हम उस दौर से गुज़र रहे हैं जहां इंसान कौन है और हैवान कौन, ये पहचानना मुश्किल हो रहा है. आज भारत में मात्र दो जगह ही लोग देखे जा रहे हैं. एक वो जो अस्पताल के अन्दर हैं, कोरोना से जूझ रहे हैं, ज़िन्दगी के लिए संघर्ष कर रहे हैं और दूसरे हॉस्पिटल के बाहर, अपने परिवार के सदस्य के लिए दवा-ऑक्सीजन और प्लाज़्मा जुटाते मिल रहे हैं. अब मैं तीसरी किस्म की बात करता हूं, वो दिखते तो इंसान जैसे ही हैं, पर हैं कुछ और ही. खड़े तो वो भी अस्पताल के बाहर ही हैं, बस फ़र्क इतना है कि उन्हें दवा का इंतज़ार नहीं है, उन्हें अस्पताल से लाश निकलने का इंतज़ार है.
आज से करीब 28 साल पहले, अफ्रीका के बहुत बुरे हाल थे. सुडान में भुखमरी छाई हुई थी. रोज़ आठ से दस लोग सिर्फ भूख से मरते थे. यूनाइटेड नेशन ने यहां हस्तक्षेप करते हुए पूरे सुडान में खाना पहुंचाने की ज़िम्मेदारी ली. अब क्योंकि फंड्स की दिक्कत पहले ही थी, इसलिए कोई नामी मैगज़ीन या अख़बार वालों को बुलाने की बजाए, फ्रीलांसर फोटाग्राफर बुलाए गए. इनमें हुआओ सिल्वा और केविन कार्टर मुख्य थे. केविन इससे पहले वॉर फोटोग्राफी करते थे. उनके लिए ये एक नई चुनौती थी. वो जैसे-तैसे पैसे उधार करके अफ्रीका आए थे. साउथ सुडान पहुंचने से पहले ही अयोड नामक छोटे से गांव में उनको रुकना पड़ा. वहां उन्हें एक बच्चा दिखा जो भूख से निढाल होकर रेत में गिरा पड़ा था. उसके ठीक पीछे एक गिद्ध बैठा था. कार्टर ने दनादन दर्जनों फोटो उस बच्चे और उसके पीछे बैठे गिद्ध की ले लीं.
वह फोटो द न्यूयॉर्क टाइम्स में पब्लिश हुई. उस फोटो को देख जितने भी अख़बार थे सबने उसे फ्रंट पेज पर जगह दी. सैकड़ों एनजीओ ने उस फोटो की बदौलत अपनी फंडरेजिंग कर ली. उसी फोटो के लिए फोटोग्राफी का सबसे...
हम उस दौर से गुज़र रहे हैं जहां इंसान कौन है और हैवान कौन, ये पहचानना मुश्किल हो रहा है. आज भारत में मात्र दो जगह ही लोग देखे जा रहे हैं. एक वो जो अस्पताल के अन्दर हैं, कोरोना से जूझ रहे हैं, ज़िन्दगी के लिए संघर्ष कर रहे हैं और दूसरे हॉस्पिटल के बाहर, अपने परिवार के सदस्य के लिए दवा-ऑक्सीजन और प्लाज़्मा जुटाते मिल रहे हैं. अब मैं तीसरी किस्म की बात करता हूं, वो दिखते तो इंसान जैसे ही हैं, पर हैं कुछ और ही. खड़े तो वो भी अस्पताल के बाहर ही हैं, बस फ़र्क इतना है कि उन्हें दवा का इंतज़ार नहीं है, उन्हें अस्पताल से लाश निकलने का इंतज़ार है.
आज से करीब 28 साल पहले, अफ्रीका के बहुत बुरे हाल थे. सुडान में भुखमरी छाई हुई थी. रोज़ आठ से दस लोग सिर्फ भूख से मरते थे. यूनाइटेड नेशन ने यहां हस्तक्षेप करते हुए पूरे सुडान में खाना पहुंचाने की ज़िम्मेदारी ली. अब क्योंकि फंड्स की दिक्कत पहले ही थी, इसलिए कोई नामी मैगज़ीन या अख़बार वालों को बुलाने की बजाए, फ्रीलांसर फोटाग्राफर बुलाए गए. इनमें हुआओ सिल्वा और केविन कार्टर मुख्य थे. केविन इससे पहले वॉर फोटोग्राफी करते थे. उनके लिए ये एक नई चुनौती थी. वो जैसे-तैसे पैसे उधार करके अफ्रीका आए थे. साउथ सुडान पहुंचने से पहले ही अयोड नामक छोटे से गांव में उनको रुकना पड़ा. वहां उन्हें एक बच्चा दिखा जो भूख से निढाल होकर रेत में गिरा पड़ा था. उसके ठीक पीछे एक गिद्ध बैठा था. कार्टर ने दनादन दर्जनों फोटो उस बच्चे और उसके पीछे बैठे गिद्ध की ले लीं.
वह फोटो द न्यूयॉर्क टाइम्स में पब्लिश हुई. उस फोटो को देख जितने भी अख़बार थे सबने उसे फ्रंट पेज पर जगह दी. सैकड़ों एनजीओ ने उस फोटो की बदौलत अपनी फंडरेजिंग कर ली. उसी फोटो के लिए फोटोग्राफी का सबसे बड़ा पुरस्कार, द पुलित्ज़र प्राइस भी केविन कार्टर को मिला. ये एक साल बाद सन 1994 की बात है. ज़ाहिर है कार्टर अवार्ड मिलने से बहुत ख़ुश थे. लेकिन तभी वहां बैठे किसी जर्नलिस्ट ने उनसे सवाल पूछ लिया 'मिस्टर कार्टर आप बता सकते हैं कि वहां कितने गिद्ध थे?
कार्टर के माथे पर बल पड़े और बोले 'वहां एक गिद्ध था, एक बच्ची थी' लेकिन तभी उस जर्नलिस्ट ने टोककर कहा 'नहीं मिस्टर कार्टर, वहां दो गिद्ध थे, दूसरे के हाथ में कैमरा था.'
ऐसे ही अस्पताल के बाहर खड़े वो फोटोग्राफर भी किसी गिद्ध से कम नहीं हैं जो अस्पताल से निकली लाश का पीछाकर, उनके शमशान पहुंचते ही दनादन फ़ोटो खींचने में लग जाते हैं. ये फ़ोटोज़, सुनने में आया है कि दस हज़ार से लेकर पांच लाख रुपए तक बिक रही हैं. ऐसी ही फ़ोटो कुछ विदेशी मैगज़ीन्स के कवर पेज पर छप रही हैं. ऐसा जताया जा रहा है कि भारत में सिवाए मौत के और कुछ नहीं हो रहा है.
क्या यही पत्रकारिता है? क्या यही जर्नलिज्म में सिखाया जाता है?
केविन कार्टर से उस इंसिडेंट के बाद सैकड़ों लोगों ने पूछा कि जब वो उस बच्ची की फोटो खींच सकते थे, तो उसे यूएन के कैंप तक पहुंचा भी तो सकते थे, जो मात्र आधा किलोमीटर दूर था. वो क्यों उसे लेकर नहीं गए? केविन ने कई बार कहा कि उन्होंने उस गिद्ध को भगा दिया था. उस बच्ची से दूर कर दिया था पर सवालों की बौछार कम नहीं होती थी. एक ने तो यहां तक पूछ लिया था कि 'और केविन, किसी बच्चे की लाश के ऊपर चढ़कर ये पुरस्कार पाकर कैसा लग रहा है?
इन सवालों का नतीजा जानते हैं क्या हुआ? केविन कार्टर ने आत्महत्या कर ली. जी हां, केविन ये सब सह नहीं पाए लेकिन आज के गिद्ध इतने बेशर्म हो गए हैं कि उन्हें अब किसी के सवालों का, किसी के तानों का कोई फ़र्क नहीं पड़ता है. सिर्फ फोटोग्राफी वाले ही क्यों, वो गिद्ध भी क्या कम हैं जो आज ऑक्सीजन सिलिंडर स्टॉक किए बैठे हैं और मनमाने दाम में, मनचाहे शख्स को ही दे रहे हैं. इंजेक्शन, मेडिसिन्स, एम्बुलेंस और यहां तक की ग्लव्स तक में धांधली करने वाले समाज के वो गिद्ध हैं जिन्हें लाशें नोचने में मज़ा आ रहा है.
रोज़ तीन लाख से ज़्यादा लोग भारत में कोरोना को मात दे रहे हैं. लाखों वालंटियर ऐसे हैं जो अपनी रात की नींद दिन का चैन सब कोरोना पीड़ितों के लिए समर्पित कर चुके हैं. कवि कुमार विश्वास, सोनू सूद, सुनील शेट्टी, सारा अली खान, ज्योति वेंकटेश, अंकिता जैन, सरगम, संजना (जम्मू कश्मीर से) आदि ऐसे लाखों लोग हैं जो आपका इंसानियत पर से भरोसा नहीं उठने देंगे.
कल सौरभ नामक एक लड़के से बात हुई, वह दोपहर 2 बजे से लेकर रात आठ बजे तक मेरे एक रिश्तेदार को प्लाज्मा देने के लिए रुके रहे, इस बीच उनके पिता, जो बाहर गाड़ी में बैठे थे, उन्होंने एक बार भी टोका नहीं, हड़बड़ी नहीं दिखाई. दोनों बाप बेटे करीब 6 घंटे निःस्वार्थ मदद के लिए हाज़िर रहे. शाम को जब प्लाज्मा डोनेट हो गया तो सौरभ के चेहरे पर एक मुस्कराहट थी, एक सुकून था कि कम से कम एक जान बचाने के काम तो वह आ सका.
भारत देश ऐसे ही सौरभ से मिलकर बना है, यहां गिद्धों की संख्या ज़रूर बढ़ी है पर गिद्ध अभी इतने भी नहीं हुए कि कवर पेज पर आ सकें.
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