डिप्रेशन आज के दौर की एक ऐसी बीमारी है जिसे बड़े शहर और आधुनिक जीवन शैली से जोड़ के देखा जाता है. आमतौर पर इसे शहरों में रहने वाले मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग की समस्या के तौर पर देखा जाता है जिसकी वजह महत्वाकांक्षा और हकीकत के बीच के संतुलन को स्वीकार न कर पाना है. लेकिन हकीकत इससे अलग है. यह एक ऐसी मनोदशा है जो किसी भी वर्ग के व्यक्ति को हो सकती है चाहे वो शहरी हो या ग्रामीण. समाज में बेहद सफल और अमीर लोगों से लेकर निहायत सामान्य व्यक्ति भी इसका शिकार हो सकता है. सबसे दिलचस्प बात ये है कि इस मनोदशा से गुजर रहे ज्यादातर लोगों को ये पता ही नहीं होता है कि उन्हें डिप्रेशन है.
हाल में WHO की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत दुनिया का सबसे डिप्रेस्ड देश है. यानि इस मनोदशा के दुनिया में सबसे ज्यादा रोगी भारत में है. इसी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में लगभग 7 प्रतिशत लोग किसी ना किसी मानसिक रोग जैसे डिप्रेशन, सिजोफ्रेनिया, बाइपोलर डिसऑर्डर से ग्रस्त हैं.
सबसे पहली और बड़ी समस्या है कि जानकारी के अभाव में ज्यादातर लोग इस बीमारी के लक्षणों को पहचान ही नहीं पाते हैं. उन्हें ये पता ही नहीं होता कि वो किसी खास मनोदशा के शिकार हैं जो एक बीमारी है. लगभग 80 प्रतिशत लोग जिन्हें किसी तरह की मानसिक बीमारी का शिकार पाया जाता है, वो अपना इलाज ही नहीं कराते हैं.
इसके पीछे भी कई कारण हैं. एक तो हमारे समाज में किसी भी मानसिक बीमारी को पागलपन के तौर पर देखा जाता है जिसकी वजह से रोगग्रस्त व्यक्ति न तो अपनी बिमारी के बारे में किसी से बात करता है और न ही वो किसी साइकोलॉजिस्ट या साइकेट्रिस्ट की मदद लेता है. दूसरे हमारे देश में ऐसे विशेषज्ञ डॉक्टरों की भारी कमी है. भारत में लगभग 1 लाख लोगों पर महज 1...
डिप्रेशन आज के दौर की एक ऐसी बीमारी है जिसे बड़े शहर और आधुनिक जीवन शैली से जोड़ के देखा जाता है. आमतौर पर इसे शहरों में रहने वाले मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग की समस्या के तौर पर देखा जाता है जिसकी वजह महत्वाकांक्षा और हकीकत के बीच के संतुलन को स्वीकार न कर पाना है. लेकिन हकीकत इससे अलग है. यह एक ऐसी मनोदशा है जो किसी भी वर्ग के व्यक्ति को हो सकती है चाहे वो शहरी हो या ग्रामीण. समाज में बेहद सफल और अमीर लोगों से लेकर निहायत सामान्य व्यक्ति भी इसका शिकार हो सकता है. सबसे दिलचस्प बात ये है कि इस मनोदशा से गुजर रहे ज्यादातर लोगों को ये पता ही नहीं होता है कि उन्हें डिप्रेशन है.
हाल में WHO की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत दुनिया का सबसे डिप्रेस्ड देश है. यानि इस मनोदशा के दुनिया में सबसे ज्यादा रोगी भारत में है. इसी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में लगभग 7 प्रतिशत लोग किसी ना किसी मानसिक रोग जैसे डिप्रेशन, सिजोफ्रेनिया, बाइपोलर डिसऑर्डर से ग्रस्त हैं.
सबसे पहली और बड़ी समस्या है कि जानकारी के अभाव में ज्यादातर लोग इस बीमारी के लक्षणों को पहचान ही नहीं पाते हैं. उन्हें ये पता ही नहीं होता कि वो किसी खास मनोदशा के शिकार हैं जो एक बीमारी है. लगभग 80 प्रतिशत लोग जिन्हें किसी तरह की मानसिक बीमारी का शिकार पाया जाता है, वो अपना इलाज ही नहीं कराते हैं.
इसके पीछे भी कई कारण हैं. एक तो हमारे समाज में किसी भी मानसिक बीमारी को पागलपन के तौर पर देखा जाता है जिसकी वजह से रोगग्रस्त व्यक्ति न तो अपनी बिमारी के बारे में किसी से बात करता है और न ही वो किसी साइकोलॉजिस्ट या साइकेट्रिस्ट की मदद लेता है. दूसरे हमारे देश में ऐसे विशेषज्ञ डॉक्टरों की भारी कमी है. भारत में लगभग 1 लाख लोगों पर महज 1 मानसिक रोग विशेषज्ञ उपलब्ध है.
हाल के दिनों में डिप्रेशन आत्महत्या का सबसे मुख्य कारण रहा है. यही नहीं जो व्यक्ति किसी भी मनोरोग दशा से गुजर रहा होता है उससे समाज और देश को क्या कीमत चुकानी पड़ती है उसे इस बात से समझा जा सकता है कि एक रिपोर्ट के मुताबिक 2016 से 2030 के बीच भारत की अर्थव्यवस्था में 9 ट्रिलियन डॉलर की कमी महज मनोरोग से शिकार लोगों की वजह से होने की संभावना है.
देश-विदेश की तमाम फेमस हस्तियां जैसे हालीवुड स्टार जिम कैरी, जानी डेप, एंजिलिना जोली और दीपिका पादुकोण को इस समस्या से रूबरू होना पड़ा और जब इन्होंने अपनी समस्या की चर्चा की तो लोगों में इसे लेकर थोड़ी जागरूकता बढ़ी.
18 सेक्टरों की 150 कंपनियों के सर्वे के बाद ऐसोचैम की एक रिपोर्ट के मुताबिक प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाले लगभग 43 प्रतिशत लोग डिप्रेशन का शिकार हैं. यानि हर 20 में से लगभग 9 लोग डिप्रेशन में हैं. जाहिर सी बात है कि इससे लोगों की उत्पादकता और परिणाम स्वरूप पूरे प्राइवेट सेक्टर की उत्पादकता कम हो जाती है.
आज जरूरत है हम डिप्रशन को अन्य बीमारियों की तरह एक बीमारी के रूप में स्वीकार करें और ऐसे लोगों को हर तरह से सपोर्ट करें. सरकार ने भी इसकी गंभीरता को समझा और पिछले साल मेंटल हेल्थकेयर बिल लेकर आयी. नये जमाने की नयी चुनौतियों के बीच जीवन के संघर्ष को सुगम बनाने के लिए समाज और सरकार दोनों को मिलकर इस समस्या को स्वीकारना और लड़ना होगा.
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