बसंत का मौसम है. मेट्रो शहरों में बाज़ार ही ने संत वैलेनटाइन का रुप जैसे धर लिया है तो दिल्ली में एक छद्म वैचारिक हल्ले की बेसुरी गूंज भी है. दिल्ली में इस वक्त दो तरह के राग गूंज रहे हैं. मॉल्स में प्रेम की अभिव्यक्ति का तो लुटियंस की दिल्ली के इर्द गिर्द विचार की अभिव्यक्ति का.
लेकिन दोनों ही सुरों में न लय है ना ताल. बाज़ार के गणित ने प्रेम के नाम पर सतही उथलेपन को और उभार दिया है. लेकिन उससे खोखला है वो शोर जिसमें बड़े-बड़े शब्द तो हैं लेकिन उनकी अनुगूंज बेहद उथली. भाषण, विचार ,देशद्रोह , देशभक्ति, जिंदाबाद, मुर्दाबाद, आज़ादी, भारत माता, मौलिक अधिकार, संविधान, ये सारे शब्द गड्डम़ड्ड होकर ऐसा कोलाज बना रहे हैं जिससे कोई तस्वीर बन नहीं सकती. क्या हो रहा है और क्या होना चाहिए? इसे लेकर ज्यादातर लोग वैचारिक धुंधलके का शिकार हो गए हैं.
कौन देशद्रोही है कौन देशभक्त? आज़ादी किससे और किसके लिए? अतिभावुकता और अति प्रतिक्रियावादी हो गए विचारों में कौन कितना' लेफ्ट' की ओर झुक रहा है तो कौन 'राइट' होने का दावा करता है. समझना मुश्किल है.
एक सच्ची कहानी सुनिए. स्पेन के प्रख्यात फिल्मकार लुई बुनुएल ने अपनी आत्मकथा मेरी अंतिम सांस में लिखा है कि स्पेन के मशहूर कवि फेदरेको गार्सिया लोर्का की लोकप्रियता से जल कर स्पेन के तीन लेखकों ने एक कॉफी हाऊस में बैठकर ये प्रचारित करना शुरु कर दिया कि लोर्का समलैंगिक हैं. जब एक अर्से बाद लोर्का को इस जब इस प्रचार का पता चला तो उसे गहरा धक्का लगा. मैड्रिड में 1934 की एक सुबह चार बजे फासिस्ट लोर्का को उठाकर कहीं ले गए और बाद में उसे गोली मार दी. उस पर आरोप लोकतंत्रवादी होने का नहीं, समलैंगिक होने का था.
आमिर खान देश छोड़ना चाहते हैं. दादरी में कोई बीफ खा रहा है... रयूमर मॉंगरिग के ऐसे कई नमूने हम देख ही चुके हैं. यूं तो रयूमर मॉंगरिग नई बात नहीं. हर देश में इसका कारखाना 24 घंटे चलता ही रहता है ..दफ्तरों में , स्कूलों में, किट्टी पार्टियों में. हर जगह होती है रयूमर मॉंगरिंग. लेकिन इस...
बसंत का मौसम है. मेट्रो शहरों में बाज़ार ही ने संत वैलेनटाइन का रुप जैसे धर लिया है तो दिल्ली में एक छद्म वैचारिक हल्ले की बेसुरी गूंज भी है. दिल्ली में इस वक्त दो तरह के राग गूंज रहे हैं. मॉल्स में प्रेम की अभिव्यक्ति का तो लुटियंस की दिल्ली के इर्द गिर्द विचार की अभिव्यक्ति का.
लेकिन दोनों ही सुरों में न लय है ना ताल. बाज़ार के गणित ने प्रेम के नाम पर सतही उथलेपन को और उभार दिया है. लेकिन उससे खोखला है वो शोर जिसमें बड़े-बड़े शब्द तो हैं लेकिन उनकी अनुगूंज बेहद उथली. भाषण, विचार ,देशद्रोह , देशभक्ति, जिंदाबाद, मुर्दाबाद, आज़ादी, भारत माता, मौलिक अधिकार, संविधान, ये सारे शब्द गड्डम़ड्ड होकर ऐसा कोलाज बना रहे हैं जिससे कोई तस्वीर बन नहीं सकती. क्या हो रहा है और क्या होना चाहिए? इसे लेकर ज्यादातर लोग वैचारिक धुंधलके का शिकार हो गए हैं.
कौन देशद्रोही है कौन देशभक्त? आज़ादी किससे और किसके लिए? अतिभावुकता और अति प्रतिक्रियावादी हो गए विचारों में कौन कितना' लेफ्ट' की ओर झुक रहा है तो कौन 'राइट' होने का दावा करता है. समझना मुश्किल है.
एक सच्ची कहानी सुनिए. स्पेन के प्रख्यात फिल्मकार लुई बुनुएल ने अपनी आत्मकथा मेरी अंतिम सांस में लिखा है कि स्पेन के मशहूर कवि फेदरेको गार्सिया लोर्का की लोकप्रियता से जल कर स्पेन के तीन लेखकों ने एक कॉफी हाऊस में बैठकर ये प्रचारित करना शुरु कर दिया कि लोर्का समलैंगिक हैं. जब एक अर्से बाद लोर्का को इस जब इस प्रचार का पता चला तो उसे गहरा धक्का लगा. मैड्रिड में 1934 की एक सुबह चार बजे फासिस्ट लोर्का को उठाकर कहीं ले गए और बाद में उसे गोली मार दी. उस पर आरोप लोकतंत्रवादी होने का नहीं, समलैंगिक होने का था.
आमिर खान देश छोड़ना चाहते हैं. दादरी में कोई बीफ खा रहा है... रयूमर मॉंगरिग के ऐसे कई नमूने हम देख ही चुके हैं. यूं तो रयूमर मॉंगरिग नई बात नहीं. हर देश में इसका कारखाना 24 घंटे चलता ही रहता है ..दफ्तरों में , स्कूलों में, किट्टी पार्टियों में. हर जगह होती है रयूमर मॉंगरिंग. लेकिन इस दौर में अफवाहें सच बन गई हैं और जो सच है उसने अफवाह की बेबसी ओढ़ ली है. बुंदेलखंड के सुमरेपुर में एक गांव है टेढा. पिछले दिनों 45 साल के सुरेश कुशवाहा ने अपनी उसी चारपाई की रस्सी को फंदा बनाकर खुदकुशी कर ली जिस पर वो रोज सोता था. पांच बच्चों के बाप सुरेश पर किसानी का कर्जा था जिसे उतारने के लिए परिवार ने जब ज़मीन बेचने की बात उठाई तो सुरेश ने ऐलान कर दिया कि मर जाऊंगा ....ज़मीन नहीं बेचूंगा और उसने वही किया. ये कोई कहानी नहीं सच्चाई है. पिछले साल सरकार ने संसद के सामने माना था कि साल 2014 में 1 लाख 1,263 किसानों ने जान दे दी. देश में किसानों की सच्चाई अब अफवाह जैसी हो गई है. जिसे कोई सच नहीं मानता. हर रोज़ तकरीबन ढाई हज़ार किसान खेती छोड़ रहे हैं जो छोड़ नहीं पा रहे हैं वो ना जी पा रहे है ना मर पा रहे हैं.
भारत का संविधान अगर विचार अभिव्यक्त करने की आज़ादी देता है तो जीने का अधिकार भी तो देता है. तो क्या ये सोचने का मुद्दा नहीं कि कैसे ये सिस्टम भारतीय किसानों के जीने का हक उनसे छीन रहा है. दिल्ली के इस तथाकथित वैचारिक संघर्ष के हल्ले में उस सुरेश कुशवाहा का जिक्र क्यों नहीं है. क्यों सच आज अफवाह जैसी नियति को भी तरस रहा है.
दरअसल लुटियंस की दिल्ली रयूमर मॉगरिंग का वो चौराहा है जहां से सारे रास्ते सिर्फ सत्ता, लोकप्रियता और राजनीति की गलियों तक ही जाते हैं. इसीलिए राजनेता हर घटना के साथ ही अपनी राह पकड़ लेते हैं. वो दादरी में दिखते हैं, जेएनयू में दिखते हैं, दिखेंगे. ये सवाल छात्रों से और हर उस बाशिंदे से है जो इस राजनीति के धुंधलके में असली तस्वीर देख नहीं पा रहा है, कि अधिकारों और संविधान की दुनिया दिल्ली के बाहर भी है. मेट्रो शहरों की चकाचौंध की वो दुनिया जहां दो रोटी का जुगाड़ एजेंडे में नहीं वहां के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी एक सपनीला शब्द है लेकिन बुंदेलखंड के किसी एक किसान के लिए सम्मान से जीने का हक कहीं ज्यादा अहम है. हर बात पर गांधी जी को याद करना वाला ये देश कैसे भूल जाता है कि महात्मा कहा करते थे कि आपके फैसले सही है या गलत उसे सिर्फ एक ही मंत्र से परखा जा सकता है और वो ये कि तुम्हारे इस कदम से, इस विचार से समाज के आखिरी पंक्ति में बैठे आदमी को क्या हासिल होगा. शायद जो आजकल दिल्ली में जो हो रहा है उन्हीं हालातों के लिए क्रांति के कवि फैज़ अहमद फैज़ ने कभी लिखा था-
जो साये दूर चरागों के गिर्द लरज़ॉ (कांप रहे)हैं
न जाने महफिले-गम है, कि बज्में-जाम-ओ-सुबू(महफिल)
जो रंग हर दर ओ दीवार पर परीशां हैं
यहां से कुछ नहीं खुलता ..ये फूल हैं कि लहू.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.