दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी ऑडिटोरियम में 16 नवंबर से साहित्य आजतक शुरू हो गया है और ये तीन दिन तक चलने वाला कार्यक्रम कई साहित्यकारों को साथ लाएगा. इस कार्यक्रम में दो मंच हैं एक दस्तक दरबार और दूसरा हल्ला बोल. साहित्य आजतक 2018 के दूसरे अहम मंच हल्ला बोल के तीसरे सत्र 'कलम आज़ाद है तेरी' में महिला लेखिकाओं ने कई मुद्दों पर बात की लेकिन इसमें अहम रहा नीलिमा चौहान का बोलना जहां उन्होंने उस सवाल पर कटाक्ष किया जो सदियों से महिलाओं के जीवन का अहम हिस्सा बना हुआ है. वो सवाल है कि क्या महिलाओं का अपना कोना सिर्फ रसोई घर ही है?
नीलिमा ने बागी प्रेम-विवाहों की कहानियां जुटाईं और अशोक कुमार पांडे के साथ उसका संकलन निकाला. पर उन्हें शोहरत 'पतनशील पत्नियों के नोट्स' से मिली. नीलिमा चौहान वैसे तो अपने लेखन से मर्दों की बखिया भी उधेड़ती हैं, पर कट्टर फेमिनिस्टों की तरह पुरुष विरोधी नहीं हैं.
नीलिमा चौहान को हमेशा एक बोल्ड लेखिका कहा जाता है. उनके उपन्यास पंतनशील पत्नियों के पत्र को सॉफ्ट पॉर्न तक की उपाधी दे दी गई, लेकिन क्या वाकई किसी ने ये सोचने की कोशिश की कि असल में उस उपन्यास का मतलब क्या था?
इसी सत्र में शर्मिला बोहरा जालान ने कहा था कि उन्हें लेखक कहा जाए क्योंकि लेखक सिर्फ लेखक होता है वो किसी भी तरह से लिंग के हिसाब से विभाजित नहीं हो सकता. इसी बात पर नीलिमा का कहना था कि ये एक आदर्श स्थिती होगी जिसकी तरफ हमें जाना चाहिए लेकिन ऐसा है नहीं.
आखिर दलित और स्त्री लेखन की जरूरत पड़ी ही कब?
नीलिमा चौहान ने अपने वाक्यों को थोड़ा और सशक्त करते हुए कहा कि, 'दलित और स्त्री लेखन की हमको जरूरत ही क्यों पड़ी. क्योंकि समाज में वो बराबरी की स्थिती स्त्री और पुरुष की और सवर्ण और...
दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी ऑडिटोरियम में 16 नवंबर से साहित्य आजतक शुरू हो गया है और ये तीन दिन तक चलने वाला कार्यक्रम कई साहित्यकारों को साथ लाएगा. इस कार्यक्रम में दो मंच हैं एक दस्तक दरबार और दूसरा हल्ला बोल. साहित्य आजतक 2018 के दूसरे अहम मंच हल्ला बोल के तीसरे सत्र 'कलम आज़ाद है तेरी' में महिला लेखिकाओं ने कई मुद्दों पर बात की लेकिन इसमें अहम रहा नीलिमा चौहान का बोलना जहां उन्होंने उस सवाल पर कटाक्ष किया जो सदियों से महिलाओं के जीवन का अहम हिस्सा बना हुआ है. वो सवाल है कि क्या महिलाओं का अपना कोना सिर्फ रसोई घर ही है?
नीलिमा ने बागी प्रेम-विवाहों की कहानियां जुटाईं और अशोक कुमार पांडे के साथ उसका संकलन निकाला. पर उन्हें शोहरत 'पतनशील पत्नियों के नोट्स' से मिली. नीलिमा चौहान वैसे तो अपने लेखन से मर्दों की बखिया भी उधेड़ती हैं, पर कट्टर फेमिनिस्टों की तरह पुरुष विरोधी नहीं हैं.
नीलिमा चौहान को हमेशा एक बोल्ड लेखिका कहा जाता है. उनके उपन्यास पंतनशील पत्नियों के पत्र को सॉफ्ट पॉर्न तक की उपाधी दे दी गई, लेकिन क्या वाकई किसी ने ये सोचने की कोशिश की कि असल में उस उपन्यास का मतलब क्या था?
इसी सत्र में शर्मिला बोहरा जालान ने कहा था कि उन्हें लेखक कहा जाए क्योंकि लेखक सिर्फ लेखक होता है वो किसी भी तरह से लिंग के हिसाब से विभाजित नहीं हो सकता. इसी बात पर नीलिमा का कहना था कि ये एक आदर्श स्थिती होगी जिसकी तरफ हमें जाना चाहिए लेकिन ऐसा है नहीं.
आखिर दलित और स्त्री लेखन की जरूरत पड़ी ही कब?
नीलिमा चौहान ने अपने वाक्यों को थोड़ा और सशक्त करते हुए कहा कि, 'दलित और स्त्री लेखन की हमको जरूरत ही क्यों पड़ी. क्योंकि समाज में वो बराबरी की स्थिती स्त्री और पुरुष की और सवर्ण और दलित की नहीं है. उस गैप को ही खत्म करने के लिए हम लिख रहे हैं. और हम ऐसा मान लें कि ऐसी स्थिती नहीं है तो ये पुरुष का स्वामित्व स्थापित करने की बात हो गई. यही कारण है कि अच्छी से अच्छी लेखिका भी ये स्त्रीवाद के टैग से बचने की कोशिश करती हैं और कहती हैं कि हम फेमिनिस्ट नहीं हैं, क्योंकि शायद फेमिनिस्ट एक गाली है. '
उन्होंने अपनी बात का उदाहरण देते हुए कहा कि, 'शेक्सपियर के पिता की अगर बेटी भी होती यानी अगर शेक्सपियर की बहन भी होती तो क्या वो शेक्सपियर होती? नहीं होती .. क्योंकि हालात ये हैं कि जब तक स्त्री इकोनॉमिकली इंडिपेंडेंट नहीं है और उसके पास लिखने के लिए एक अपना कोना नहीं है तो वो लेखक नहीं है ऐसा समझा जाता है.'
क्या सही नहीं है ये बातें? आखिर क्यों अभी भी महिलाएं इस बात से बचती हैं कि वो फेमिनिस्ट हैं. फेमिनिज्म के मतलब को सिर्फ एक ही तरह से क्यों लिया जाता है? उनसे किसी और के बारे में सोचने की गुजारिश क्यों नहीं की जाती है. ये तो फेमिनिज्म के मायने को ही गलत समझने वाली बात हो गई.
स्त्री का 'अपना कोना' रसोई नहीं है..
नीलिमा चौहान ने बहुत सशक्त माध्यम से अपनी बात रखते हुए कहा कि, 'स्त्री को ऐसे महिमा मंडित किया जाता है कि देखिए ये महिला रसोई घर में भी लिख रही है. लेकिन स्त्री का अपना कोना रसोई तो नहीं. ऐसी स्त्रियों से लोग आतंकित क्यों होते हैं जो बनी-ठनी अपने स्पेस में कुछ लिख रही है. वो पैर पसार कर टांग पर टांग रखकर बहुत सुकून से सोचते हुए लिख रही है तो उसे क्यों बोल्ड कहा जाता है. अपने कंधों पर पूरी दुनिया का बोझ उठाकर चलती स्त्री ही लेखिका है और जो स्त्री बोल्ड होकर लिख रही है वो स्त्री सही नहीं है. उसे तरह-तरह की उलाहना दी जाती है. खुद मुझे पतनशील के माध्यम से कहा गया कि मैं सॉफ्ट पॉर्न लिखती हूं.
ये एलीट महिलाओं का फेमिनिज्म है, इसमें गांव की औरतें कहां हैं, इसमें मजदूरनियां कहां हैं. इसमें मेड कहां है. तो ये तर्क जो दिए जा रहे हैं वो बहुत टेक्स्ट बुक जैसे हैं. कुछ तो नया सोचिए न.'
एक तरह से नीलिमा चौहान की बात बिलकुल सही है. ये सही इसलिए है क्योंकि वाकई अब 2018 साल में भी हमारे समाज में ये सोचा जाता है कि आखिर ये महिला इतनी बोल्ड क्यों हो गई है और इस तरह से क्यों लिख रही है. आज हम कंटेंट की सेंसरशिप की बात करते हैं जहां किसी फिल्म को सेंसर किया जाता है, जहां नेटफ्लिक्स और अमेजन को सेंसर किए जाने पर केस चल रहा है वहां आखिर कैसे किसी एक महिला की लेखनी पर सवाल नहीं उठेंगे. सवाल उठते हैं और ये भी कहा जाता है कि महिला बोल्ड है. पर इस बोल्ड शब्द के मायने कुछ और ही सोचे जाते हैं. बोल्ड का मतलब यहां कैरेक्टरलेस से ही कहीं न कहीं जोड़ा जाता है जब्कि बोल्ड शब्द का मतलब ही ये है कि जो बाकियों से अलग खुद को स्थापित कर दे और सामने उभर कर आए. पर क्या करें महिलाओं के लिए तो यही सोचा जाता है.
ये भी पढ़ें-
Metoo को नए सिरे से देखने पर मजबूर कर देगी ये कविता
चौपट राजा का तो पता नहीं लेकिन क्या हम वाकई अंधेर नगरी में रह रहे हैं?
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.