साल 2000 के आसपास की बात है. छोटे परदे पर एकता कपूर का जादू चल रहा था. टीवी को एक नए फ्लेवर के सीरियलों का चस्का लगा था. यह चस्का था सास-बहू के प्रपंचों के बीच मेकअप में पुती महिलाओं वाले डेली सोप का. सास, बहू और बेटियों की साजिश वाली उन कहानियों का दौर तब तक चला, जब तक आनंदी टीवी पर नहीं आई. आनंदी आई तो सीरियलों की कहानी बदलनी चालू हो गई. लेकिन कहानी तब भी घर परिवार के अंदर की खींचतान और राजनीति को ही दिखाती रही. असली राजनीति की कहानी छोटे परदे की पसंद नहीं बनीं. लेकिन क्या सत्ता में मोदी के कायम होने के बाद छोटा परदा अपना टेस्ट बदलने के लिए तैयार है? इस बात का जिक्र यहां इसलिए हो रहा है क्योंकि टीवी पर आजकल एक सीरियल कुछ वैसी ही उम्मीद जगा रहा है.
किसी इंसान के बारे में राय बनाने के लिए जैसे उसके चाल-चरित्र और चेहरे की बात होती है. कुछ वैसी ही बात राजनीति में 'साम दाम दंड भेद' की होती है. इन्हीं चार शब्दों में सिमटी है राजनीति. और यही चार शब्द नए सीरियल का नाम भी है. साम दाम दंड भेद सीरियल में कहानी एक ऐसे नौजवान की है, जो एक आम नागरिक की तरह शुरू में राजनीति के खेल को समझ नहीं पाता. लेकिन जब पॉलिटिक्स के चक्रव्यूह में उसकी जिंदगी फंसती है तो उसे समझ में आ जाता है कि राजनीति असल में क्या बला है? उसे समझ में आता है कि राजनीति का कीचड़ बगैर राजनीति में उतरे साफ नहीं हो सकता. टॉपिक रिस्की है. रिस्की इसलिए क्योंकि चैनलों के सीरियल समाज सेवा के लिए नहीं बनते. उन्हें बिजनेस चाहिए. और राजनीति जैसे सब्जेक्ट में महिलाओं की दिलचस्पी आमतौर पर कम ही होती है. ऐसे में इसे ध्यान में रखकर सीरियल बनाना किसी जोखिम से कम नहीं. लेकिन 'लाइफ ओके' चैनल ने अपने नए अवतार 'स्टार भारत' में यह जोखिम उठाने का माद्दा दिखाया है. शायद इस सीरियल में चैनल अपने टैगलाइन "भुला दे डर, कुछ अलग कर" को जस्टिफाई कर रहा है.
साल 2000 के आसपास की बात है. छोटे परदे पर एकता कपूर का जादू चल रहा था. टीवी को एक नए फ्लेवर के सीरियलों का चस्का लगा था. यह चस्का था सास-बहू के प्रपंचों के बीच मेकअप में पुती महिलाओं वाले डेली सोप का. सास, बहू और बेटियों की साजिश वाली उन कहानियों का दौर तब तक चला, जब तक आनंदी टीवी पर नहीं आई. आनंदी आई तो सीरियलों की कहानी बदलनी चालू हो गई. लेकिन कहानी तब भी घर परिवार के अंदर की खींचतान और राजनीति को ही दिखाती रही. असली राजनीति की कहानी छोटे परदे की पसंद नहीं बनीं. लेकिन क्या सत्ता में मोदी के कायम होने के बाद छोटा परदा अपना टेस्ट बदलने के लिए तैयार है? इस बात का जिक्र यहां इसलिए हो रहा है क्योंकि टीवी पर आजकल एक सीरियल कुछ वैसी ही उम्मीद जगा रहा है.
किसी इंसान के बारे में राय बनाने के लिए जैसे उसके चाल-चरित्र और चेहरे की बात होती है. कुछ वैसी ही बात राजनीति में 'साम दाम दंड भेद' की होती है. इन्हीं चार शब्दों में सिमटी है राजनीति. और यही चार शब्द नए सीरियल का नाम भी है. साम दाम दंड भेद सीरियल में कहानी एक ऐसे नौजवान की है, जो एक आम नागरिक की तरह शुरू में राजनीति के खेल को समझ नहीं पाता. लेकिन जब पॉलिटिक्स के चक्रव्यूह में उसकी जिंदगी फंसती है तो उसे समझ में आ जाता है कि राजनीति असल में क्या बला है? उसे समझ में आता है कि राजनीति का कीचड़ बगैर राजनीति में उतरे साफ नहीं हो सकता. टॉपिक रिस्की है. रिस्की इसलिए क्योंकि चैनलों के सीरियल समाज सेवा के लिए नहीं बनते. उन्हें बिजनेस चाहिए. और राजनीति जैसे सब्जेक्ट में महिलाओं की दिलचस्पी आमतौर पर कम ही होती है. ऐसे में इसे ध्यान में रखकर सीरियल बनाना किसी जोखिम से कम नहीं. लेकिन 'लाइफ ओके' चैनल ने अपने नए अवतार 'स्टार भारत' में यह जोखिम उठाने का माद्दा दिखाया है. शायद इस सीरियल में चैनल अपने टैगलाइन "भुला दे डर, कुछ अलग कर" को जस्टिफाई कर रहा है.
सीरियल में राजनीति के रिस्क के पीछे मोदी?
राजनीति में जिंदा रहना है तो चर्चा जरूरी है. और चर्चा में रहना है तो आपको कुछ ऐसा करना होगा कि आप लोगों के दिलो-दिमाग से गायब नहीं हों. मोदी ने पिछले तीन सालों में जो कुछ भी किया है, आप उसके समर्थक और आलोचक हो सकते हैं. लेकिन उन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकते. मोदी की राजनीति में जनता शामिल है, उसका परिवार शामिल है, घर की महिलाएं शामिल है, बेटियां शामिल है, बहू शामिल है, उनकी समस्या शामिल है. लोग अगर भूलना चाहें तो भी मोदी टीवी पर बार-बार आकर उन्हें अपनी याद दिलाते रहे है. यही वजह है कि पिछले कुछ दिनों में घर-घऱ में मोदी की चर्चा है. मोदी की चर्चा है यानी राजनीति की चर्चा है. और इसी चर्चा ने अब सीरियल में जगह बना ली है. राजनीति अब महिलाओं के लिए आउट ऑफ इंटरेस्ट नहीं रह गया है.
क्या कहता है पहले का अनुभव
राजनीति हिन्दुस्तान के लिए कोई नई बात नहीं है. इसलिए ऐसा भी नहीं कि हालिया दौर में पॉलिटिक्स के इर्द-गिर्द सीरियल नहीं बने. पिछले कुछ सालों में बने दो सीरियलों का जिक्र करना यहां जरुरी है. एक अमिताभ बच्चन स्टारर और अनुराग कश्यप के डायरेक्शन में बनी ‘युद्ध’ थी. इस सीरियल की कहानी के हर मोड़ पर राजनीति थी. लेकिन महज 10-12 एपिसोड के बाद सीरियल बिखर गया. ऐसा लगा कि जैसे उसे बनाने वालों को उसे खत्म करने की ज्यादा जल्दी थी. 20-25 एपिसोड जाते-जाते सीरियल दम तोड़ गया. इसके बाद एक दूसरा सीरियल आया जिसकी चर्चा जोरदार हुई. सीरियल से ज्यादा उसे कई एपिसोड वाला टेलीफिल्म कहें तो बेहतर होगा. वह सीरियल था अनिल कपूर अभिनित ‘24’. बड़े स्टारकारस्ट के चलते सीरियल ने आते ही सुर्खियां जरूर बटोरीं. लेकिन महीनों, सालों चलने वाले पॉपुलर सीरियलों की जमात में उसे जगह नहीं मिली. इसके इतर कोई दूसरा सीरियल एक बार में याद नहीं होता, जो राजनीति के अपने प्लॉट के लिए चर्चा में आया और सफल भी रहा और लम्बी रेस का घोड़ा साबित हुआ.
"साम दाम दंड भेद" क्यों बन सकता है ट्रेंड सेटर
किसी भी चैनल में सीरियल यूं ही लॉन्च नहीं कर दिए जाते. प्रॉडक्शन हाउस को ग्रीन सिग्नल देने से पहले उस पर रिसर्च टीम काम करती है. और दर्शकों का मिजाज टटोलती है. जाहिर है संकेत पॉजिटिव आए होंगे, तभी यह सीरियल शुरु हुआ होगा. लेकिन सीरियल मे लोगों का इंटरेस्ट बना रहे, इसके लिए चैनल ने स्टोरी को बेहद संजीदगी से ट्रीट किया है. एक तरफ शुद्ध देसी राजनीति को रखा है, तो दूसरी तरफ उसमें राजनेता के घर के अंदर की कहानी को फिट कर दिया है. एक नजर में देखेंगे तो उनके घर की कहानी भी किसी आम हिंदुस्तानी के घर की कहानी लग सकती है. जिसमें राजनीति की अनिवार्य बुराइयों से डर भी है और समाज में अपनी अलग पहचान पाने की उम्मीद भी. यानी मामला सीधे आम आदमी के घर से जुड़ता है. डायरेक्टर और राइटर ने जिस चतुराई से सियासत को फैमिली से जोड़ा है वो उन्हें एक वो उन्हें एक नई पहचान दे सकता है.
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