इतना रुष्ट कर दिया है कि अब वो 40 - 45 डिग्री की गर्मी ऐसे ही हंसी खुशी में बांट देते है. बेचारा गरीब अब टीन की छत वाले घर में इतनी गर्मी को कैसे रखे तो घर के अंदर जीने के लिए उधार कर्जा मांग कर किसी तरह ये लक्जरियस आइटम जुगाड लेता है. बेचारा कम से कम घर में ही जी ले. बाहर तो वैसे ही बेचारा मर रहा है. तो भैया ये कूलर की जीवनी किसी गरीब की नहीं बल्कि मध्यमवर्गीय (Middle Class) घर के कूलर की जीवनी है. (अरे इसे हॉयर मिडिल वाला नहीं बस लोवर मिडिल क्लास वाला मध्यवर्ग समझियेगा). महानगरों की मैं नहीं बता सकता लेकिन छोटे शहरों में नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों में फ्रिज, टीवी और कूलर का आगमन हुआ. कुछ भ्रष्टाचार की काली कमाई, कुछ दहेज में झटक कर, कुछ उदारीकरण के कारण लल्ला के बैंगलोर वेंगलोर में नौकरी के कारण, कुछ बाज़ार की बढ़ती ताकत से बढ़ी तनख़ाह के कारण आया.
हमारे घर में तो बढ़ी तनख़ाह के कारण ही आया. पिताजी रेलवे में थे. तो जब तनख़ाह बढ़ी तो हम सब को उसी अनुपात में गर्मी भी अखरने लगी. पिताजी के कूलर के दुष्प्रभाव के बारे में आरंभिक प्रवचनों के बाद हम बच्चों की ज़िद जीतने लगी. उसके बाद जैसा मध्यवर्गीय परिवारों में परम्परा होती है इष्ट मित्रों से राय मशविरा करने का तो पिताजी के इस दौर में प्रवेश करने से हम सब आश्वस्त हो गए कि अब तो कूलर आएगा ही आएगा. तो दसेक दिन के विचार सत्र के बाद तनख़ाह वाले दिन साहब ये तय हुआ कि कूलर आज लिया जाएगा.
गर्मी की छुट्टी थी तो सब भाई बहन घर पर ही थे. दोपहर के बाद हम और बड़े भैया पिताजी के साथ रिक्शे पर बैठकर बाज़ार चल दिए. जैसा कि दस्तूर है हर छोटे बड़े काम में एक अनुभवी आदमी को जरूर लिया जाता है तो गुप्ता चाचा भी चौड़े होकर रिक्शे में अट लिए. हम और बड़े भैया आधा खड़े और आधा दोनों जन की गोद में फंसे कूलर की दुकान पर पहुंच गए. कूलर की बॉडी के गेज से लेकर पंखे की बाइंडिंग तक पर विस्तृत परिचर्चा के बाद आखिरकार टीन वाला कूलर ले ही लिया गया. (प्लास्टिक वाला कूलर तब बहुत प्रचलन में नहीं था और था भी तो उसे अब भी बड़े लोगों के चोंचले में गिना जाता था.)
तो जब फाइनली कूलर ले लिया गया तो उसे ठेले पर लदवा के ठेले के पीछे हमें और बड़े भैया को कूलर के साथ बैठा दिया गया. हम दोनों के गले में कूलर का स्टैंड ऐसे टांगा गया जैसे विजय माला पहनाई गई हो. फिलहाल विजय माला क्या सुख देगी जो सुख कूलर के स्टैंड को टांगने में मिला था. ठेला आहिस्ते आहिस्ते झटका पटका लेता घर की तरह बढ़ रहा था.
हम और भैया पीछे टंगे एक दूसरे को देख का मुस्कुरा रहे थे और मन ही मन ठंडी हवा खाकर कुल्फी हो रहे थे. ठेले के घर पहुंचते ही पूरा परिवार आस पड़ोस के साथ कूलर के इंतजार में लॉन में बैठा था. बधाई और अगवानी का अक्षत छिड़ककर कूलर को बीच वाले कमरे में बरामदे की तरफ सेट किया गया. कूलर वाला खुद भी आया था. पानी वानी भरवा के कूलर चलवा के बाकायदा डेमो सेमो देकर वो नेग में पिताजी से पान खाने का पैसा पाकर विदा हुआ.
उसके बाद न जाने कितनी गर्मियां बीती उस कूलर के आगे. अनगिनत किस्सों का गवाह बना. हम भाइयों में उसके आगे सोने के लिए न जाने कितनी बार झोटव्वल हुआ. मेहमान के आने पर उसके लिए मन मसोस कर त्याग भी करना पड़ा. दोपहर की अंत्याक्षरी से लेकर चोर सिपाही वजीर बादशाह तक के महान खेल खेले गए. फिर एक दिन अचानक हम सब बड़े हो गए और कूलर बुढ़ाने लगा.
फिर सब के अलग अलग कमरे होने लगे और पहले प्लास्टिक वाले कूलर ने फिर एयर कंडीशनर ने दंभ के साथ कूलर को उसकी हैसियत बताना शुरू किया. टीन का कूलर घर के बुजुर्ग की तरह कब कमरे से निकलकर बरामदे में आ गया हमें एहसास ही नहीं हुआ. अभी पिछले गर्मियों में किसी काम से मैं स्टोर में गया तो देखा एक कोने में कूलर पड़ा था. उसके अंदर तमाम डिब्बे सिब्बे पड़े थे.
मैंने अम्मा से पूछा तो पता चला पंखा अभी सही है खरीदने के बाद एक बार उसकी बाइडिंग जली थी उसके बाद फिर वो कभी खराब नहीं हुई. अब भी बस उपेक्षा ही उसकी खराबी थी. किसी स्वाभिमानी बुजुर्ग की तरह वह भी मुझे घूर कर कह रहा था कि एक बार साफ करके लगाओ तो सही तुम्हारे एसी को न फेल कर दिया तो मेरा नाम नहीं. मैं भी न जाने किस भाव में था उस कूलर के समीप जाकर देखने लगा. बचपन फिर जी उठा.
उंगली से उसके पंख की हिलाया उसी मक्खन सी चिकनाई की तरह उसके पंख घूमने लगे. इधर मेरे आंख के सामने पिताजी, ठेला ,भैया, गुप्ता चाचा और वो तमाम बाते नाच रही थी. भावनाएं कब प्रगाढ़ होकर आंख से टपकने लगी पता ही न चला. आज पिताजी नहीं रहे, गुप्ता चाचा भी पता नहीं जिंदा है या नहीं मालूम नहीं.
बड़े भैया और छोटा भाई अपने अपने घर में है. बहने शादी ब्याह के बाद चली गई. बस अब घर में दो बुजुर्ग अम्मा और कूलर बचे. तभी अम्मा स्टोर पर आकर कहने लगी 'अबकी होली की सफाई में महेंद्र जिद्दियाये थे इसे कबाड़ी वाले को देने के लिए. कह रहे थे फिजूल की जगह घेरा है स्टोर में. तुम कहो तो हटवा दें ?
मैं थोड़ी देर चुप रहा फिर उस कूलर को सहलाते हुए अम्मा से कहा 'नहीं अम्मा ये कही नहीं जायेगा. पूरा घर इसका है. ये कबाड़ नहीं है ये हमारा बचपन है जिसे हमनें अपनी उपेक्षा से बुड्ढा बना दिया है.' अम्मा हमें देखकर मुस्कुरा दी.
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