दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी ऑडिटोरियम में 16 नवंबर से साहित्य आजतक शुरू हो गया है और ये तीन दिन तक चलने वाला कार्यक्रम कई साहित्यकारों को साथ लाएगा. इस कार्यक्रम में तीन मंच हैं और हर मंच पर अलग-अलग लोगों द्वारा देश और साहित्य के ज्वलंत मुद्दों पर बात की जा रही है. इसी बीच एक सत्र में शम्स ताहिर खान के साथ बात की लेखक और उपन्यासकार अब्दुल बिस्मिल्लाह ने. इस बातचीत का विषय था 'उर्दू जिसे कहते हैं'. इस सत्र में एक बेहद अहम मुद्दे पर बात की गई और वो था एक जव्लंत सवाल कि आखिर कौन सी भाषा किस धर्म की है.
अक्सर लोगों को ये कहते सुना है कि उर्दू तो मुसलमानों की भाषा है और हिंदी हिंदुओं की. कई लोगों को ये सवाल असल में सवाल लगता ही नहीं बल्कि उनके लिए तो ये फैक्ट है, लेकिन कितने लोग ये जानते हैं कि अंग्रेजों के आने से पहले तक तो असल में उर्दू कोई भाषा ही नहीं थी? गालिब और तारिक मीर जिन्हें उर्दू के शायर माना जाता है उन्होंने तो खुद कभी कहा ही नहीं कि वो उर्दू में लिख रहे हैं जब्कि उन्होंने अपनी शायरी, खतों को हिंद्वी भाषा का नाम दिया. फिर कैसे उर्दू को कहा जा सकता है कि वो मुसलमानों की भाषा है?
ये सवाल अब्दुल बिस्मिल्लाह के लिए किसी कटाक्ष जैसा ही था जिसका जवाब भी बहुत साफ शब्दों में दिया गया. यहां कोई बड़ी-बड़ी बातों को नहीं बल्कि फैक्ट्स को चुना गया और फैक्ट्स की बात ही की गई.
अब्दुल बिस्मिल्लाह ने कहा कि अंग्रेजों के आने से पहले उर्दू भाषा के बारे में किसी को पता ही नहीं था. ये बस एक विभाजन की तकनीक थी. इसके पहले तो हिंदवी भाषा कहा जाता था उसे क्योंकि मुगल जब भारत आए तो वो अपनी भाषा लेकर आए. हजारों सैनिकों के साथ, लेकिन यहां आते-आते उनकी फौज कम हो गई और उन्हें हिंदू सैनिकों की...
दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी ऑडिटोरियम में 16 नवंबर से साहित्य आजतक शुरू हो गया है और ये तीन दिन तक चलने वाला कार्यक्रम कई साहित्यकारों को साथ लाएगा. इस कार्यक्रम में तीन मंच हैं और हर मंच पर अलग-अलग लोगों द्वारा देश और साहित्य के ज्वलंत मुद्दों पर बात की जा रही है. इसी बीच एक सत्र में शम्स ताहिर खान के साथ बात की लेखक और उपन्यासकार अब्दुल बिस्मिल्लाह ने. इस बातचीत का विषय था 'उर्दू जिसे कहते हैं'. इस सत्र में एक बेहद अहम मुद्दे पर बात की गई और वो था एक जव्लंत सवाल कि आखिर कौन सी भाषा किस धर्म की है.
अक्सर लोगों को ये कहते सुना है कि उर्दू तो मुसलमानों की भाषा है और हिंदी हिंदुओं की. कई लोगों को ये सवाल असल में सवाल लगता ही नहीं बल्कि उनके लिए तो ये फैक्ट है, लेकिन कितने लोग ये जानते हैं कि अंग्रेजों के आने से पहले तक तो असल में उर्दू कोई भाषा ही नहीं थी? गालिब और तारिक मीर जिन्हें उर्दू के शायर माना जाता है उन्होंने तो खुद कभी कहा ही नहीं कि वो उर्दू में लिख रहे हैं जब्कि उन्होंने अपनी शायरी, खतों को हिंद्वी भाषा का नाम दिया. फिर कैसे उर्दू को कहा जा सकता है कि वो मुसलमानों की भाषा है?
ये सवाल अब्दुल बिस्मिल्लाह के लिए किसी कटाक्ष जैसा ही था जिसका जवाब भी बहुत साफ शब्दों में दिया गया. यहां कोई बड़ी-बड़ी बातों को नहीं बल्कि फैक्ट्स को चुना गया और फैक्ट्स की बात ही की गई.
अब्दुल बिस्मिल्लाह ने कहा कि अंग्रेजों के आने से पहले उर्दू भाषा के बारे में किसी को पता ही नहीं था. ये बस एक विभाजन की तकनीक थी. इसके पहले तो हिंदवी भाषा कहा जाता था उसे क्योंकि मुगल जब भारत आए तो वो अपनी भाषा लेकर आए. हजारों सैनिकों के साथ, लेकिन यहां आते-आते उनकी फौज कम हो गई और उन्हें हिंदू सैनिकों की भर्ति करनी पड़ी. इसके बाद शुरू हुआ भाषा का मेल मिलाप और यही बनी भाषा हिंदवी जहां हिंदी के भी शब्द थे और उसमें उज्बेकिस्तान, तजीकिस्तान की भाषा और फारसी के भी शब्द थे जहां से मुगल आए थे.
इस तरह की बातें वाकई कई बार सुनने को मिलती हैं कि ये तो उर्दू बोल रहा है, ये तो मुसलमान होगा या इस्लाम से जुड़ाव होगा या फिर सूफी गाने तो मुसलमानों के लिए होते हैं. उनमें तो उर्दू बोली जाती है, लेकिन क्या आपने कभी सोचने की कोशिश की कि हम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में आखिर कितने उर्दू के शब्द बोल जाते हैं?
दोस्त, दोस्ती, दिल, औरत, आजादी, कानून, साहब, खून, इमारत, हालत, कमरा, दरवाजा, शर्म, इज्जत, किस्सा, ईमान, किस्मत और न जाने कितने ही ऐसे शब्द हैं जिन्हें हम हिंदी मानकर हिंदी का ही हिस्सा समझते हैं और उन्हें रोजाना बोलते हैं लेकिन ऐसा है नहीं कि वो हिंदी है.
आज हिंदुस्तान में किसी राह चलते इंसान से पूछा जाए कि क्या वो उर्दू जानता है तो उसका जवाब होगा नहीं, लेकिन अगर उसे भी बताए जाएंगे ये सारे शब्द तो शायद वो भी चौंक जाए कि आखिर उसे कितनी उर्दू आती है.
अगर हम इसे ही नहीं समझ सकते कि आखिर हिंदी और उर्दू में फर्क क्या है और ये विभाजन किसने किया हम बस अपने मन में नफरत पाले फिरते हैं और उसी को सत्य मानते हैं. पर क्या इस हिंदू मुस्लिम के बंटवारे से ऊपर उठकर हम कुछ नहीं सोच सकते?
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