व्यक्ति चाहें कैसा भी हो, उसका धर्म भले कोई भी हो ये बेहद जरूरी है कि वो अच्छा इंसान हो. किसी भी व्यक्ति के अच्छा बनने के कारणों पर नजर डालें तो मिलता है कि जहां एक तरफ घर का माहौल इसका जिम्मेदार है तो वहीं दूसरी तरफ शिक्षा भी इसका एक महत्वपूर्ण कारक है.
महंगाई के इस दौर में एक आम आदमी के लिए अपने बच्चों को पढ़ाना वाकई एक मुश्किल काम है. आदमी जितना कमाता है, उसका एक बड़ा हिस्सा वो बच्चों की स्कूल फीस उसके बाद किताब, कॉपियों में निकाल देता है. यहां तक बात ठीक थी, इसके बाद एक आम आदमी के लिए असल दिक्कत तब शुरू होती है जब उसे अपने खर्चों में कटौती करते हुए बच्चे को कोचिंग भेजना होता है.
कहा जा सकता है आज बच्चे को कोचिंग भेजना एक फैशन से ज्यादा एक सामाजिक जरूरत है. प्रायः ये देखा गया है कि प्रतियोगिता के इस दौर में हर किसी मां बाप का सपना होता है कि उनका बेटा या बेटी टॉपर बन उसका नाम रौशन करे. साथ ही ये भी देखा गया है कि अब खुद स्कूलों द्वारा मां बाप को ये बताया जाता है कि चूँकि उनका बच्चा पढाई में ठीक है और ये और भी अच्छा निकल सकता है यदि वो इसका प्रवेश किसी अच्छी कोचिंग में कराते हैं.
आप 'अच्छे' कोचिंग सेंटर की फीस से वाकिफ होंगे. एक आम आदमी के लिए अपने बच्चों को अच्छी कोचिंग में भेजना कोई आसान काम नहीं है. अपन बच्चे को अच्छी कोचिंग में भेजने के लिए एक आम माँ बाप की कमर टूट जाती है, उनकी अर्थव्यवस्था बिगड़ जाती है.
अब उपरोक्त इंगित बातों को एक ऐसे माँ बाप या ऐसे परिवारों के सन्दर्भ में सोचिये जो गरीबी रेखा के नीचे रह कर जीवन यापन कर रहे हों. आपको मिलेगा कि इन हालात में एक गरीब माँ बाप अपन बच्चे को पढ़ा नहीं सकते हैं.
आगे बढ़ने से पहले हम आपको ऐसी ही एक खबर से...
व्यक्ति चाहें कैसा भी हो, उसका धर्म भले कोई भी हो ये बेहद जरूरी है कि वो अच्छा इंसान हो. किसी भी व्यक्ति के अच्छा बनने के कारणों पर नजर डालें तो मिलता है कि जहां एक तरफ घर का माहौल इसका जिम्मेदार है तो वहीं दूसरी तरफ शिक्षा भी इसका एक महत्वपूर्ण कारक है.
महंगाई के इस दौर में एक आम आदमी के लिए अपने बच्चों को पढ़ाना वाकई एक मुश्किल काम है. आदमी जितना कमाता है, उसका एक बड़ा हिस्सा वो बच्चों की स्कूल फीस उसके बाद किताब, कॉपियों में निकाल देता है. यहां तक बात ठीक थी, इसके बाद एक आम आदमी के लिए असल दिक्कत तब शुरू होती है जब उसे अपने खर्चों में कटौती करते हुए बच्चे को कोचिंग भेजना होता है.
कहा जा सकता है आज बच्चे को कोचिंग भेजना एक फैशन से ज्यादा एक सामाजिक जरूरत है. प्रायः ये देखा गया है कि प्रतियोगिता के इस दौर में हर किसी मां बाप का सपना होता है कि उनका बेटा या बेटी टॉपर बन उसका नाम रौशन करे. साथ ही ये भी देखा गया है कि अब खुद स्कूलों द्वारा मां बाप को ये बताया जाता है कि चूँकि उनका बच्चा पढाई में ठीक है और ये और भी अच्छा निकल सकता है यदि वो इसका प्रवेश किसी अच्छी कोचिंग में कराते हैं.
आप 'अच्छे' कोचिंग सेंटर की फीस से वाकिफ होंगे. एक आम आदमी के लिए अपने बच्चों को अच्छी कोचिंग में भेजना कोई आसान काम नहीं है. अपन बच्चे को अच्छी कोचिंग में भेजने के लिए एक आम माँ बाप की कमर टूट जाती है, उनकी अर्थव्यवस्था बिगड़ जाती है.
अब उपरोक्त इंगित बातों को एक ऐसे माँ बाप या ऐसे परिवारों के सन्दर्भ में सोचिये जो गरीबी रेखा के नीचे रह कर जीवन यापन कर रहे हों. आपको मिलेगा कि इन हालात में एक गरीब माँ बाप अपन बच्चे को पढ़ा नहीं सकते हैं.
आगे बढ़ने से पहले हम आपको ऐसी ही एक खबर से रु-ब-रु कराएंगे जहाँ एक बच्चे को कोचिंग सेंटर ने सिर्फ इसलिए दाखिला नहीं दिया क्योंकि उसके परिवार के पास कोचिंग की भारी भरकम फीस चुकाने के पैसे नहीं थे. और ये सिर्फ लड़के की मेहनत और लगन ही थी जिसके चलते न सिर्फ उसने यूपीएससी की परीक्षा दी बल्कि यूपीएससी जैसी कठिन परीक्षा में तीसरी रैंक हासिल कर ये बता दिया कि सफलता संसाधनों की मोहताज नहीं होती और इसके लिए सिर्फ लगन और मेहनत की जरूरत होती है.
खबर हैदराबाद से है जहां 30 साल के गोपाल कृष्ण रोनांकी की जिद और उनके हौसलों के आगे चुनौतियों भी छोटी साबित हो गयीं. उन्होंने न सिर्फ सिविल सर्विस एग्जाम में सफलता हासिल की बल्कि पूरे भारत में तीसरी रैंक लेकर आये. बताया जा रहा है कि गोपाल पूरे आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में टॉप रैंक पर रहे. गोपाल की स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पैसे न होने के चलते कोचिंग ने इन्हें अपने सेंटर में प्रवेश देने तक से मना कर दिया था.
अंत में हम इतना ही कहेंगे कि ये बिल्कुल भी जरूरी नहीं कि हर बच्चा टॉपर हो महत्वपूर्ण ये है कि उसकी नींव मजबूत हो जो केवल स्वयं अध्ययन से ही होगी. साथ ही स्कूलों को भी ये बात भली प्रकार सोचनी चाहिए कि शिक्षा का बाजारीकरण न देश के हित में है और न ही समाज के हित में. स्कूल, अपने कैम्पस से टॉपर तो निकाल सकते हैं मगर ये बिल्कुल भी जरूरी नहीं कि वो टॉपर एक अच्छे इंसान हों और कुछ ऐसा कर सकें जिसके चलते समाज उन्हें याद रख सके.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.